तेज लहरों की भीषण हाहाकार,
है वेदना का प्रकटीकरण सागर का,
मौन वेदना की भाषा का हार,
कौन समझ पाया है इस जग में।
लहरें चूमती सागर तट को बार बार,
पोछ जाती इनके दामन हर बार,
करजोड़ विनती कर जैसे पाँव पकड़ती,
पश्चाताप किस भूल का करती?
शायद निचोड़ा है इसने धड़ा को स्वार्थवश,
सर्वस्व धरा का लेकर किया स्वनिर्माण,
पश्चाताप उसी भूल का करती?
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२९ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आज की प्रस्तुति में मेरी विविध रचनाओं को एक जगह शामिल कर आपने मुझे विस्मित कर दिया है आदरणीया श्वेता जी। मेरे शौकिया लेखन को विशिष्टता प्रदान करने हेतु हृदयतल से आभारी हूँ।
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसदैव उत्साहवर्धन हेतु हृदयतल से आभार आदरणीया अनुराधा जी।
Deleteवाह गजब दृष्टि।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ।
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