जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Saturday, 15 February 2020
Friday, 14 February 2020
कोशिशें
नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?
असंख्य तारे, टंके आसमां पर,
कर कोशिशें, लड़े अंधेरों से रात भर,
रहे जागते, पखेरू डाल पर,
उड़ना ही था, उन्हें हर हाल पर,
चाहे, करे कोशिशें,
अंधेरे, रुकने की रात भर!
नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?
ठहर जा, दो पल, ऐ चाँद जरा,
अंधेरे हैं घने, तू लड़, कुछ और जरा,
भुक-भुक सितारों, संग खड़ा,
हो मंद भले, तेरे दामन की रौशनी,
पर, तू है चाँदनी,
कोशिशें, कर तू रात भर!
नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?
यूँ जारी हैं, हमारी भी कोशिशें,
जलाए हमने भी, उम्मीदों के दो दीये,
लेकिन भारी है, इक रात यही,
व्याप्त निशा, नीरवता ये डस रही,
बुझने, ये दीप लगी,
करती कोशिशें, रात भर!
नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
Thursday, 13 February 2020
विहग - झूलती डाली
झूलती डाली, उड़ते-चहकते विहग,
जैसे, प्रसंग कोई छिड़ा हो,
गहन सी, कोई बात हो,
या, विहग, बिन-बात ही भिड़ा हो,
उलझ कर, साथ में,
फुर्र-फुर्र, वो कहीं उड़ा हो!
झूलती डाली, उड़-उड़ आते विहग,
प्रासंगिक सी, वो बात हो,
शुरु, फिर आप्रवास हो,
या, वियोग ही, विहग का बड़ा हो,
तीर, लग कर कोई,
जोड़ा, विहग का, मरा हो!
झूलती डाली, दूर-दूर तकते विहग,
बहेरी, पास ही खड़ा हो,
प्रसंग, वो ही बड़ा हो,
प्रश्न-चिन्ह, मानवता पर, लगा हो,
स्वार्थी, बहेरी ने ही,
लघु-मन को, झकझोरा हो!
झूलती डाली, विरह में डूबे विहग,
प्रसंग, जीवन से बड़ा हो,
जंग, कोई छिड़ा हो,
प्रश्न-चिन्ह, अस्तित्व पर लगा हो,
उस चह-चहाहट में,
दर्द ही, विहग का घुला हो!
झूलती डाली, उड़ते-चहकते विहग,
जैसे, प्रसंग कोई छिड़ा हो,
गहन सी, कोई बात हो,
या, विहग, बिन-बात ही भिड़ा हो,
उलझ कर, साथ में,
फुर्र-फुर्र, वो कहीं उड़ा हो!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
Wednesday, 12 February 2020
बेज़ुबान पंछी
सेवते अण्डे,
घटाटोप बादल,
सोचते पंछी!
दुष्ट प्रवृत्ति,
निर्दयी बहेलिया,
सहमी जान!
झूलते डाल,
टूटते वो घोंसले,
गिरते अण्डे!
तेज पवन,
निस्तेज होता मन,
चुप बेजुबां!
कैसा ये ज़हां,
बिखरा वो आशियां,
खुश अहेरी!
करे आखेट,
निर्दयी वो आखेटक,
मारते पंछी!
झूलते डाल,
बिखरे से घोंसले,
मृत वे चूजे!
रोते आकाश,
पछताते पवन,
कर अनर्थ!
चुप सी हवा,
ठहरा वो बादल,
निढ़ाल पंछी!
वही मानव,
बन बैठा दानव,
करे उत्सव!
थमा मौसम,
निढाल सा चातक,
ताकते नभ!
मूक सी बोली,
बेज़ुबान वो बात,
भीतरी घात!
घटाटोप बादल,
सोचते पंछी!
दुष्ट प्रवृत्ति,
निर्दयी बहेलिया,
सहमी जान!
झूलते डाल,
टूटते वो घोंसले,
गिरते अण्डे!
तेज पवन,
निस्तेज होता मन,
चुप बेजुबां!
कैसा ये ज़हां,
बिखरा वो आशियां,
खुश अहेरी!
करे आखेट,
निर्दयी वो आखेटक,
मारते पंछी!
झूलते डाल,
बिखरे से घोंसले,
मृत वे चूजे!
रोते आकाश,
पछताते पवन,
कर अनर्थ!
चुप सी हवा,
ठहरा वो बादल,
निढ़ाल पंछी!
वही मानव,
बन बैठा दानव,
करे उत्सव!
थमा मौसम,
निढाल सा चातक,
ताकते नभ!
मूक सी बोली,
बेज़ुबान वो बात,
भीतरी घात!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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हाइकु: जापान के काव्य-जगत में, हाइकु को स्थान दिलाने वाले जापानी कवि बाशो ‘हाइकु’ को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि “एक अच्छा हाइकु क्षण की अभिव्यक्ति होते हुए भी किसी शास्वत जीवन-सत्य की अभिव्यक्ति होता है|”
हाइकु मूल रूप से एक अतुकांत कविता है और हाइकु के मान्य विषय प्रकृति–चित्रण और दार्शनिक-सोच हैं। परन्तु हिन्दी हाइकु में अनेकानेक विविध प्रयोग हुए हैं।
हाइकु में तीन चरण या पद होते हैं। पहले चरण में 5 वर्ण, दूसरे में 7 वर्ण एवं तीसरे में 5 वर्ण होते हैं। इस तरह तीनों चरणों में कुल (5+7+5) 17 वर्ण (स्वर या स्वर युक्त व्यंजन) होते हैं। स्वर रहित व्यंजन (हलन्त्) की गिनती नहीं की जाती, जैसे विस्तार में स् की गणना नही की जाएगी । इस शब्द में वि, ता और र की ही गणना की जाएगी । इस गणना में लघु/दीर्घ मात्राएँ समान रूप से गिनी जाती हैं, अर्थात् विस्तार में 1+1+1=3 वर्ण ही माने जाएँगे।
इन पंक्तियों की विशेषता होती है कि ये अपने आप में स्वतंत्र होती हैं परन्तु आखिरी अक्षर तक पहुँचते ही पाठक के सामने एक पूरी तस्वीर प्रस्तुत होती है, मन में गहन भाव का बोध होता है|
Tuesday, 11 February 2020
रुग्ध मन
दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!
बहकी घटा,
हलकी सी छुवन,
गुम ये मन!
खिलती कली,
हिलती डाल-डाल,
क्षुब्ध ये मन!
सुरीली धुन,
फिर वो रूनझुन,
डूबोए मन!
बहते नैन,
पल भर ना चैन,
करे बेचैन!
गाती कोयल,
भाए न इक पल,
करे बेकल!
वही आहट,
वो ही मुस्कुराहट,
भूले न मन!
खुद से बातें,
खुद को समझाते,
रहे ये मन!
अंधेरी रातें,
फिर वो सौगातें,
ढ़ोए ये मन!
ना कोई कहीं,
कहें किस से हम,
रोए ये मन!
दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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हाइकु - कविता की एक ऐसी विधा, जिसकी उत्पत्ति जापान में हुई और जिसके बारे में आदरणीय रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी ने कहा कि "एइ कवितागुलेर मध्ये जे केवल वाक्-संयम ता नय, एर मध्ये भावेर संयम।" अर्थात, यह सिर्फ शब्द संयोजन नहीं, इसके मध्य एक भाव संयोजन है।
Sunday, 9 February 2020
तुम जो गए
तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!
लेते गर सुधि,
ऐ, सखी,
सौंप देता, ये ख्वाब सारे,
सुध जो हारे,
बाँध देता, उन्हें आँचल तुम्हारे,
पल, वो सभी,
जो संग, तेरे गुजारे,
रुके हैं वहीं,
नदी के, वो ठहरे से धारे,
बहने दे जरा,
मन,
या
नयन,
सजल, सारे हो गए,
तुम जो गए!
तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!
सदियों हो गए,
सोए कहाँ,
जागे हैं, वो ख्वाब सारे,
बे-सहारे,
अनमस्क, बेसुध से वो धारे,
ठहरे वहीं,
सदियों, जैसे लगे हों,
पहरे कहीं,
मन के, दोनों ही किनारे,
ये कैसे इशारे,
जीते,
या
हारे,
पल, सारे खो गए,
तुम जो गए!
तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
Saturday, 8 February 2020
सपने
अजीब होते हैं, ये कितने...
बंद होते ही आँखें, तैरने लगते हैं सपने!
क्षण-भर को, कितने लगते ये अपने,
समाए कब, खुली पलकों में,
जागे से पल में, गैर लगे ये कितने!
विस्मित करते, ये सपने!
सपने ना होते, तो होती ना आशा,
कहीं ना रहता, ये मन बंधा सा,
उभरते ना, रंग कहीं उन ख्वाबों में,
रोशनी, होती न अंधियारों में,
यूँ, कल्पनाओं में, गोते ना खाते,
यूँ गीत कोई, पंछी ना गाते,
यूँ, खिलती ना कलियाँ,
यूँ भौंरे, डोल-डोल न उन पर आते,
फूल कोई, फिर यूँ ना शर्माते,
सजती ना, फूलों से डोली,
आती ना, लौटकर होली,
यूँ, गूंजती ना, कोयल की बोली,
संजोती ना, दुल्हन,
नैनों में रुपहले, सपने!
अजीब होते हैं, ये कितने....
दिग्भ्रमित कभी, कर जाते हैं ये सपने!
राह कहीं भटकाते, बन कर अपने,
समाए कब, पनाहों में सारे,
टूटे बिखरे, जैसे आसमां के तारे!
व्यथित करते, ये सपने!
सपने ना होते, पनपती ना निराशा,
उड़ता ये मन, आजाद पंछी सा,
न कैद होते, ये पंख किसी पिंजरे में,
हर वक्त, न होते इक पहरे से,
यूँ, आशाओं के, टुकड़े ना होते,
यूँ, टूट कर, काँच ना चुभते,
यूँ, बिखरते ना ये अरमाँ,
यूँ,भभक-भभक, जलती ना शमां,
यूँ, दूर कोई, विरहा ना गाता,
टूटती ना, फूलों की माला,
यूँ कोई, पीता ना हाला,
बिलखती ना, वो दुल्हन नवेली,
आँसुओं में, बहकर,
ना ढ़ल जाते, ये सपने!
अजीब होते हैं, ये कितने...
बहा ले जाते, कहीं छोड़ जाते ये सपने!
क्षण-भर ही, करीब होते जैसे अपने,
कभी करते, संग गलबहियाँ,
दूर हुए जब ये, गैर लगे ये कितने!
अतिरंजित से, ये सपने!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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