Tuesday 2 April 2019

वक्त के संग

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

ठहरा कहीं न जीवन, शाश्वत है परिवर्तन,
गतिशील वक्त, हो वन में जैसे हिरण,
न छोड़ता कहीं, अपने पाँवों की भी निशानी,
चतुर-चपल, फिर करता है ये चतुराई,
वक्त बड़ा ही निष्ठुर, जाने कब कर जाए छल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

न की थी वक्त ने, कोई हम पे मेहरबानी,
करवटें खुद ही, बदलता रहा हर वक्त,
तन्हाई खुद की, है उसे किसी के संग मिटानी,
सोंच कर यही, रहता वो संग कुछ पल,
फिर मौसमों की तरह, बस वो जाता है बदल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

हैं बड़े ही बेरहम, वक्त के ज़ुल्मों-सितम,
चल दिए तोड़ कर, मन के सारे भरम,
यूँ न कोई किसी से करे, छल-कपट बेईमानी,
ज्यूं कर गया है, वक्त अपनी मनमानी,
बिन धुआँ इक आग यह, इन में न जाएं जल!

यूँ! वक्त के संग, थोड़े हम भी गए बदल...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 28 March 2019

नीर नही ये, मन के हैं मनके

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

कोई बदली सी, छाई होगी उस मन में,
कौंधी होगी, बिजली सी प्रांगण में,
टूट-टूटकर, बरसा होगा घन,
भर आया होगा, छोटा सा मन का आंगण,
फिर घबराया होगा, वो नन्हा सा मन,
संवाद चले होंगे, फिर नैनों से,
फूट-फूटकर, फिर रोए होंगे ये नयन!

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

नीरवता, किसी नें तोड़ी होगी मन की,
कहीं तन्द्रा, भंग हुई होगी उसकी,
प्रतिध्वनि, करती होगी बेचैन,
अकुलाहट में फिर, फेरे होंगे उसने मनके,
घबराया होगा, वो मूक बधिर सा मन,
कुछ मनके, टूटे होंगे उस मन,
फिर नैनों में, छाए होंगे अश्रु के घन!

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

कोई सागर, लहराता होगा उस मन में,
बार-बार, लहरें उठती होंगी उन में,
टकराती होंगी, दीवारें निरंतर,
आवेग कई, सहता होगा वो व्याकुल मन,
निरंतर, भीगे से रहते होंगे उसके तट,
लहर कई, तोड़ बहते होंगे पट,
फिर नीरधि, छलके होगे उस नयन!

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 26 March 2019

अश्रु, तू क्यूँ बहता?

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद टूटा, मन का घड़ा,
या बहती दरिया का मुँह, किसी ने मोड़ा,
छलक आए ये सूखे से नयन,
लबालब, ये मन है भरा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद बही, रुकी सी धारा,
या असह्य सी व्यथा, कह किसी ने पुकारा,
कुछ पल रही, पलकों में अटकी,
रोके, कब रुकी वो धारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद खुद, बही हो धारा,
या अन्तर्मन ही उभरा हो, दबा कोई पीड़ा,
भूली दास्ताँ, हो यादों मे उमरा,
बरबस, बही वो अश्रुधारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद हो, व्यथित वसुधा,
हो ख़ामोशियों की, कोई भीगी सी ये सदा,
कहीं व्योम में, जख्म हो उभरा,
बरस आई, बूँदों सी धारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद हो, रातों का मारा,
दुस्कर उन अंधियारों से, नवदल हो हारा,
अश्रुधार, छलक आईं कोरों से,
ओस, नवदल पर उभरा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 24 March 2019

प्रेम के कल्पवृक्ष

ऐ नैसर्गिक प्रेम के मृदुल एहसास,
फैल जाओ तुम फिर इन धमनियों में रक्त की तरह,
फिर लेकर आओ वही मधुमास,
के देखूँ जिधर भी मैं दिशाओं में मुड़कर,
वात्सल्य हो, सहिष्णुता हो, हर आँखों मे हो विश्वास,
लोभ, द्वेश, क्लेश, वासना, तृष्णा का मन जले,
कण-कण में हो सिर्फ प्रेम का वास.....

प्रेम ...!
न जाने कितनी ही बार,दुहराया गया है यह शब्द,
कितनी बार रची गई है कविता,
कितनी बार लिखा गया है इतिहास ढाई आखर का
जिसमें सिमट गई है....
पूरी दुनिया, पूरा ब्रह्माँड, पूरा देवत्व,
रचयिता तब ही रच पाया होगा इक कल्पित स्वर्ग...

अब ...! प्रेम वात्सल्य यहीं कहीं गुम-सुम पड़ा है,
पाषाण से हो चुके दिलों में,
संकुचित से हो चुके गुजरते पलों में,
इन आपा-धापी भरे निरंकुश से चंगुलों में,
ध्वस्त कर रचयिता की कल्पना, रचा है हमने नर्क...

सुनो..! चाहता हूँ मैं फिर लगाऊँ वात्सल्य के कल्पवृक्ष,
ठीक वैसे ही जैसे....
समुद्र के बीच से जगती है ढेह सी लहरें
बादलों की छाती से फूट पड़ते है असंख्य बौछारें
शाम की धुली अलसाई हवा कर जाती है रूमानी बातें,
अचानक सूखते सोते भर जाते हैं लबालब....

क्युँ न ..!
एक बार फिर से रक्त की तरह हमारे धमनियों में,
दौड़ जाए प्रेम की नदी !

और खिल जाएँ प्रेम के कल्पवृक्ष.....

(मेरी ही एक पुरानी रचना, जो मुझे हमेशा नई लगती है, पुनःउद्धृत है)
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 23 March 2019

क्षणिक अनुराग

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

दो छंदों का यह कैसा राग?
न आरोह, न अनुतान, न आलाप,
बस आँसू और विलाप.....
ज्यूँ तपती धरती पर,
छन से उड़ जाती हों बूंदें बनकर भाफ,
बस तपन और संताप....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

गीत अधुरी क्यूँ उसने गाई,
दया तनिक भी फूलों पर न आई,
वो ले उड़ा पराग....
लिया प्रेम, दिया बैराग,
ओ हरजाई, सुलगाई तूने क्यूँ ये आग?
बस मन का वीतराग.....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

सूना है अब मन का तड़ाग,
छेड़ा है उस बैरी ने यह कैसा राग!
सुर विहीन आलाप....
बे राग, प्रीत से विराग,
छम छम पायल भी करती है विलाप,
बस विरह का सुहाग.....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

(मेरी ही, एक पुरानी रचना पुनःउद्धृत)
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 22 March 2019

ऐ जिन्दगी

ऐ जिन्दगी, परखुँ तुझे या बस निरखूँ मैं तुझे!

सुन लूँ मैं धुन तेरी, या चुन लूँ मैं बस तुझे,
हर पहलू तेरा, लिख लूँ कागजों पे,
रंग हजार, रूप अनेक हैं तेरे,
जी लूँ बस तुझे, या घूँट-घूँट पी लूँ मैं तुझे।

ऐ जिन्दगी, परखुँ तुझे या बस निरखूँ मैं तुझे!

मासूम सा बचपन, आवारा, बेचारा सा,
गलियों में फिर रहा, मारा-मारा सा,
अभाव-ग्रस्त, लाचार, विवश,
बस इक चाह अंतहीन, जी लेने की है उसे।

ऐ जिन्दगी, परखुँ तुझे या बस निरखूँ मैं तुझे!

सुनसान सी हैं गलियाँ, बेजार सा है मन,
ढ़ह रहा रेत सा, पलपल यहाँ जीवन,
दिलों में, मृतप्राय हुए स्पंदन,
ढ़हते से घरौंदे, कैसे सँवार-संभाल लूँ इसे!

ऐ जिन्दगी, परखुँ तुझे या बस निरखूँ मैं तुझे!

जीविका की तलाश, जीवन से है बड़ी,
जीने के लिए, इक जंग सी है छिड़ी,
अपनों से दूर, हुआ है आदमी,
बिसात सी है बिछी, खेलना है बस जिसे!

ऐ जिन्दगी, परखुँ तुझे या बस निरखूँ मैं तुझे!

आ पहलू में डाल लूँ, चल पुकार लूँ तुझे,
आँखों में उतार लूँ, मैं प्यार दूँ तुझे,
माफ हैं तेरी, अनगिनत खताा,
बस ये बता, जी लूँ तुझे या पी लूँ मैं तुझे।

ऐ जिन्दगी, परखुँ तुझे या बस निरखूँ मैं तुझे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 21 March 2019

होली 2019

ऐसे न मैं गुनगुनाता,
न रंग कोई, आँखोँ पे सजाता,
गर मेरे ख्वाब, आँचल में तुम ना संजोते!

ऐसा ना धा, कभी ये गगन सतरंगा,
ऐसा न था, पवन रंगा-रंगा,
ये होली के रंग, सतरंगी ना होते,
गर फागुन के इन रंगो में, तुम भीगे ना होते!

ये फगुनाहट, ये मौसम का पहरा,
वक्त है जरा, ठहरा-ठहरा,
मौसम के घूंघट, बासंती ना होते,
इन मदमस्त पलो में , गर तुम ना मिले होते!

ऐसा न था, रंग कभी अम्बर का,
ऐसा न था, चाल गगन का,
अम्बर के, वितान प्रखर ना होते,
गर इनके विस्तार, बाहों में तुम ना भर लेते!

शब्द होता, कहीं बिखरा-बिखरा,
घुन होता, यूँ उखरा-उखरा,
सुरों में, न साधना के स्वर सधते,
गर ये गीत मेेेरे, तुम सप्तसुरो में ना पिरोते!

ऐसे न मैं गुनगुनाता,
न गीत कोई, होठों पे सजाता,
गर मेरे ख्वाब, आँचल में तुम ना संजोते!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 18 March 2019

फागुन 2019

दूँ फागुन में डाल, मैं भी थोड़ा सा गुलाल...

ये किस ने बिखेरे, फागुन के रंग,
बहकी सी है फिजा, बहका है अंग-अंग,
गूंज उठी है, हवाओं में तरंग,
मन में क्यूँ रहे, कोई भी मलाल,
दूँ फागुन में डाल, मैं भी थोड़ा सा गुलाल...

खामोश क्यूँ बहे, आज ये पवन,
क्यूँ बेजार सा रहे, तन्हाई में कोई मन,
बेरंग क्यूँ रहे, आज ये गगन,
रह जाए ना कहीं, कोई भी मलाल,
दूँ फागुन में डाल, मैं भी थोड़ा सा गुलाल...

सिमट जाए ना, जिन्दगी के पल,
रंग ले जरा, आ जिन्दगी के साथ चल,
गीत कोई गा, तू जरा मचल,
बच जाए ना, अब कोई भी मलाल,
दूँ फागुन में डाल, मैं भी थोड़ा सा गुलाल...

या टेसूओं के फूल से, रंग मांग लूँ,
या गुलमोहर की डाल से, रंग उधार लूँ,
या पलाश के रंग उतार लूँ,
रंग का रहे, ना कोई भी मलाल,
दूँ फागुन में डाल, मैं भी थोड़ा सा गुलाल...

होली 2019 की शुभकामनाओं सहित
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा