Monday 4 January 2016

भाग्य और किस्मत

भाग्य का दामन,
नही छोड़ा कभी जीवन ने,
कर्म का भाग्य से शायद,
है जन्मों का नाता,
किस्मत मे जो है तेरे,
वही सामने आता।

वश नहीं विधि के लिखे पर,
दूर जिससे तू जितना भागता,
उतना ही वो समीप आ जाता,
लिखा तेरा तेरे सामने आता,
भाग्य के रेखाओं पर,
वश कहाँ चल पाता।

कर्म किए जा तू पथपर,
आगे की व्यर्थ चिन्ता मतकर,
जो होगा लिखा विधि में,
आएगा वो खुद चलकर,
भाग्य के लिखे पर,
वश कहाँ चल पाता।

अच्छे-बुरे की कर पहचान,
पथ अपनी तू चलता जा,
भाग्य को मत कौश अपने,
किस्मत की अनमिट रेखा,
तू बदल नही सकता,
है तेरे किस्मत मे जो,
वही सामने आता।

दिल ढूंढता फिर

दिल की विरानियों मे फिर उठी सर्द हवाएँ,
वादियो की गहराई मे खामोशियों की हैं सदाएँ,
दिल ढूंढता फिर वही कहकशों के शहर,
दे जाओ तुम साथ वादियों मे कहीं दूर तक।

लम्हात जिनमे हैं तुझ संग बेफिक्री की रवानियां,
बसते हैं जिनमे असंख्य फूल तेरी यादों के
दिल के प्रस्तर पर उन्ही लम्हों को बिखेर दो,
दे जाओ तुम साथ जज्बातों में कहीं दूर तक।

बंधन मुक्त

मैं बंधन मुक्त हो जाऊँ।

मुक्त जीवन जाल से कर दो,
हृदय अन्तस् तेरा छू जाऊँ,
उत्कंठाओ को नव स्वर दे दूँ,
मर्म जीवन का समझ पाऊँ।

कल्पनाओं के मुक्त पंख दे दो,
उन्मुक्त पंछी बन ऊड़ जाऊँ,
ऊड़ बैठूं कभी हिमगिरि पर,
कभी वृक्ष विशाल चढ़ जाऊँ।

मुझको विशाल व्योम दे दो,
आभाओं के दीप बन जल जाऊँ,
रचना नवश्रृष्टि की कर पाऊँ।
मुक्त भव-बाधा से मैं हो जाऊँ।

मैं बंधन मुक्त हो जाऊँ।

वो हो तुम..... !

वो हो तुम..... !

आभामंडल मुखरित,
नयनों मे रतरजिनी,
होठों पर रज पंखुरी,
प्रकाश पुंज आँखों मे,
कंठ में गीत मधु कामिनी,
स्वर में वीणा का कंपन,
तेज सरस्वती सम्।

वो हो तुम..... !

आशाओं के स्वर,
जीवन ज्योत पुंज,
सप्तरागिणी प्रभात की,
तुम नवगति नवलय ताल,
जड़ जीवन के गीत तुम,
जड़ चेतन का प्राण,
स्पर्श मधुमास सम्।

वो हो तुम..... !

शब्दों को होठों का कंपन दे दो

मेरे शब्दों को तुम स्वर दे दो,
तुम इनको जीवन अंबर दे दो,
मुखरित तभी ये हो पाएंगे,
कंठ सभी के बस जाएंगे।
मेरे शब्दों को अपनी होठों का कंपन दे दो।

कहते है शब्दों से भाषा बनती,
पर मेरे शब्दों के परिश्रम व्यर्थ क्युँ जाते,
ये शब्द भाषा मे क्युँ नही ठल पाते,
तेरे स्वर मे है वीणापाणि बसती,
तुम इनको मुखरित स्वर दे दो,
मेरे शब्दों को अपनी होठों का आलिंगन दे दो।

Sunday 3 January 2016

है कौन सा वो प्रथम स्वर?

है कौन सा वो प्रथम स्वर,
आरंभ जहां से होता जीवन संगीत,
फूटते जहाँ से प्राणो के निर्झर,
क्या वो "सा" है? शायद नहीं!
संगीत जीवन का इससे भी है सुन्दर,
सोचता मन अक्सर, है कौन सा वो स्वर?

"सा" तो है महज कल्पना मानस की,
इसने कोशिश की है मात्र,
स्वर को इक देने की सीमा,
जीवन तो है कल-कल बहता निर्झर,
सात स्वरों की सीमाओं मे ये बंधा है कब,
सोचता मन अक्सर, है कौन सा वो स्वर?

प्रथम स्वर उस माता का है शायद,
गर्भ मे सुना जिसको शिशु नवजात ने,
पहला स्वर या फिर ब्रह्मांड का है,
प्रकृति ने सुन जिसको छेड़ी रागिणी,
कलकल सरिताओं ने पर्वत के भेदे हृदय,
सोचता मन अक्सर, है कौन सा वो स्वर?

मन का हिरण

हिरण सदृश चंचल मन,
दौड़े चहुँ ओर वन उपवन,
संग लिए चपल चितवन।

गति मन की अति अद्भुत्,
इत देखे ना कभी उत्,
समझ हृदय तू बन प्रबुद्ध।

मन पर तू रख नियंत्रण,
वश कर इंन्द्रियों को क्षण-क्षण,
ढ़क ले प्राणों का आवरण।

पराशक्ति ईश्वर से

प्राण बसते उस सूक्ष्म पराशक्ति में,
रमता है जो घट-घट मे,
वो आँसूओं में वो क्रंदन में,
वेदनाओं मे निराशाओं मे,
सन्नाटों के घन आहटों मे,
रमता वो हिम के वियावानों में,
तुम हृदय बसो तभी तुम्हे मानूँ।

तेरे बगैर आँसुओं के मौन,
वेदनाओं के करुण क्रन्दन,
निराशाओं के घनघोर घन,
आहटों के प्रतिपल तेज चरण,
साए चुपचाप, प्रतिविम्ब मौन,
सन्नाटों के क्षण व्याकुल मन,
वेदना तुम झेलो तभी तुम्हे मानूँ।

जग की तुम संताप हर लो,
वेदना जन-जन की ले लो,
आशाओं की नव रश्मि दो,
प्रतिविम्ब को विम्बित कर दो,
मौन को स्वर साधना दे दो,
ब्रहमांड में तुम हुंकार भर दो,
पीड़ा जग की हरो तभी तुम्हे मानूँ।

तुम अगम तुम अगोचर,
विराट तुम पर अन्तर्धान,
मैं तुच्छ तुझे कैसे पहचानूँ,
दृष्टि है पर तू नही दृष्टिगोचर,
महादृष्टि दो तुझे देख पाऊँ,
तुम हृदय बसो तभी तुम्हे मानूँ।
जग के संताप हरो तभी तुम्हे सम्मानूँ।

शायद तू रहती होगी वहाँ

चाँद की ओट के पीछे,
सितारों की हद से भी दूर,
गम की सरहदों के पार,
ख्वाबों में कहीं इक दुनियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।

पर्वतों के सायों के पीछे,
मन की कल्पनाओं से भी दूर,
ख्यालों की सरहदों के पार,
हसीन सी कहीं है वादियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।

हसरतों की सदाओं के पीछे,
रंजो-गम की पहुँच से भी दूर,
अवसाद-विसाद की सरहदों के पार,
मुखरित होती सुंदर सी कलियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।

Saturday 2 January 2016

मिलना-बिछड़ना! दोनो इक जैसे दिखते

मिलने का सुख,
बिछड़ने का दु:ख,
जैसे, सुबह की लालिमा,
संध्या वेला की लालिमा,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!

फर्क बहुत थोड़ा इनमे,
मिलन में है माधूर्य,
सुबह की लालिमा की
मधुर ठंढ़क सी,
बिछड़ने की गर्म पीड़ा,
संध्या की लाली में
घुली उमस सी।
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!

कुछ क्षण पश्चात्,
शान्त दोनों हो जाते,
न मिलन का सुख,
न विरह का दुःख,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!

भँवड़े मिलते फूलों से,
माधूर्य पी जाते फूलों का,
रस लेकर उड़ जाते हैं,
पर खिल उठता 
फूलों का मन,
बिछड़ने की पीड़ा,
घुल जाती मिलन के,
खुशी भरे एहसास मे,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!