Sunday 7 February 2016

जीवन की पोथी

लिखते है हर दिन हम एक-एक पन्ना जिंदगी का,
कुछ न कुछ हर रोज,  एक नई कलम हाथों में ले,
अपने कर्मों की गाथा से, भरते हैं जीवन की पोथी,
ये पन्ने इबारत जीवन की, कुछ खट्टी कुछ मीठी।

ये पन्ने सामान्य नही हैं,जीवन की परछाई है ये तेरी,
थोड़ा बहुत ही सही, झलक इसमे व्यक्तित्व की तेरी,
कर्मों का लेखा जोखा इसमे, भावुकता इसमें है तेरी,
ये पन्ने कल जब पढ़े जाएंगे, पहचान बनेगी ये तेरी। 

हश्र क्या होगा इन पन्नों का, रह रह सोचता प्राणी!
क्या इन पन्नों में छपेगी, मेरे सार्थकता की कहानी?
पोथी बनकर महाग्रन्थ, क्या चढ़ेगी जन की जुबानी!
पन्ने जीवन के तेरे, संभल कर चल तू राह अंजानी।

पन्ने जिन्दगी के

पन्ने पलटता गया मैं फिर से जिन्दगी के,
बिखरी पड़ी यादों को फिर चाहा समेटना,
कुछ पन्ने साफ सुथरे से, पर बिखरे मिले,
कुछ याद धुले हुए से वहीं पड़े मिले,
चंद फलसफे जिन्दगी के फिर से दोहराए गए,
जख्म जो भर चुके थे कभी, अब फिर से हरे हुए।

पन्ने जिन्दगी के मैं फिर भी पलटता गया,
हरे हुए जख्म की वजह मैं ढ़ूंढ़ता रहा,
नादानियों पें अपनों की हँसी सी आती रही,
बदजुबानियाँ कभी मन की शाख झुलाती रही,
अपनों जैसे दिख रहे दुश्मनों से भी बुरे लगे,
साफ मन को किया अब न किसी से कोई गिला।

पन्ने चंद और मैं यूँ ही पलटता गया,
कभी नाज खुद के किए पर हुआ,
तो कभी शर्मशार खुद ही जिन्दगी हुआ,
आईना जिन्दगी की पन्ने दिखलाती रही,
सच झूठ की असलियत मुझको बताती रही,
जख्म भर चुके थे सब, अब शांत मेरा चित्त हुआ।

अक्सर, पन्ने जिन्दगी के मैं पलटता युँ ही रहा!

तसव्वुर के सिलसिले

खो रहा आज मन तसव्वुर में आपके,
खुली जुल्फ सी घटा छा रही है सामने।

बूंद बूंद छलक रही अक्स सामने मेरे,
चल रही आँधियाँ दिल की शाख पे मेरे।

खोया रहूँ तसव्वुर में उम्र सारी आपके,
बढ़ती रहें खुमारियाँ हसरतों की सामनें।

धधक धधक जल रहे चराग ये बुझेे हुए,
जिन्दगी मे आप संग यही सिलसिले हुए।

स्मृति आभार

यादों की धुँधली रेखायें मन में,
चमकती बिजली सी काले घन में,
उर मानस आह्लादित कम्पन में,
जीवन डूब रहा धीमी स्पन्दन में।

संगीत लहरी सी शिशिर-निशा में,
स्मृति लय जीवन की हर दिशा में,
प्रात जीवन की चाहे फिर संध्या में,
अन्तहीन मधुस्मृति लय जीवन में।

मन अधीर विस्मृति के प्रांगण मे,
प्राण पुलकित क्षणों के स्पंदन में,
जीवन सौन्दर्य प्रतिपल हर क्षण में,
उन स्मृतियों का आभार जीवन में!

Saturday 6 February 2016

जीवन सांध्य प्रहर

उमर अवसान की ओर अग्रसर,
मद्धिम हो रहा उफनते ज्वार का आवेग,
आँखों पर छा रहा हल्का सा धुंधला धीरे धीरे,
अवसान की संध्या का मैं करता मनुहार।

जीवन शिला यह पिघल रहा अब,
भरोसा खुद की सामर्थ पर नही हो रहा अब,
अकड़ मासपेशियाँ की ढ़ीली पड़ रही धीरे-धीरे,
फूट जाए कब कांच का घट करता विचार।

अधूरी छूट जाए न कोई कहानी,
टूट जाए न इरादों वादों की कोई जुवानी,
यह घुटन यह यातना हर पल सहता मैं धीरे-धीरे,
सांध्य प्रहरी की नक्षत्र का मै करता मनुहार। 

एे मेरे हमनवाँ

सजती रहेंगी दिल की महफिलें तुमसे ही हमनवाँ!

फलक से उतर के तू आजा जमीं पर,
एे रख दे कदम तू दिल की जमीं पर,
बिखर जाएंगे राहों पे फूलों के बदन,
चाँदनी से निखर जाएगा सारा चमन।

सपनों की फलक सजती रहेंगी तुमसे ही हमनवाँ!

निगाहों में आपकी हैं सपनों का जहाँ,
उन सपनों को मैं सजाऊंगा अब यहाँ,
सँवर जाएगी किस्मत कुछ हमारी भी
फलक से तुझको लाऊंगा एे हमनवाँ।

तू उतर के आ जमीं पर एे मेरे हसीं हमनवाँ!

दहलीज में बिटिया

घुटन कैसी इस दहलीज के अन्दर,
चेहरे की सुन्दरता कुचल दी गई हो जैसे,
मासूमियत उसकी मसली गई है शायद,
नजर अंदाज कर दिए गए हैं गुण सारे।

जीवन भारी इस दहलीज के अन्दर,
जीने की आजादी छीन ली गई हो जैसे,
सुन्दरता उसके मन की बिखर गई है शायद,
जीवन अस्तित्व ही दाँव पे लगी हो सारी।

एक मानव रहता है उस बिटिया के अन्दर,
सोच विस्तृत उसके भी हर मानव के जैसे,
शक्ति उसमे भी कुछ हासिल कर लेने की शायद,
अस्तित्व उसकी फिर क्युँ वश मे तुम्हारे।

कल्पनाशीलता खोई दहलीज के अन्दर,
अंकुश लग गई हों विचारों पर बिटिया के जैसे,
अभिव्यक्ति की शक्ति कुम्हलाई है उसकी शायद,
बाँध दिए गए है नथ जैसे नथुने में सारे।

झांकने दो बिटिया को भी दहलीज के बाहर,
साँसे खुल के उसे भी लेने दो नर मानव जैसे,
अभिव्यक्त पूर्ण खुद को कर पाएगी वो तब शायद,
अस्तित्व स्वतंत्र बना निखरेगी जग मे सारे।