Friday 16 September 2016

अधलिखी

अधलिखी ही रह गई, वो कहानी इस जनम भी ....

सायों की तरह गुम हुए हैं शब्द सारे,
रिक्त हुए है शब्द कोष के फरफराते पन्ने भी,
भावप्रवणता खो गए हैं उन आत्मीय शब्दों के कही,
कहानी रह गई एक अधलिखी अनकही सी....

संग जीने की चाह मन में ही रही दबी,
चुनर प्यार का ओढ़ने को, है वो अब भी तरसती,
लिए जन्म कितने, बन न सका वो घरौंदा ही,
अधूरी चाह मन में लिए, वो मरेंगे इस जनम भी ....

जी रहे होकर विवश, वो शापित सा जीवन,
न जाने लेकर जन्म कितने, वो जिएंगे इस तरह ही,
क्या वादे अधूरे ही रहेंगे, अगले जनम भी?
अनकही सी वो कहानी, रह गई है अधलिखी सी....

विलख रहा हरपल यह सोचकर मन,
विधाता ने रची विधि की है यह विधान कैसी,
अधलिखी ही रही थी, वो उस जनम भी,
वो कहानी, अधलिखी ही रह गई इस जनम भी ....

Thursday 15 September 2016

अफसाना

लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना....

रुक गया था कुछ देर मैं, छाॅव देखकर कहीं,
छू गई मन को मेरे, कुछ हवा ऐसी चली,
सिहरन जगाती रही, अमलतास की वो कली,
बंद पलकें लिए, खोया रहा मैं यूॅ ही वही,
लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा तब वो अफसाना....

कुछ अधलिखा सा वो अफसाना,
दिल की गहराईयों से, उठ रहा बनकर धुआॅ सा,
लकीर सी खिंच गई है, जमीं से आसमां तक,
ख्वाबों संग यादों की धुंधली तस्वीर लेकर,
गाने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना.....

कह रहा मन मेरा बार-बार मुझसे यही,
उसी अमलतास के तले, आओ मिलें फिर वहीं,
पुकारती हैं तुझे अमलतास की कली कली,
रिक्त सी है जो कहानी, क्यूॅ रहे अनलिखी,
लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना....

Wednesday 14 September 2016

गुजरी राहें

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

वो राहें मुड़कर देखती हैं अब राहें मेरी,
जिन राहों से मैं गुजरा था बस दो चार घड़ी,
शायद करने लगी हैं वो राहें मुझसे प्यार,
सुन सकूंगा न मैं उन राहों की सदाएं,
पुकारो न मुझको बार-बार, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

इस कर्मपथ पर मेरी, गुजरेंगी राहें कई,
अपनत्व बाटूंगा उन्हे भी मैं, चंद पल ही सही,
अपने दिल के करने होंगे मुझे टुकड़े हजार,
कर न सकूंगा मैं उन राहों से भी प्यार,
हो सके तो भूल जाना मुझे, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

ए राहें, तू झंकृत न कर मेरे मन के तार,
तू दे न अब सदाएं, बुला न मुझको यूॅ बार-बार,
बाॅध न तू मुझे रिश्तों के इन कच्चे धागों से,
भीगेंगी आॅखें मेरी, तोड़ न पाऊंगा मैं ये बंधन,
बेवश न कर अब मुझको, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

Tuesday 13 September 2016

नए स्वर

क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....

वो दूर घाटी, जहाॅ कभी बहती थी इक नदी,
वो नदी की तलहटी, जहाॅ भीगते थे पत्थर के तन भी,
वो गुमशुम सी वादी, जहाॅ कोलाहल थे कभी,
सन्नाटा सा अब पसरा है हर तरफ वहीं,
असंख्य सूखे पत्थर के बीच सूखा है वो घाटी भी।

क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....

घास के फूल उग आए हैं अब धीरे से वहीं,
पत्थर के तन पर निखरी है अनदेखी कोई कारीगरी,
प्रकृति ने बिछाई है मखमली सी चादर अपनी,
गूंजी है कूक कोयल की, हॅस रही हरियाली,
फूटे हैं आशा के स्वर, गाने लगी अब वो घाटी भी।

क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....

Sunday 11 September 2016

शहतूत के तले

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले.....

अचानक ऑंखें बंद रखने को कहकर,
चुपके से तुमनें रख डाले थे इन हाथों पर,
शहतूत के चंद हरे-लाल-काले से फल,
कुछ खट्टे, कुछ मीठे, कुछ कच्चे से,
इक पल हुआ महसूस मानो, जैसे वो शहतूत न हों,
खट्टी-मीठी यादों को तुमने समेटकर,
सुुुुसुप्त हृदय को जगाने की कोशिश की हो तुमने।

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले....

शहतूत के तले ही तुम मिले थे पहली बार,
मीठे शहतूत खाकर ही धड़के थे इस हृदय के तार,
वो कच्ची खट्टी शहतूत जो पसन्द थी तुम्हें बेहद,
वो डाली जिसपर झूल जाती थी तुम,
शहतूत की वो छाया जहाॅ घंटों बातें करती थी तुम,
वही दहकती यादें हथेली पर रखकर,
सुलगते हृदय की ज्वाला और सुलगा दी थी तुमने।

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले....

Friday 9 September 2016

चंचल बूॅदें

चंचल सी ये बूंदें,
सिमटी हैं अब घन बनकर,
नभ पर निखरी हैं ये,
अपनी चंचलता तजकर,
धरा पर बिछ जाने को,
हैं अब ये बूँदे आतुर,
उमर पड़े है अब घन,
चंचलता उन बूंदो से लेकर।

बह चली मंद सलिल,
पूरबैयों के झौंके बनकर,
किरण पड़ी है निस्तेज,
घन की जटाओं में घिरकर,
ढ़क चुके हैं भाल,
विशाल पर्वत के अभिमानी शिखर,
घनेरी सी घन की,
घनपाश भुजाओं में घिरकर।

बूँदे हो रहीं अब मुखर,
शनैः शनैः घन लगी गरजने,
धुलकर बिखरे हैं नभ के काजल,
बारिश की बूंदों में ढ़लकर,
बिखरी हैं बूँदे, धरा पर अब टूटकर,
कण-कण ने किया है श्रृंगार,
चंचल बूंदों की संगत पाकर।

Thursday 8 September 2016

विराम

यह पूर्णविराम डाला है किसने अधूरे से लेख पर?
रह गई न! अब सब बातें अनकही!
किताबों के पन्नों पर, अपूर्ण लेख में सिमटकर।

पर क्या करूँ मैं, अब उस आवेग का?
उठ रहें हैं झौकों जैसे, जो विचारों में रह रहकर,
अब तो तय है कि ये बनेंगे विस्फोटक,
जब जल उठेंगी ये बारूद सी, चिंगारी में जलकर।

आवेग के ये झौंके, हैं ये सुनामी जैसे,
रुक सकता यह लेख नहीं, इस पूर्णविराम पर,
शक्ल ये ले लेंगी, मेरी कविताओं की,
हर कदम बढ़ती रहेगी, यह अल्पविराम ले-लेकर।

वो अनकही, अब बनेंगी मेरी क्षणिकाएँ,
अपूर्ण लेख मेरे, बोल पड़ेंगी पूर्णविराम तोड़कर,
इस अशांत मन को तब, कहीं मिलेगा सुकून,
दुखों के पलों मे ये बढ़ेगी, सुख के चंद सुकून लेकर।