Friday 21 April 2017

बेचैन खग

तट के तीरे खग ये प्यासा,
प्रीत की नीर का जरा सा,
नीर प्रीत का तो मिलता दोनो तट ही!
कलकल सा वो बहता, इस तट भी! उस तट भी!
पर उभरती कैसी ये प्यास,
सिमटती हर क्षण ये आश,
यह कैसी है विडम्बना?
या शायद है यह इक अमिट पिपास....?
या है अचेतन मन के चेतना की इक अधूरी यात्रा,
या भीगे तन की अंतस्थ प्यास की इक अधूरी ख्वाहिश!

उस डाली खग ढूंढे बसेरा,
चैन जहाँ पर हो जरा सा,
छाँव प्रीत का तो मिलता हर डाली पर!
रैन बसेरा तो रमता, इस डाली भी! उस डाली भी!
पर किस आशियाँ की है तलाश,
क्युँ उस खग का मन है उदास,
कैसा है यह अनुराग?
या शायद है यह अन्तहीन सी तलाश....?
या है एकाकीपन से कारवाँ बनने तक की अधूरी यात्रा,
या एकांत मन को यूँ बहलाने की इक अधूरी कोशिश!

Wednesday 19 April 2017

हमेशा की तरह

हकीकत है ये कोई या है ये दिवास्वप्न, हमेशा की तरह!

हमेशा की तरह, है किसी दिवास्वप्न सा उभरता,
ख्यालों मे फिर वही, नूर सा इक रुमानी चेहरा,
कुछ रंग हल्का, कुछ वो नूर गहरा-गहरा.......
हमेशा की तरह, फिर दिखते कुछ ख्वाब सुनहरे,
कुछ बनते बिगरते, कुछ टूट के बिखरे,
सपने हों ये जैसे, किसी हकीकत से परे......

हमेशा की तरह,किसी झील में जैसे पानी हो ठहरा,
मन की झील में, चुपके से कोई हो आ उतरा,
वो मासूम सी, पर छुपाए राज कोई गहरा.....
हमेशा की तरह, खामोशियों के ये पहरे,
रुमानियत हों ये जैसे, किसी हकीकत से परे.......

हमेशा की तरह, दामन छुड़ा दूर जाता कोई साया,
जैसे है वो, मेरे ही टूटे हृदय का कोई टुकड़ा,
फिर पलट कर वापस, क्युँ देखती वो आँखें.....
हमेशा की तरह, अपनत्व क्युँ ये बढाते,
अंजान से है ये रिश्ते, किसी हकीकत से परे.......

हकीकत है ये कोई या है ये दिवास्वप्न, हमेशा की तरह!

Monday 17 April 2017

वक्त के सिमटते दायरे

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

अंजान सा ये मुसाफिर है कोई,
फिर भी ईशारों से अपनी ओर बुलाए रे,
अजीब सा आकर्षण है आँखो में उसकी,
बहके से मेरे कदम उस ओर खीचा जाए रे,
भींचकर सबको बाहों में अपनी,
रंगीन सी बड़ी दिलकश सपने ये दिखाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

छीनकर मुझसे मेरा ही बचपन,
मेरी मासूमियत दूर मुझसे लिए जाए रे,
अनमने से लड़कपन के वो बेपरवाह पल,
मेरे दामन से पल पल निगलता जाए रे,
वो लड़कपन की मीठी कहानी,
भूली बिसरी सी मेरी दास्तान बनती जाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

टूटा है अल्हर यौवन का ये दर्पण,
वक्त की विसात पर ये उम्र ढली जाए रे,
ये रक्त की बहती नदी नसों में ही सूखने लगी,
काया ये कांतिहीन पल पल हुई जाए रे,
उम्र ये बीती वक्त की आगोश में ,
इनके ये बढते कदम कोई तो रोके हाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

Sunday 16 April 2017

गूंजे है क्युँ शहनाई

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

अभ्र पर जब भी कहीं, बजती है कोई शहनाई,
सैकड़ों यादों के सैकत, ले आती है मेरी ये तन्हाई,
खनक उठते हैं टूटे से ये, जर्जर तार हृदय के,
चंद बूंदे मोतियों के,आ छलक पड़ते हैं इन नैनों में...

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

ऐ अभ्र की वादियाँ, न शहनाईयों से तू यूँ रिझा,
तन्हाईयों में ही कैद रख, यूँ न सोए से अरमाँ जगा,
गा न पाएंगे गीत कोई, टूटी सी वीणा हृदय के,
अश्रु की अविरल धार कोई, बहने लगे ना नैनों से....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

निहारते ये नैन अपलक, न जाने किस दिशा में,
असंख्य सैकत यादों के, अब उड़ रही है हर दिशा में,
खलबली सी है मची, एकांत सी इस निशा में,
अनियंत्रित सा है हृदय, छलके से है नीर फिर नैनों में....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

क्षितिज की ओर

भीगी सी भोर की अलसाई सी किरण,
पुरवैयों की पंख पर ओस में नहाई सी किरण,
चेहरे को छूकर दिलाती है इक एहसास,
उठ यार! अब आँखे खोल, जिन्दगी फिर है तेरे साथ!

ये तृष्णगी कैसी, फिर है मन के आंगन,
ढूंढती है किसे ये आँखे, क्युँ खाली है ये दामन,
अब न जाने क्युँ अचेतन से है एहसास,
चेतना है सोई, बोझिल सी इन साँसों का है बस साथ!

ये किस धुंध में गुम हुआ मन का गगन,
फलक के विपुल विस्तार की ये कैसी है संकुचन,
न तो क्षितिज को है रौशनी का एहसास,
न ही मन के धुंधले गगन पर, उड़ने को है कोई साथ!

पर भीगती है हर रोज सुबह की ये दुल्हन,
झटक कर बालों को जगाती है नई सी सिहरन,
मन को दिलाती है नई सुखद एहसास,
कहती है बार बार! तु चल क्षितिज पर मैं हूँ तेरे साथ!

Saturday 15 April 2017

भरम वहम

इक भरम सा हुआ मन को,
चोरी चोरी चुपके किन्ही बातों से जरा डर गए वो,
वहम है ये मेरा या हकीकत है कोई वो!

शीतल सी कोई पवन है वो,
या चिंगारी सी जलती हुई दहकती अगन है वो,
लग रहा जैसे मेरा ही भरम है वो,
शायद थोड़ी डरी सहमी सी वहम है वो!

अब तो हर पल मन मे है वो,
चाहता है ये मन खूबसूरत सा वो वहम हर पल हो,
डरता है ये मन के भरम टूटे न वो,
बड़ी शिद्दत से पाला है दिल मे भरम को!

चुपके ही सही कुछ तो कहो,
न जाने ये पल, ये वहम, या कहीं हम कल हो न हो,
दास्ताँ कोई अनकही बन जाने तो दो,
बेसबर सा है ये मन ख्वाबों में आने तो दो।

इक भरम सा हुआ मन को,
चोरी चोरी चुपके किन्ही बातों से जरा डर गए वो,
वहम है ये मेरा या हकीकत है कोई वो!

Friday 14 April 2017

कुछ कदम और

साँस टूटने से पहले कुछ कदम मैं और चल लूँ,
मंजिलों के निशान बुन लूँ,
कांटे भरे हैं ये राह सारे,
कंटक उन रास्तों के मैं चुन लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

आवाज मंजिलों को लगा लूँ,
मूक वाणी मैं जरा मुखर कर लूँ,
साए अंधेरों के हैं उधर,
मशालें उजालों के मैं जला लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

ज्ञान की मूरत बिठा लूँ,
अज्ञानता के तिमिर अंधेरे मिटा लूँ,
बेरी पड़े हैं विवेक पे,
मन मानस को मैं जरा जगा लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

दर्द गैरों के जरा समेट लूँ,
विषाद हृदय के मैं जरा मिटा लूँ,
अब कहाँ धड़कते हैं हृदय,
हृदय को धड़कना मैं सीखा लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

प्रगति पथ प्रशस्त कर लूँ,
मुख बाधाओं के मैं निरस्त कर लूँ,
चक्रव्युह के ये हैं घेरे,
व्युह भेदन के गुण सीख लूँ,
बस कुछेक कदम और चल लूँ......

साँस टूटने से पहले बस कुछ कदम मैं और चल लूँ।

Thursday 13 April 2017

क्युँ हुई ये सांझ!

आज फिर क्युँ हुई है, ये शाम बोझिल सी दुखदाई?

शांत सी बहती वो नदी, सुनसान सा वो किनारा,
कहती है ये आ के मिल, किनारों ने है तुझको पुकारा,
बहती सी ये पवन, जैसे छूती हो आँचल तुम्हारा,
न जाने किस तरफ है,  इस सांझ का ईशारा?

ईशारों से पुकारती ये शाम, है बोझिल बड़ी दुखदाई?

चुप सी है क्युँ, कलरव सी करती वो पंछियाँ,
सांझ ढले डाल पर, जो नित करती थी अठखेलियाँ,
निष्प्राण सी किधर, उड़ रही वो तितलियाँ,
निस्तेज क्युँ हुई है, इस सांझ की वो शोखियाँ?

चुपचुप गुमसुम सी ये शाम, है बोझिल बड़ी दुखदाई?

हैं ये क्षण मिलन के, पर विरहा ये कैसी आई,
सिमटे हैं यादों में वो ही, फैली है दूर तक तन्हाई,
निःशब्द सी खामोशी हर तरफ है कैसी छाई,
निष्काम सी क्युँ हुई है, इस सांझ की ये रानाई?

खामोशियों में ढली ये शाम, है बोझिल बड़ी दुखदाई?