Saturday 23 September 2017

सैकत

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

कोमल थे कितने, जीवन्त से वो पल,
ज्यूँ अभ्र पर बिखरते हुए ये रेशमी बादल,
झील में खिलते हुए ये सुंदर कमल,
डाली पे झूलते हुए ये नव दल,
मगर, अब ये सारे न जाने क्यूँ इतने गए हैं बदल?

उड़ते है हर तरफ ये बन के यादों के सैकत!
ज्यूँ वो पल, यहीं कहीं रहा हो ढल!
मुरझाते हों जैसे झील में कमल,
सूखते हो डाल पे वो कोमल से दल,
हृदय कह रहा धड़क, चल आ तू कहीं और चल!

उड़ रही हर दिशा में, रंगीन से असंख्य सैकत,
बिंधते हृदय को, यादों के ये तीक्ष्ण सैकत,
नैनों में आ धँसे, कुछ हठीले से ये सैकत,
अभ्र पर छा चुके है नुकीले से ये सैकत,
जाऊँ किधर! ऐ दिल आता नही  कुछ भी नजर?

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

Wednesday 20 September 2017

प्रीत

मूक प्रीत की स्पष्ट हो रही है वाणी अब....

अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में,
अंकित सदियों से मन के आईने में,
गुम हो चुकी थी वाणी जिसकी,
आज अचानक फिर से लगी बोलनें।

मुखर हुई वाणी उस बिंब की,
स्पष्ट हो रही अब आकृति उसकी,
घटा मोह की फिर से घिर आई,
मन की वृक्ष पर लिपटी अमरलता सी।

प्रतिबिम्ब मोहिनी मनमोहक वो,
अमरलता सी फैली इस मन पर जो,
सदियों से मन में थी चुप सी वो,
मुखरित हो रही अब मूक सी वाणी वो।

आभा उसकी आज भी वैसी ही,
लटें घनी हो चली उस अमरलता की,
चेहरे पर शिकन बेकरारियाें की,
विस्मित जेहन में ये कैसी हलचल सी।

मोह के बंधन में मैं घिर रहा अब,
पीड़ा शिकन की महसूस हो रही अब,
घन बेकरारी की सावन के अब,
मुखरित हो रही प्रीत की परछाई अब।

Tuesday 19 September 2017

निशिगंधा

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

निस्तब्ध हो चली निशा, खामोश हुई दिशाएँ,
अब सुनसान हो चली सब भरमाती राहें,
बागों के भँवरे भी भरते नहीं अब आहें,
महक उठी है,फिर क्युँ ये निशिगंधा?
प्रतीक्षा किसकी सजधज कर करती वो वहाँ?
मन कहता है जाकर देखूँ, महकी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

है कोई चाँद खिला, या है वो कोई रजनीचर?
या चातक है वो, या और कोई है सहचर!
क्युँ निस्तब्ध निशा में खुश्बू बन रही वो बिखर!
शायद ये हैं उसकी निमंत्रण के आस्वर!
क्या प्रतीक्षा के ये पल अब हो चले हैं दुष्कर?
मन कहता है जाकर देखूँ, बिखरी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

यूँ हर रोज बिखरती है टूटकर वो निशिगंधा?
जैसे कोई विरहन, महकती गीत विरह की हो गाती!
आशा के दीप प्राणों में खुश्बू संग जलाती,
सुबासित नित करती हो राहें उस निष्ठुर साजन की,
प्रतीक्षा में खुद को रोज ही वो सजाती....
मन कहता है जाकर देखूँ, सँवरी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

Friday 15 September 2017

छाए हैं दृग पर


छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण!

वो मिल रहा पयोधर,
आकुल हो पयोनिधि से क्षितिज पर,
रमणीक क्षणप्रभा आ उभरी है इक लकीर बन।

छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण!

वो झुक रहा वारिधर,
युँ आकुल हो प्रेमवश नीरनिधि पर,
ज्युँ चूम रहा जलधर को प्रेमरत व्याकुल महीधर।

छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण!

अति रम्य यह छटा,
बिखरे हैं मन की अम्बक पर,
खिल उठे हैं सरोवर में नैनों के असंख्य मनोहर।

छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण!

Wednesday 13 September 2017

दूभर जीवन

उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर?
चातुर नजरों से देखती इधर-उधर,
मन ही मन हो आतुर सोचती करती फिकर....

मीलों होगे आज फिर उड़ने,
अधूरे काम बहुत से पूरे होंगे करने,
आबो-दाना है कहाँ न जाने?
मिटेगी भूख न जाने किस दाने से?
चैन की नींद! रही अब आने से!

दूर डाल पे बैठी छोटी सी चिड़ियाँ सोंचती!

फिर घोंसले की करती फिकर!
न जाने किस डाल सुरक्षित रह पाऊँगी?
कोटरों में हैं बसते आस्तीन के साँप,
मैं तिनके कहाँ सजाऊँगी?
क्रूर बहेलियों की दुष्ट नजर से,
दूर कैसे रह पाऊँगी?

उस छोटी सी चिड़ियाँ को भविष्य का डर?

आनेवाली बारिश की फिकर!
आँधियों मे अपनों से बिछड़ने का डर!
डाली टूट गई थी पिछली बार,
उजड़ चुका था उसका छोटा सा संसार,
सपने हो चुके थे तितर बितर,
"अन्डे कैसे बचाऊँगी?" अब यही फिकर!

उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर?
चातुर नजरों से देखती इधर-उधर,
मन ही मन हो आतुर सोचती करती फिकर....

Thursday 7 September 2017

निशा प्रहर में

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

बुझती साँसों सी संकुचित निशा प्रहर में,
मिले थे भाग्य से, तुम उस भटकी सी दिशा प्रहर में,
संजोये थे अरमान कई, हमने उस प्रात प्रहर में,
बीत रही थी निशा, एकाकी मन प्रांगण में...

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

कहनी है बातें कई तुमसे अपने मन की!
संकुचित निशा प्रहर अब रोक रही राहें मन की!
चंद घड़ी ही छूटीं थी फुलझरियाँ इस मन की!
सीमित रजनी कंपन ही थी क्या मेरे भाग्यांकण में?

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

मेरी अधरों से सुन लेना तुम निशा वाणी!
ये अधर पुट मेरे, शायद कह पाएँ कोई प्रणय कहानी!
कुछ संकोच भरे पल कुछ संकुचित हलचल!
ये पल! मुमकिन भी क्या मेरे इस लघु जीवन में?

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

शिथिल हो रहीं सांसें इस निशा प्रहर में,
कांत हो रहा मन देख तारों को नभ की बाँहों में,
निशा रजनी डूब रही चांदनी की मदिरा में,
प्रिय! मैं भूला-भुला सा हूँ तेरी यादों की गलियों में!

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

Sunday 3 September 2017

नवव्याहिता

रिवाजों में घिरी, नव व्याहिता की बेसब्र सी वो घड़ी!
उत्सुकता भड़ी, चहलकदमी करती बेसब्र सी वो परी!

नव ड्योड़ी पर, उत्सुक सा वो हृदय!
मानो ढूंढ़ती हो आँखें, जीवन का कोई आशय!
प्रश्न कई अनुत्तरित, मन में कितने ही संशय!
थोड़ी सी घबड़ाहट, थोड़ा सा भय!

दुविधा भड़ी, नजरों से कुछ टटोलती बेसब्र सी वो परी!

कैसी है ये दीवारें, है कैसा यह निलय?
कैसे जीत पाऊँगी, यहाँ इन अंजानों के हृदय?
अंजानी सी ये नगरी, जहाँ पाना है प्रश्रय!
क्या बींध पाऊँगी, मैं साजन का हिय?

दहलीज खड़ी,  मन ही मन सोचती बेसब्र सी वो परी!

छूटे स्नेह के बंधन, हुए हम पत्थर हृदय?
इतर बाबुल के घर, अब अन्यत्र मेरा है आलय!
ये किस बस्ती में मुझको ले आया है समय!
अंजाने चेहरों से क्युँ लगता है भय!

रिवाजों में घिरी, नव व्याहिता की बेसब्र सी वो घड़ी!
उत्सुकता भड़ी, चहलकदमी करती बेसब्र सी वो परी!

Saturday 2 September 2017

झील

झील का अपना ही मन, जो आकर मिलती है मेरे मन से....

कहते हैं कि झील का कोई समुंदर नही होता!
मैं कहता हूँ कि झील सा सुन्दर कोई समुन्दर नही होता!

अपनी ही स्थिरता, विराम, ठहराव है उस झील का,
आभा अद्भुद, छटा निराली, चारो तरफ हरियाली,
प्रकृति की प्रतिबिम्ब को खुद में लपेटे हुए,
अपने आप में पूरी पूर्णता समेटे हुए झील का किनारा।

प्यार है मुझको उस ठहरे हुए झील से,
रमणीक लगती मन को सुन्दरता तन की उसके।

कमल कितने ही जीवन के खिलते हैं इसकी जल में,
शान्त लगती ये जितनी उतनी ही प्रखर तेज उसके,
मौन आहट में उसकी स्वर छुपते हैं जीवन के,
बात अपने मन की कहने को ये आतुर नही समुन्दर से।

झील का अपना ही मन, जो आकर मिलती है मेरे मन से।

Thursday 31 August 2017

स्वमुल्यांकण


सब कुछ तो है यहाँ, मेरा नहीं कुछ भी मगर!

ऊँगलियों को भींचकर आए थे हम जमीं पर,
बंद थी हथेलियों में कई चाहतें मगर!
घुटन भरे इस माहौल में ऊँगलियां खुलती गईं,
मरती गईं चाहतें, कुंठाएं जन्म लेती रहीं!

यहाँ पलते रहे हम इक बिखरते समाज में?
कुलीन संस्कारों के घोर अभाव में,
मद, लोभ, काम, द्वेष, तृष्णा के फैलाव में,
मुल्य खोते रहे हम, स्वमुल्यांकण के अभाव में!

जाना है वापस हमें ऊँगलियों को खोलकर,
संस्कारों की बस इक छाप छोड़कर,
ये हथेलियाँ मेरी बस यूँ खुली रह जाएंगी,
कहता हूँ मैं मेरा जिसे, वो भी न साथ जाएगी!

Monday 28 August 2017

मैं और मेरे दरमियाँ

ऐ जिन्दगी, इक तू ही तो है बस, मैं और मेरे दरमियाँ!

खो सा गया हूँ मुझसे मैं, न जाने कहां!
ढूंढता हूँ खुद को मैं, इस भीड़ में न जाने कहां?
इक तू ही है बस और कुछ नहीं मेरा यहाँ!
अब तू ही है बस मैं और मेरे दरमियाँ!

ये रात है और कुछ कह रही खामोशियाँ!
बदले से ये हालात हैं, कुछ बिखर रही तन्हाईयाँ!
संग तेरे ख्यालों के, खोया हुआ हूँ मैं यहाँ!
अब तू ही है बस मैं और मेरे दरमियाँ!

सिमटते हुए ये दायरे, शाम का ये धुआँ!
कह रही ये जिन्दगी, तू ले चल मुझको भी वहाँ!
मुझसे मुझको छीनकर तुम चल दिए कहां!
अब तू ही है बस मैं और मेरे दरमियाँ!

रंगों से है भर चुकी फूलों भरी ये वादियाँ!
कोई गीत गुनगुना रही है पर्वतों की ये घाटियां!
खो सा गया हूँ मुझसे मैं यहीं न जाने कहाँ!
अब तू ही है बस मैं और मेरे दरमियाँ!

ऐ मेरी जिन्दगी, मुझको भी तू ले चल वहाँ!
जी लूँ बस घड़ी दो घड़ी, मैं भी सुकून के जहाँ!
पल दो पल मिल सकूँ मै भी मुझसे जहाँ!
ऐ जिन्दगी, इक तू ही तो है बस, मैं और मेरे दरमियाँ!