Sunday, 3 April 2016

हाँ, जिन्दगी लम्हा-लम्हा

हाँ, बस यूँ गुजरती गई ये जिन्दगी,
कभी लम्हा-लम्हा हर कतरा तृष्णगी,
कभी साँसों के हर तार में है रवानगी,
बस बूँद-बूँद यूँ पीता रहा मैं ये जिन्दगी।

हाँ, कभी ये डूबी छलकती जाम में,
विहँसते चेहरो के संग हसीन शाम में,
रेशमी जुल्फों के तले नर्म घने छाँव में,
अपने प्रियजन के संग प्रीत की गाँव में।

हाँ, रुलाती रही उस-पल कभी वो,
याद आए बिछड़े थे हमसे कभी जो,
सिखाया था जिसने जीना जिन्दगी को,
कैसे भुला दें हम दिल से किसी को?

हाँ, पिघलते रहे बर्फ की सिल्लियों से,
उड़ते रहे धूल जैसे हवाओं के झौंकों से,
तपते रहे खुली धूप में गर्म शिलाओं से,
गुजरती रही है ये जिन्दगी हर दौर से।

हाँ, बदले हैं कई रंग हरपल जिन्दगी नें,
कभी सूखी ये अमलतास सी पतझड़ों में,
खिल उठे बार-बार गुलमोहर की फूलो में,
उभरी है जिन्दगी समय के कालचक्र से।

400 वीं कविता....सधन्यवाद "जीवन कलश" की ओर से...

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