मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं!
थी कितनी हरजाई!
बीती, जब जीवन की अमराई,
मंद पड़ी, जब जीवन की जुन्हाई,
पास कहीं ना, वो दिखती थी,
शायद, वो थी अब घबराई!
मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं!
थी कितनी हरजाई!
शायद वो थी, बस इक हरजाई!
कदमों की लय पर, वो चलती थी,
धूप ढ़ले, बस वो भी ढ़लती थी,
इन, बाहों में, कब आई?
मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं!
थी कितनी हरजाई!
ता-उम्र, साथ रही मेरी परछाईं,
थी फिर भी, मेरे हिस्से ही तन्हाई,
गुमसुम, बस चुप वो रहती थी,
पीड़ मेरी, वो पढ़ ना पाई!
मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं!
थी कितनी हरजाई!
मुझ बिन, कैसे झेलेगी तन्हाई?
कौन कहेगा, चल ऐ मेरी परछाई,
पीड़ वही, अब वो भी झेलेगी,
कल तक, थी जो इतराई!
मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं!
थी कितनी हरजाई!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहूत ही बढ़िया बधाई। हो
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय ज्योति जी।
Deleteसुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteरंगों के महापर्व
होली की बधाई हो।
सादर आभार आदरणीय ।
Deleteहोली की आपको भी शुभकामनायें व सादर नमन।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (11-03-2020) को "होलक का शुभ दान" (चर्चा अंक 3637) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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रंगों के महापर्व होलिकोत्सव की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार आदरणीय
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