परत दर परत सिमटती ही चली गई समय,
गलीचे वक्त की लम्हों के खुलते चले गए,
कब दिन हुई, कब ढ़ली, कब रात के रार सुने,
इक जैसा ही तो दिखता है सबकुछ अब भी ,
पर न अब वो दिन रहा, ना ही अब वो रात ढ़ले।
रेत की मानिंद उड़ता ही रहा समय का बवंडर,
लम्हों के सैकत उड़ते रहे धुआँ धुआँ बनकर,
अपने छूटे, जग से रूठे, संबंध कई जुड़ते टूटते रहे,
कभी कील बनकर चुभते रहे एहसासों के नस्तर,
धूँध सी छाई हर तरफ जिस तरफ ये नजर चले।
समय का दरिया खामोश सा बह रहा निरंतर ,
कितनी ही संभावनाओं का हरपल गला रेतकर,
कितनी ही आशाओं का क्षण क्षण दम घोंटकर,
पर नई आशाएँ संभावनाओं को नित जन्म देकर,
बह चले हैं हम भी अब जिस तरफ ये समय चले।
गलीचे वक्त की लम्हों के खुलते चले गए,
कब दिन हुई, कब ढ़ली, कब रात के रार सुने,
इक जैसा ही तो दिखता है सबकुछ अब भी ,
पर न अब वो दिन रहा, ना ही अब वो रात ढ़ले।
रेत की मानिंद उड़ता ही रहा समय का बवंडर,
लम्हों के सैकत उड़ते रहे धुआँ धुआँ बनकर,
अपने छूटे, जग से रूठे, संबंध कई जुड़ते टूटते रहे,
कभी कील बनकर चुभते रहे एहसासों के नस्तर,
धूँध सी छाई हर तरफ जिस तरफ ये नजर चले।
समय का दरिया खामोश सा बह रहा निरंतर ,
कितनी ही संभावनाओं का हरपल गला रेतकर,
कितनी ही आशाओं का क्षण क्षण दम घोंटकर,
पर नई आशाएँ संभावनाओं को नित जन्म देकर,
बह चले हैं हम भी अब जिस तरफ ये समय चले।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 27 मई 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआदरणीय.., हृदयतल से आभार
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteआदरणीय.., हृदयतल से आभार
Deleteबहुत ही भाव पूर्ण रचना आदरणीय पुरुषोत्तम जी। बदलते समय के अटल सत्य को आपसे बेहतर कौन लिख सकता है? मन मुग्ध कवि का अद्भुत जीवन दर्शन। हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!!
ReplyDeleteआदरणीय.., हृदयतल से आभार
Deleteकभी कील बनकर चुभते रहे एहसासों के नस्तर,
ReplyDeleteऐसे यादों के ग़लीचे निश्चित ही वेदना दे जाते हैं। इन्हें समेट कर एक किनारे ही रखा जाए।
प्रणाम।
आदरणीय.., हृदयतल से आभार
Deleteबहुत खूब ...सादर नमस्कार
ReplyDeleteसमय का दरिया खामोश सा बह रहा निरंतर ,
ReplyDeleteकितनी ही संभावनाओं का हरपल गला रेतकर,
कितनी ही आशाओं का क्षण क्षण दम घोंटकर,
पर नई आशाएँ संभावनाओं को नित जन्म देकर,
बह चले हैं हम भी अब जिस तरफ ये समय चले।...बेहतरीन सृजन आदरणीय
प्रणाम
सादर
आदरणीय.., हृदयतल से आभार
Deleteसमय का दरिया खामोश सा बह रहा निरंतर ,
ReplyDeleteकितनी ही संभावनाओं का हरपल गला रेतकर,
कितनी ही आशाओं का क्षण क्षण दम घोंटकर,
पर नई आशाएँ संभावनाओं को नित जन्म देकर,
बह चले हैं हम भी अब जिस तरफ ये समय चले।
समय के साथ चलने में ही समझदारी है....
बहुत ही लाजवाब
वाह!!!!
आदरणीय.., हृदयतल से आभार
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