Friday, 18 March 2016

परत दर परत समय

परत दर परत सिमटती ही चली गई समय,
गलीचे वक्त की लम्हों के खुलते चले गए,
कब दिन हुई, कब ढ़ली, कब रात के रार सुने,
इक जैसा ही तो दिखता है सबकुछ अब भी ,
पर न अब वो दिन रहा, ना ही अब वो रात ढ़ले।

रेत की मानिंद उड़ता ही रहा समय का बवंडर,
लम्हों के सैकत उड़ते रहे धुआँ धुआँ बनकर,
अपने छूटे, जग से रूठे, संबंध कई जुड़ते टूटते रहे,
कभी कील बनकर चुभते रहे एहसासों के नस्तर,
धूँध सी छाई हर तरफ जिस तरफ ये नजर चले।

समय का दरिया खामोश सा बह रहा निरंतर ,
कितनी ही संभावनाओं का हरपल गला रेतकर,
कितनी ही आशाओं का क्षण क्षण दम घोंटकर,
पर नई आशाएँ संभावनाओं को नित जन्म देकर,
बह चले हैं हम भी अब जिस तरफ ये समय चले।

13 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 27 मई 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत ही भाव पूर्ण रचना आदरणीय पुरुषोत्तम जी। बदलते समय के अटल सत्य को आपसे बेहतर कौन लिख सकता है? मन मुग्ध कवि का अद्भुत जीवन दर्शन। हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!!

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  3. कभी कील बनकर चुभते रहे एहसासों के नस्तर,
    ऐसे यादों के ग़लीचे निश्चित ही वेदना दे जाते हैं। इन्हें समेट कर एक किनारे ही रखा जाए।
    प्रणाम।

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  4. बहुत खूब ...सादर नमस्कार

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  5. समय का दरिया खामोश सा बह रहा निरंतर ,
    कितनी ही संभावनाओं का हरपल गला रेतकर,
    कितनी ही आशाओं का क्षण क्षण दम घोंटकर,
    पर नई आशाएँ संभावनाओं को नित जन्म देकर,
    बह चले हैं हम भी अब जिस तरफ ये समय चले।...बेहतरीन सृजन आदरणीय
    प्रणाम
    सादर

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  6. समय का दरिया खामोश सा बह रहा निरंतर ,
    कितनी ही संभावनाओं का हरपल गला रेतकर,
    कितनी ही आशाओं का क्षण क्षण दम घोंटकर,
    पर नई आशाएँ संभावनाओं को नित जन्म देकर,
    बह चले हैं हम भी अब जिस तरफ ये समय चले।
    समय के साथ चलने में ही समझदारी है....
    बहुत ही लाजवाब
    वाह!!!!

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