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Saturday, 18 July 2020

बंजारे ख्वाब

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

मन के फलक, धुंधलाए हैं, हल्के-हल्के,
दूर तलक, साए ना कल के,
सांध्य प्रहर, कहाँ किरणों का गुजर,
बिखरे हैं, टूट कर ख्वाब कई,
रख लूँ चुन के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

हम-उम्र कोई होता, तो ख्वाब पिरो लेता,
पर, ख्वाबों के ये उम्र नहीं,
संजोये ख्वाब कोई, वो हम-उम्र नहीं,
छलके हैं, रख लूूँ ख्वाब वही,
आँखों में भर के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

पर, ख्वाबों के वो तारे, हो चले हैं बंजारे,
थे कल तक, जो नैन किनारे,
छोड़ चले हैं वो, इस मझधार सहारे,
रहते है, जो अब भी साथ यहीं,
बेगाने से बन के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 18 March 2016

परत दर परत समय

परत दर परत सिमटती ही चली गई समय,
गलीचे वक्त की लम्हों के खुलते चले गए,
कब दिन हुई, कब ढ़ली, कब रात के रार सुने,
इक जैसा ही तो दिखता है सबकुछ अब भी ,
पर न अब वो दिन रहा, ना ही अब वो रात ढ़ले।

रेत की मानिंद उड़ता ही रहा समय का बवंडर,
लम्हों के सैकत उड़ते रहे धुआँ धुआँ बनकर,
अपने छूटे, जग से रूठे, संबंध कई जुड़ते टूटते रहे,
कभी कील बनकर चुभते रहे एहसासों के नस्तर,
धूँध सी छाई हर तरफ जिस तरफ ये नजर चले।

समय का दरिया खामोश सा बह रहा निरंतर ,
कितनी ही संभावनाओं का हरपल गला रेतकर,
कितनी ही आशाओं का क्षण क्षण दम घोंटकर,
पर नई आशाएँ संभावनाओं को नित जन्म देकर,
बह चले हैं हम भी अब जिस तरफ ये समय चले।