Monday, 28 December 2015

साथ मेरे तुम क्यूँ नही आए

कोलाहल मची है मन के अन्दर,
प्राणों के आवर्त मे भी लघु कंपन,
अपनी वाणी की कोमलता से,
कोलाहल क्युँ ना तुम हर जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्यूँ नही आए।

इक क्षण को तब मिटी थी पीड़ा,
साथ तुम्हारा मिला था क्षण भर,
कोलाहल तब मिटा था मन का,
तुमसंग जीवन जी गया मैं पल भर,
बोलो ! साथ मेरे तुम क्युँ नही आए।

अवसाद मिटाने तुम आ जाते,
जीवन संगीत सुनाने तुम आ जाते,
वीणा तार छेड़ने तुम आ जाते,
जीवन क्लेश मिटानें तुम आ जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्युँ नही आए।

सन्निकट अवसान

अवसान सन्निकट जीवन के,
छाए स्वत: हो रहे अब दीर्घ,
वेग-प्रवाह धीमे होते रक्त के,
सांसें स्वतः हो रहे अब प्रदीर्घ।

बीत रहा प्रहर निर्बाध अधीर,
अभिलाशाएँ हृदय की बहाती नीर,
सांझ जीवन की आती अकुलाई,
वश में कर सकै ऐसा कौन प्रवीर।

उत्थान-पतन और विहान-अवसान,
महाश्रृष्टि रचयिता के हैं दो प्रमाण,
जीर्ण होकर ही दे पाता ये नव जीवन,
कर्म अडिग कर, बना अपनी पहचान।

फिर दैदिप्य हुआ पूर्वांचल

फिर दैदिप्य हुआ पूर्वांचल,
प्रखर भास्कर ने पट हैं खोले,
लहराया गगण ने फिर आँचल,
दृष्टि मानस पटल तू खोल,
सृष्टि तू भी संग इसके होले।

कणक शिखर भी निखर रहे है,
हिमगिरि के स्वर प्रखर हुए हैं,
कलियों ने खोले हैं घूंघट,
भँवरे निकसे मादक सुरों संग,
छटा धरा का हुआ मनमोहक।

प्रखरता मे इसकी शीतलता,
रोम-रोम मे भर देती मादकता,
विहंगम दृष्टि फिर रवि ने फैलाया,
प्रकृति के कण-कण ने छेड़े गीत,
तज अहम् संग इनके तू भी तो रीत। 

Sunday, 27 December 2015

प्रीत भरा मन

प्रीत रीत की वो राहें,
जिन पर संग कभी चले थे हम,
ना छोड़ेंगे कभी ये दामन,
ये वादा तुम संग कर चले थे हम,
पर मन अब कितना अकेला है।

चखा था अमृत उन अधरों का,
इन अधरों ने फिर भी
अमिट प्यास अब भी हमारी है,
मन की आवर्तों मे अब भी,
मिलने की आस संभाली है,
देखो मन कितना अलबेला है।

नयन तकते अब भी राह तुम्हारी, 
वादों की करता रखवारी,
तेरी यादों के दामन मे बस जाऊँगा,
याद तुझे भी मैं आऊँगा,
साँसों के थमने तक, बस तुझको ही चाहुँगा,
ये मन भी कितनाअलबेला है।

पूछे जो कोई तुमसे

पूछे जो कोई तुमसे कौन हूँ मैं?
तुम कह देना,

एक बेगाना पागल दीवाना, 
जो अनकही बातें कई कह जाता है..!

एक धुंधला चेहरा,
 जो यादों में बस रह जाता है...!!

एक बेगाना अन्जाना,
जो जीवन दर्शन दे जाता है...!!

एक जाना पहचाना,
जो कभी-कभी बात पते की कह जाता है...!!

यूँ तो उसके होने, या फिर, 
ना होने से,
कुछ फर्क नही पड़ता जीवन पर..!!!

पूछे जो कोई तुमसे, तुम कह देना!!!!
पर क्या अपने दिल से 
तुम यही कह सकोगी??????
शायद नही........!!! कभी नही.......!!!

यादों के नीर

नैनों से जो छलक पड़े हैं,
विह्वल होकर जो सिसक पड़े है,
हैं तेरी यादों के वो नीर।

भावप्रवण जो फफक पड़े है,
अधरों पर जो बरस पड़े हैं
है तेरी यादों के वो जंजीर।

इन भावों से है गहराता सागर,
चखा है जिनको इन अधरों ने,
ये हैं तेरी प्यास के अधीर।

नीर नहीं ये, हैं नीरव अमृत,
पीता जाऊँ मैं इसको जीवनभर,
है जीवन तेरी आस का पीर।

चखा है अमृत अधरों ने पर,
अब भी बाकी प्यास हमारी,
नैनों से अविरल बह जाने को,
विह्वल नीर ने फिर कर ली तैयारी।

तुम मुझसे दूर कहीं

तुम मुझ से है दूर कहीं और सोच रहा हूँ मैं....

जैसे मौन बह रहा हो लहरों में,
और आ छलका हो मेरे प्यासे प्यालों में,
उन लहरों से दूर, कहीं मौजों में जीता हूं मैं,
मौन लहर की वो खामोशी पीता हूं मैं.....

तुम मुझ से है दूर कहीं और सोच रहा हूँ मैं....

प्यार इक कशिश

प्यार ! जो पूरा न हो, 
तू उन्हीं ख्वाइशों में से है एक!

प्यार! तू है इक कशिश,
कोशिशों के बावजूद भी 
जो रह जाती हो अधूरी ..! 
तू उन्हीं ख्वाइशों में से है एक....!!

गर कर सको तुम,
ले कोरे कागज़ को हाथो में,
दो अपने अक्शों का स्नेह स्पर्श,
तू उन्ही खलिशों में से है एक ...!!

हमने खुद में पिरोया है तुम्हे,
एक ताबीर की तरह ,.,
टूटे गर हम बिखर जाओगे तुम भी,
तू उन्ही तपिशों में से है एक ...!!

प्यार ! जो पूरा न हो, 
तू उन्हीं ख्वाइशों में से है एक!

चाह मेरी

चाह मेरी 
बरगद सा विशाल बनूँ,
दरख्तों सी हो
शख्सियत हमारी,
कंधे विशाल 
थामूँ युग का जुआ।

बरगद जैसी हो
असंख्य मजबूत बाहें,
शाखाएँ विशाल चहुँ दिशा में
लिए छाँव घने,
बने शख्सियत 
सागर पटल सी विस्तृत।

उम्र के इस पड़ाव पर,
चंचल मन अधीर सा 
खोता जाता,
 वक्त हाथों से बस रेत सा 
फिसलता जाता।

Saturday, 26 December 2015

उम्र के इस पड़ाव पर

मानव मन की चाह होती असीमित,
ईच्छाएँ पैदा लेती इनमें अपरिमित,
चाहता ये ब्रम्हांड की सीमा छू लेना,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता।

सोचता था बरगद सा विशाल बनूँगा,
दरख्तों सी होगी शख्सियत हमारी,
विशाल कंधों पर होगा युग का जुआ,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।

बरगद जिसकी है असंख्य मजबूत बाहें,
शाखाएँ फैली चहुँ दिशा में लिए छाँव घने,
शख्सियत सागर पटल सी लंबी उम्र लिए,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।

ढ़लते उम्र के इस पड़ाव पर सोचता,
चंचल पखेरू मन अधीर सा होता जाता,
हाथों से रेत सी फिसलती जाती वक्त,
और हासिल ना कुछ भी कर पाता।

ईश्वर ने दिया है बस ईक जीवन,
सांसें भी दी है बस गिनतियों की,
करनी थी आशाएँ सब पूरी इनमें,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।

चाहता हूँ समय ले फिर से करवट,
उलटी दिशा में फिर लौट चले ये,
कर सकुँ शुरुआत पुनः जीवन का,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।

समय बलवान महत्ता इसकी तू पहचान,
कर कुछ ऐसा, बरगद से भी हो तू महान,
शख्सियत में तेरे, जड़ जाएं चांद-सितारे,
सागर पटल भी आएँ, छूने चरण तुम्हारे।