Monday, 25 January 2016

छलके जो नीर

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!

छलके जो नैनों से नीर,
सखी तू समझे न मन की पीड़,
तार तार बिखरा है मन का,
नीर बन मुख पे जो आ छलका,
नेह बैरी की बड़ी बेपीड़।

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!

भाव हृदय की वो न जाने,
मस्त मगन अपनी ही धुन पहचाने,
बुत पत्थर सा दिल उसका,
धड़कन की भाषा न जाने,
पोछे कौन अब नयनन के नीर।

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!

बह बह नीर ताल बन जाए,
भाषा नैनों की कोई उसको समझाए,
सखी काम तू ही मेरा ये कर दे,
पीड़ मेरी उस बैड़ी को कह दे,
बन जाऊँ मै उसकी हीर।

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!

अन्तर्द्वन्द

दिल की धकधक और मन की फकफक,
अन्तःद्वन्द घनघोर दोनों में नित झकझक।

दिल केंन्द्र भावना विवेचना का,
महसूस कर लेता स्पंदन हृदय का,
विह्वल हो प्यार में धड़कता पागल सा,
एकाकीपन के पल बेचैन हो उठता,
धड़क उठता मंद आहटों से भी धकधक।

मन कहता, दिल तू मत हो विह्वल,
विवेचना भावनाओं की तू मत कर,
राह पकड़ नित नई लगन की,
उड़ान ऊँची धर, मत एकाकीपन की सोच,
आहटों की मत सुन, अपनी लय मे तू धड़क।

दिल कहता, मन तू तो है स्वार्थी,
बेचैन रहता है तू भी अपनी चाह के पीछे,
टूटता है तब तू भी जब कोई ना पूछे,
मंजिल तेरे राह की बहुत दूर अंजान,
तू कभी मेरी भी सुन ले मत कर फकफक।

दिल की धकधक और मन की फकफक,
अन्तःद्वन्द घनघोर दोनों में नित झकझक।

Sunday, 24 January 2016

वो प्रगति किस काम का?

वो प्रगति किस काम का?

मानवीय मुल्यों का ह्रास हो जब,
सभ्यता संस्कृति का विनाश हो जब,
आदरभाव अनादर से हो तिरस्कृत,
जहाँ सम्मान, अपमान से हो प्रताड़ित,
अमिट कर्म की सत्यनिष्ठा घट जाए,

वो प्रगति किस काम का?

विमुख मानव कर्मपथ से हो जाए,
नाशवान वक्त को धरोहर न बन पाए,
मिट पाए न अग्यान का तिमिर अंधकार,
द्वेश-कलेश, ऊँच-नीच मन से न निकले,
जन-मानस की जीवन आशा मिट जाए,

वो प्रगति किस काम का?

विनाश क्रिया का न हो मर्दन,
विलक्षण प्रतिभा का न हो संवर्धन,
सद्गुण सद्गति संन्मार्ग न निखरे,
जन जन मे विश्वास का मंत्र न बिखरे,
मानव प्रगति के नव आयाम न छू ले।

वो प्रगति किस काम का?

नैनों की पनघट

नैनों की तेरे पनघट पर,
मधु हाला प्यासा पथिक पा लेता,  
प्यास बुझाने जीवन भर की,
सुधि नैन पनघट की फिर फिर लेता।

नैनों की इस पनघट में,
पथिक देखता आलोक प्रखर सा,
दो घूँट हाला की पाने को,
सर्वस्व जीवन घट न्योछावर कर देता।

नैनों की इस पनघट तट पर,
व्यथित हृदय पीर पथिक का रमता,
विरह की चिर नीर बहाकर,
पनघट तट अश्रुमय जलमग्न कर जाता।

नैनों की इस मृदुहाला में,
कण कण पनघट का डूब जाता,
अनमिट प्यास पथिक की पर,
नैन पनघट ही परित्राण जीवन का पाता।

श्रृष्टि की मादकता

मादकता थोड़ी सी यौवन की,
उन्माद थोड़ा सा मधु मादकता का,
आज मन प्रांगण में भर आया,
संग श्रृष्टि की मादकता के,
आज मैं भी मद थोड़ा सा पी पाया।

मधुरस थोड़ी सी जीवन की,
शृंगार किरणों संग जीवन यौवन का,
उन्माद उर झरनों में भर लाया,
संग श्रृष्टि की सर-सरिता के,
आज झरनों की मादकता मैंने पाया।

बिखेरे हैं किसनें मधुरता के क्षण,
मधु मादकता पी उल्लासित जीवन,
किसने मादकता मलयानिल पर बिखराया,
संग श्रृष्टि की उमड़ी मस्ती के,
आज मादकता संग थोड़ा सा जी पाया।

Saturday, 23 January 2016

क्षणभंगुर जीवन की नाव

यह नाव, जीवन की क्षणभंगुर,
यात्री, जाना पर तुझको है दूर,
ठहरेगा तू, तट जीवन के, थोड़ी देर,
दामन छोड़ना, मत कभी धीरज का,
मंजिल, अपने नगर की, तू पाएगा जरूर।

क्षणिक नगरी में, तुझे मिलेगा,
अपने हृदय की, स्वप्निल छाया,
जड़ शुष्क, कभी खुद को पाएगा,
सीमित प्राचीरों में, कभी रक्षित होगा,
अंतिम मंजिल, अपने नगर की, फिर पाएगा।

आज यौवन, जीवन का तुझमें,
कुछ सुखदायक, सरस स्वप्न इसमें,
तू, अमर सुख भी जीवन का पाएगा,
भर ले तू गागर, सुख-दुख के क्षण से,
कुछ देर ठहर कर, जग से तू, वापस जाएगा।

तुम गीत मेरी

तुम प्रीत, तुम संगीत मेरी, जीवन छंद सी कलरव करती,
अधरों से लिपटी तुम गीत मेरी।

स्वर विहग सम चहकती, जीवन पल गुँजित तुझसे ही,
कुसुमित मन उपवन तुम मेरी।

यौवन का मधुरस तुम, मधुर स्वर की रागिनी तुम मेरी,
कुंठित पल की स्वर संगीत तुम मेरी।

जीवन काया मिट्टी तुम बिन, निःस्वर विरहाग्नि जीवन,
जीवन स्वर मे घुली प्राण तुम मेरी।

मिट्टी का कर्ज

ओ प्राणदायक मिट्टी तेरा कर्ज उतारूँ कैसे?

हार-माँस काया मिट्टी का बना,
तेरे कण की बूँद से गया कढ़ा,
अंकपाश तेरे जग पला- बढ़ा,
भूख प्यास मे तुझको ही काटा।

ओ जीवनरक्षक मिट्टी तेरा कर्ज उतारूँ कैसे?

स्वर्ण हरितिमा पत्तों को देता,
अंश जीवन का तुझमे पलता,
मूक प्राणमूल जीवन मे भरता,
मृत्यु समय अपने उर भर लेता।

ओ कष्टनिवारक मिट्टी तेरा कर्ज उतारूँ कैसे?

बादल की वेदना

गर्जनों की भीषण हुंकार,
है प्रदर्शन बादलों की वेदना का,
परस्पर उलझते बादलों की मौन वेदना,
कौन समझ पाया है इस जग में।

घनघोर बादलों की आँसूवृष्टि,
धो डालती धरा का दामन हर साल,
आँसू है शायद ये किसी ग्लानि के!
कड़क बिजली ज्यूँ चीख पीड़ा की।

तपती धरा की जल राशि लेकर,
 स्वनिर्माण स्वयं की करता,
मौन धरा की तपिस देख फिर आँसू बरसाता,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

सागर की वेदना

तेज लहरों की भीषण हाहाकार, 
है वेदना का प्रकटीकरण सागर का,
मौन वेदना की भाषा का हार,
कौन समझ पाया है इस जग में।

लहरें चूमती सागर तट को बार बार,
पोछ जाती इनके दामन हर बार,
करजोड़ विनती कर जैसे पाँव पकड़ती,
पश्चाताप किस भूल का करती?

शायद निचोड़ा है इसने धड़ा को स्वार्थवश,
सर्वस्व धरा का लेकर किया स्वनिर्माण,
पश्चाताप उसी भूल का करती?
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।