Wednesday, 18 May 2016

प्रतीक्षामय निस्तब्ध निशा

निशा स्तब्ध सी है आज फिर कैसी,
क्या फिर कोई मन प्रतीक्षा में बिखरा है यहाँ?

रजनी रो पड़ी है ज्यूँ ओस की बूँदों मे,
निमंत्रण यह कैसा अब इस सुनसान निशा में,
क्या फिर कोई मन पुकार रहा प्रतीक्षा में यहाँ?

तम सी सुरम्य काया खोई विरान निशा में,
रजनीगंधा भी भूली है खुश्बु इस स्तब्ध निशा में,
ये पल प्रतीक्षा के क्या हो चले हैं दुष्कर वहाँ?

मन कहता है जाकर देखूँ कैसी है यह निशा,
प्रतीक्षा के बोझिल पल वो खुद कैसे है गुजारता?
क्युँ कोई पढ़ नहीं पाता प्रतिक्षित मन की दुर्दशा?

प्रतीक्षा में बीतेगी कैसे यह निस्तब्ध सी निशा?
जा कह दे उस बैरी से कोई सूख चुकी रजनीगंधा,
छलक रहे नीर नयनों में पलक्षिण दुष्कर यहाँ!

निशा स्तब्ध सी है आज फिर कैसी,
क्या फिर कोई मन प्रतीक्षा में बिखरा है यहाँ?

Tuesday, 17 May 2016

अजनबी भँवरा

भँवरों के गीत सब, अजनबी हो चुके हैं अब,
गुनहुनाहटों में गीत की, अब कहाँ वो कसक,
थक चुका है वो भँवरा,  गीत गा-गा के अब।

वो भी क्या दिन थे, बाग में झूमता वो बावरा,
धुन पे उस गीत की,  डोलती थी कली-कली,
गीत अब वो गुम कहाँ, है गुम कहाँ वो कली।

जाने किसकी तलाश में अब घूमता वो बावरा,
डाल डाल घूमकर,  पूछता उस कली का पता,
बेखबर वो बावरा, कली तो हो चुकी थी फना।

अब भी वही गीत प्रीत के,  गाता है वो भँवरा,
धुन एक ही रात दिन, गुनगुनाता है वो बावरा,
अजनबी सा बाग में, मंडराता अब वो बावरा।

Sunday, 15 May 2016

दूरियों के दरमियाँ

हमको जुदा न कर सकेंगी ये दूरियों के दरमियाँ!

हम मिलते रहे हैं हर पल यूँ दूरियों के दरमियाँ,
रीत ईक नई बनती गई दूरियों के दरमियाँ,
समय यूँ गुजरता प्रतिपल इन दूरियों के दरमियाँ !

बदल रहा ये रूप ये रंग इस समय के दरमियाँ,
न बदले हैं हम कभी इस समय के दरमियाँ,
वक्त लेता रहा करवटें तुम संग समय के दरमियाँ!

ये दूरियों के दायरे रहे उम्र भर तेरे मेरे दरमियाँ,
वक्त कभी न भर सका दूरियों के दरमियाँ,
मेरे हृदय में रहे सदा तुम इन दूरियों के दरमियाँ!

Wednesday, 11 May 2016

मुझसे मिली जिन्दगी

उस झील सी आँखों में अब तैरती ये जिन्दगी।

जिन्दगी अभ्र पर ही थी मेरी कहीं,
आज मुझसे आकर मिली झूमती वो वहीं,
नूर आँखों मे लिए वही दिलकशीं,
कह रही मुझसे तू आ के मिल ले कहीं।

हँस पड़ी जिन्दगी पल भर को मेरी,
बन्द लब्जों से ही करने लगी वो बातें कईं,
रंग होठों पे लिए फिर वही शबनमी,
कह रही जिन्दगी तू रोज आ के मिल कहीं।

मैं दिखा उन लकीरों में ही बंद कही,
उनकी हाथों में जब लकीरें असंख्य दिखीं,
स्नेह पलकों पे लिए हाथ वो पसारती,
कहने लगी जिन्दगी दूर मुझसे जाना नहीं।

उस अभ्र पर बादलों में अब तैरती ये जिन्दगी।

वादों का क्या

वादों का क्या है, कल फिर नया इक कर लेंगे वादा!

जुबाने वादा अगर कर बैठे हैं तो क्या,
लिख कर कोई कागज तो हमने न दिया,
खता है ये उसकी एतबार जिसने किया,
वादा है ये फखत्, इन वादों का क्या?

वादा ही था, कल नया फिर कर लेगे हम इक वादा!

वो और थे जो वादो पे हो जातेे थे फना,
उम्र गुजरी थी जब, वादों की लगती थी हिना,
बंदिशें उन वादों की, जीना भी क्या उनके बिना,
वो एतबार क्या, जब उन वादो पे ना जिया?

वादा ही है वो जिसमे डूबे है दिल, डूबा ये सारा जहाँ!

दिल पिघल जाते है बस वादों की धूप में,
मर्म लेती है जन्म उन वादों की रूप में,
एहसास लहलहाते है उन वादों के स्वरूप में,
वादा तो है वो, सांसो की धागों से है जो सीया?

वादों का क्या, अब कौन निभाता है करके वादे यहाँ?

Tuesday, 10 May 2016

रफ्ता रफ्ता वजूद

रफ्ता रफ्ता खो चुके हैं इस जहाँ की भीड़ में हम!

गुजर चुके है यहाँ कई महफिलों से हम,
खुद का पता ही कहीं अब भूल चुके हैं हम,
यूँ सफर तमाम कट गई है रफ्ता रफ्ता,
अब खुद का ही वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

बड़ी ही हसीन शाम महफिलों के मगर,
अब दिल है मेरा खोया हुआ न जाने किधर,
यूँ वक्त तमाम कट गई हैं रफ्ता रफ्ता,
अब इस दिल का वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

ये महफिलें है फकत यहाँ बेकाम की,
दिल की राहों से यहाँ दूर अब हो चले हैं हम,
यूँ उम्र तमाम कट गई है रफ्ता रफ्ता,
अब जिन्दगी का ही वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

रफ्ता रफ्ता गुजर रहे हैं इन अंजान राहों से हम!

Sunday, 8 May 2016

बेकरारियाँ

अब कहाँ दिखते हैं वो बेकरारियाें के पल,
जाम हसरतों के लिए कभी दूर वो जाते थे निकल,
क्या रंग बदले हैं मौसम ने, अब वो भी गए हैं बदल?

पल वो मचलता था उन बेकरारियों के संग,
अंगड़ाईयाँ लेती थी करवटें उनकी यादों के संग,
अब बिखरा है वो पल कहीं, क्या वो भी रहे हैं बिखर?

सुलग रही चिंगारियाँ, हसरतों के लगे हैं पर,
जल रही आज बेकरारियाँ, पर वो तो हैं बेखबर,
हम तो वो मौसम नहीं, यहाँ रोज ही जाते है जो बदल!

क्या अब भी है वहाँ बेकरारियाें के बादल?
सोंचता है ये बेकरार दिल आज फिर होके विकल!
भले रंग बदले हैं मौसमों ने, नेह नही सकता है बदल!

मुद्दतों गुजरे अफसाने

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

छलता ही रहा हर पल मन उस छलावे में,
भटकता ही रहा हर क्षण बदन उस बहकावे में,
टूटा सा इक दर्पण निकला वो अपना सा लगता था जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

घुँघरू सा बजता था वो दिल के तहखानों में,
पहचाना सा इक शक्ल लगता था वो अन्जानों में,
टूटा है अब मेरा घुँघरू वो, इस दिल में बजता था जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

जाने कितनी बार छला है ये मन इस दुनिया में,
ये पागल दिल भूल जाता है खुद भी को मृगतृष्णा में,
टूटा है अब जाल वो छल का उलझा था इस मन में जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

Saturday, 7 May 2016

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

वो मिल रहा पयोधर,
आकुल हो पयोनिधि से क्षितिज पर,
रमणीक क्षणप्रभा आ उभरी है इक लकीर बन।

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

वो झुक रहा वारिधर,
युँ आकुल हो प्रेमवश नीरनिधि पर,
ज्युँ चूम रहा जलधर को प्रेमरत व्याकुल महीधर।

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

अति रम्य यह छटा,
बिखरे हैं मन की अम्बक पर,
खिल उठे हैं सरोवर में नैनों के असंख्य मनोहर।

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

अभ्र पर शहर की

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

ढूंढ़ता वो सदियों सेे ललित रमणी का पता,
अभ्र पर शहर की वो मंडराता विहंग सा,
वारिद अम्बर पर ज्युँ लहराता तरिणी सा,
रुचिर रमनी छुपकर विहँसती ज्युँ अम्बुद में चपला।

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

जलधि सा तरल लोचन नभ को निहारता,
छलक पड़ते सलिल तब निशाकर भी रोता,
बीत जाती शर्वरी झेलती ये तन क्लेश यातना,
खेलती हृदय से विहँसती ज्युँ वारिद में छुपी वनिता।

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

अभ्र = आकाश,
वारिद, अम्बुद=मेघ
विहंग=पक्षी