Wednesday, 14 September 2016

गुजरी राहें

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

वो राहें मुड़कर देखती हैं अब राहें मेरी,
जिन राहों से मैं गुजरा था बस दो चार घड़ी,
शायद करने लगी हैं वो राहें मुझसे प्यार,
सुन सकूंगा न मैं उन राहों की सदाएं,
पुकारो न मुझको बार-बार, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

इस कर्मपथ पर मेरी, गुजरेंगी राहें कई,
अपनत्व बाटूंगा उन्हे भी मैं, चंद पल ही सही,
अपने दिल के करने होंगे मुझे टुकड़े हजार,
कर न सकूंगा मैं उन राहों से भी प्यार,
हो सके तो भूल जाना मुझे, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

ए राहें, तू झंकृत न कर मेरे मन के तार,
तू दे न अब सदाएं, बुला न मुझको यूॅ बार-बार,
बाॅध न तू मुझे रिश्तों के इन कच्चे धागों से,
भीगेंगी आॅखें मेरी, तोड़ न पाऊंगा मैं ये बंधन,
बेवश न कर अब मुझको, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

Tuesday, 13 September 2016

नए स्वर

क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....

वो दूर घाटी, जहाॅ कभी बहती थी इक नदी,
वो नदी की तलहटी, जहाॅ भीगते थे पत्थर के तन भी,
वो गुमशुम सी वादी, जहाॅ कोलाहल थे कभी,
सन्नाटा सा अब पसरा है हर तरफ वहीं,
असंख्य सूखे पत्थर के बीच सूखा है वो घाटी भी।

क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....

घास के फूल उग आए हैं अब धीरे से वहीं,
पत्थर के तन पर निखरी है अनदेखी कोई कारीगरी,
प्रकृति ने बिछाई है मखमली सी चादर अपनी,
गूंजी है कूक कोयल की, हॅस रही हरियाली,
फूटे हैं आशा के स्वर, गाने लगी अब वो घाटी भी।

क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....

Sunday, 11 September 2016

शहतूत के तले

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले.....

अचानक ऑंखें बंद रखने को कहकर,
चुपके से तुमनें रख डाले थे इन हाथों पर,
शहतूत के चंद हरे-लाल-काले से फल,
कुछ खट्टे, कुछ मीठे, कुछ कच्चे से,
इक पल हुआ महसूस मानो, जैसे वो शहतूत न हों,
खट्टी-मीठी यादों को तुमने समेटकर,
सुुुुसुप्त हृदय को जगाने की कोशिश की हो तुमने।

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले....

शहतूत के तले ही तुम मिले थे पहली बार,
मीठे शहतूत खाकर ही धड़के थे इस हृदय के तार,
वो कच्ची खट्टी शहतूत जो पसन्द थी तुम्हें बेहद,
वो डाली जिसपर झूल जाती थी तुम,
शहतूत की वो छाया जहाॅ घंटों बातें करती थी तुम,
वही दहकती यादें हथेली पर रखकर,
सुलगते हृदय की ज्वाला और सुलगा दी थी तुमने।

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले....

Friday, 9 September 2016

चंचल बूॅदें

चंचल सी ये बूंदें,
सिमटी हैं अब घन बनकर,
नभ पर निखरी हैं ये,
अपनी चंचलता तजकर,
धरा पर बिछ जाने को,
हैं अब ये बूँदे आतुर,
उमर पड़े है अब घन,
चंचलता उन बूंदो से लेकर।

बह चली मंद सलिल,
पूरबैयों के झौंके बनकर,
किरण पड़ी है निस्तेज,
घन की जटाओं में घिरकर,
ढ़क चुके हैं भाल,
विशाल पर्वत के अभिमानी शिखर,
घनेरी सी घन की,
घनपाश भुजाओं में घिरकर।

बूँदे हो रहीं अब मुखर,
शनैः शनैः घन लगी गरजने,
धुलकर बिखरे हैं नभ के काजल,
बारिश की बूंदों में ढ़लकर,
बिखरी हैं बूँदे, धरा पर अब टूटकर,
कण-कण ने किया है श्रृंगार,
चंचल बूंदों की संगत पाकर।

Thursday, 8 September 2016

विराम

यह पूर्णविराम डाला है किसने अधूरे से लेख पर?
रह गई न! अब सब बातें अनकही!
किताबों के पन्नों पर, अपूर्ण लेख में सिमटकर।

पर क्या करूँ मैं, अब उस आवेग का?
उठ रहें हैं झौकों जैसे, जो विचारों में रह रहकर,
अब तो तय है कि ये बनेंगे विस्फोटक,
जब जल उठेंगी ये बारूद सी, चिंगारी में जलकर।

आवेग के ये झौंके, हैं ये सुनामी जैसे,
रुक सकता यह लेख नहीं, इस पूर्णविराम पर,
शक्ल ये ले लेंगी, मेरी कविताओं की,
हर कदम बढ़ती रहेगी, यह अल्पविराम ले-लेकर।

वो अनकही, अब बनेंगी मेरी क्षणिकाएँ,
अपूर्ण लेख मेरे, बोल पड़ेंगी पूर्णविराम तोड़कर,
इस अशांत मन को तब, कहीं मिलेगा सुकून,
दुखों के पलों मे ये बढ़ेगी, सुख के चंद सुकून लेकर।

Wednesday, 7 September 2016

बनफूल

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।

चुपचाप ही! अचानक!...न जाने कब से..!
आया वो....न जाने कहाँ से..., किस घड़ी में.....
पड़ी जब मेरी नजर पहली बार उसपर,
मुस्कुराया था खुशी से वो बनफूल, मुझे देखकर...
जैसे था उसे इन्तजार मेरा ही कहीं ना कहीं....!

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।

अपनत्व सी जगी उस मासूम सी मुस्कान से,
खो गया कुछ देर मैं..उसके अपनत्व की छाँव में...
पुलकित होता रहा कुछ देर मैं उसे देखकर,
उसकी अकेलेपन का शायद बना था मैं हमसफर...
बेखबर था मैं, द्वेष से जल उठी थी सारी कली....!

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।

अचानक ही!....जोर से....न जाने किधर से...!
प्रबल आँधी.. द्वेष की बह रही थी बाग में किधर से,
बनफूल था दुखी बाग की दुर्दशा देखकर,
मन ही मन सोचता, न आना था कभी मुृझको इधर...
असह्य पीड़ा लिए, हुआ था दफन वो वहीं कहीं....!

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।

Monday, 5 September 2016

ऐ परी

खूबसूरत सी ऐ परी, तू जुदा कभी मुझ से न होना.....

फासलों से तुम यूॅ न गुजरना,
ये फासले रास न आएंगे तुझको,
कुछ कदम साथ इस जिन्दगी के भी चलना,
राहत के कुछ पल साथ मेरे जी लेना।

खूबसूरत सी ऐ परी, तू गुमशुदा खुद से न होना.....

इन फासलों में है जीवन के अंधेरे,
राहों के शूल चुभ जाएंगे पावों में तेरे,
कुछ रौशनी में इस जिन्दगी के भी चलना,
उजाले यादों के इन आँखों में भर लेना।

खूबसूरत सी ऐ परी, तू नाराज खुद से न होना...
साया बने तू मेरी ऐ परी, जुदा कभी मुझसे न होना.....

Friday, 2 September 2016

पायल

छुनुन-छुनुन पायल की बजने लगी हैं फिर,
तहजीब के तराने वो पायल सुनाने लगी हैं फिर,
उनकी पाॅवों में पायल सजने लगी हैं फिर।

उनके आने की आहट देगी मुझे वो पायल,
दिल में छुपी जो बातें कहेंगी मुझसे वो पायल,
छनन-छन पायल अब गाएंगी कोई गजल।

गुंजेगी घर में मेरे उनके पायल की संगीत,
गाएंगे साथ उनके दीवारों पे लिखे ये मेरे गीत,
सुरमंदिर सा होगा आंगन, ऐ मेरे मनमीत।

सदियों तलक गुंजेंगी, ये पायल की सदाएं,
कह देंगी सारी बातें, लब जो कभी कह न पाए,
फिर बज रही है पायल, शायद हैं वो आए!

Thursday, 1 September 2016

कसक

सिराहने तले दबी मिली कुछ धुंधली सी यादें,
दब चुकी थी वो समय की तहों में,
परत धूल की जम गई थी उन गुजरे लम्हों में,
अक्सर वो झांकता था सिराहने तले से,
कसक ये कैसी दे गई वो भूली-बिसरी सी बातें ....

वो हवाओं में टहनियों का झूल जाना,
उन बलखाती शाखों को देख सब भूल जाना,
लाज के घूंघट लिए वो खिलती सी कलियाॅ,
मुस्कुराते से लम्हों में घुलती वो मिश्री सी बतियाॅ,
कसक कितने ही साथ लाईं वो धुंधली सी यादें .....

जैसे फेंका हो कंकड़ सधे हाथों से किसी ने,
ठहरी हुई झील सी इस शान्त मन में,
वलय कितने ही यादों के अब लगे हैं बिखरने,
वो तस्वीर धुंधली सी झिलमिलाने लगी फिर मन में ,
कसक फिर से जगी है, पर है अब कहाॅ वो बातें ......

पलटे नहीं जाएंगे अब मुझसे फिर वो सिराहने,
अब लौट कर न आना ऐ धुंथली सी यादें,
तू कभी मुड़कर न आना फिर इस झील में नहाने,
पड़ा रह सिराहने तले, तू यूॅ ही धूल की तहों में,
कसक अब न फिर जगाना,  तू ऐ गुजरी सी यादें .....

Wednesday, 31 August 2016

अरुणोदय


अरुणोदय की हल्की सी आहट पाकर,
लो फिर मुखरित हुआ प्रभात,
किरणों के सतरंगी रंगों को लेकर,
नभ ने नव-आँचल का फिर किया श्रृंगार।

मौन अंधेरी रातों के सन्नाटे को चीरकर,
सूरज ने छेरी है फिर नई सी राग,
कलरव कर रहे विहग सब मिलकर,
कलियों के संपुट ने किया प्रकृति का श्रृंगार।

नव-चेतन, नव-साँस, नव-प्राण को पाकर,
जागा है भटके से मानव का मन,
नव-उमंग, नव-प्रेरणा, नव-समर्पण लेकर,
आँखों में भर ली है उसने रचना का नया श्रृंगार।