Tuesday, 16 October 2018

नींद

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

सांझ ढले यूँ पलकों तले,
हौले-हौले कोई नैनों को सहलाता है,
ढ़लती सी इक राह पर,
कोई हाथ पकड़ कहीं दूर लिए जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

उभर आते हैं दृश्य कई,
पटल से दृश्य कई, कोई मिटा जाता है,
तिलिस्म भरे क्षण पर,
रहस्यमई इक नई परत कोई रख जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

बेवश आँखें कोई झांके,
कोई अंग-अग शिथिल कर जाता है,
कोई यूँ ही बेवश कर,
खूबसूरत सा इक निमंत्रण लेकर आता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

नींद सरकती है नैनों में,
धीरे से कोई दूर गगन ले जाता है,
जादू से सम्मोहित कर,
तारों की उस महफिल में लिए जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

Sunday, 14 October 2018

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समस्त सम्माननीय पाठकों का हार्दिक धन्यवाद
दिनांक: 14.10.2018

मत कर इतने सवाल

कुछ तो रखा कर, अपने चेहरे का ख्याल......
मत कर, इतने सवाल!

ये उम्र है, ढ़लती जाएगी!
हर शै, चेहरों पर रेखाएँ अंकित कर जाएंगी,
छा जाएगा वक्त का मकरजाल!
मत कर इतने सवाल.....!

समय की, है ये मनमानी!
बेरहम समय ये, किस शै की इसने है मानी?
रेखाओं के ये बुन जाएगा जाल!
मत कर इतने सवाल.....!

बदलेगा, ये वक्त भी कभी!
डगर इक नई, अपनी ही चल देगा ये कभी!
वक्त की थमती नही कहीँ चाल!
मत कर इतने सवाल.....!

ले ऐनक, तू बैठा हाथों में!
रंग कई, नित भरता है तू अपनी आँखों में!
उम्र के रंगों का क्या होगा हाल?
मत कर इतने सवाल.....!

झुर्रियाँ, ले आएंगी ये उम्र!
इक राह वही, अन्तिम चुन लाएगी ये उम्र!
क्यूँ पलते मन में इतने मलाल?
मत कर इतने सवाल.....!

कुछ तो रखा कर, अपने चेहरे का ख्याल......
मत कर, इतने सवाल!

Saturday, 13 October 2018

ठहरी सी रात

ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?

हर क्षण, संग रही मेरे क्षणदा,
खेल कौन सा, जो संग मेरे इसने ना खेला!
ऊब चुका मैं, क्षणदा थकती ही नहीं,
आँगन मेरे ही है ये क्यूँ रुकी?

ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?

नभ के तारे, ढ़ल चुके हैं सारे,
वो डग भरती, निकल पड़ी घर को कौमुदी!
झांक रहा, वो क्षितिज से अंशुमाली,
क्यूँ बैठी है मेरे घर विभावरी?

ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?

मुझको ही, तू जाने दे विभावरी!
कुछ क्षण को, मै भी तो देखूँ वो प्रभाकिरण!
भर लूँ नैनों में, थोड़ी सी वो जुन्हाई,
देखूँ दिनकर की वो अंगड़ाई?

ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?
.............................................................
अर्थ:-
विभावरी, क्षणदा, नीरवता : - रात्रि, रात
जुन्हाई, कौमुदी : - चाँदनी
अंशुमाली, दिनकर : - सूर्य

Wednesday, 10 October 2018

अब कहाँ वो कहकशाँ

वो कहकशाँ, वो कदमों के निशां अब है कहाँ....

न जाने, गुजरा है अब कहाँ वो कारवां,
धूल है हर तरफ,
फ़िज़ाओ में पिघला सा है धुआँ.....

गुजर चुके है जो, वक्त की तेज धार में,
वो रुके है याद में,
वो शाम-ओ-शहर अब हैं कहाँ.....

कभी जो कहते थे, दुनिया बसाऊंगा मै,
रातें सजाऊंगा मैं,
वो ही सूनी कर गए हैं बस्तियां.....

भिगोती थी कभी, कहकहों की बारिशें,
चुप है वो फुहारें,
है वीरान सा अब वो कहकशाँ......

अब ढ़ूंढता हूँ, फिर वही शाम-ओ-शहर,
वो रास्ते दर-बदर,
मिट चुके है जो कदमों के निशां.....

वो कहकशाँ, वो कदमों के निशां अब है कहाँ....

Sunday, 7 October 2018

ख्याल - धूरी के गिर्द

जागृत सा इक ख्याल और सौ-सौ सवाल.....

हवाओं में उन्मुक्त,
किसी विचरते हुए प॔छी की तरह,
परन्तु, रेखांकित इक परिधि के भीतर,
धूरी के इर्द-गिर्द,
जागृत सा भटकता इक ख्याल!

इक वक्रिय पथ पर,
केन्द्राभिमुख फिरता हो रथ पर,
अभिकेन्द्रिय बल से होकर आकर्षित,
उस धूरी की ओर,
उन्मुख होता रहता इक ख्याल!

जागे से ये हैं सपने,
ये ख्याल कहाँ है अपने वश में,
ख़्वाहिशें हजार दफ़न हैं सवालों में,
धूरी की आश में,
सवालों में पिसता इक ख़्याल!

जागृत सा इक ख्याल और सौ-सौ सवाल.....

Saturday, 6 October 2018

संवेदनाएं

विलख-विलख कर जब कोई रोता है,
क्यूँ मेरा उर विचलित होता है?
ग़ैरों की मन के संताप में,
क्यूँ मेरा मन विलाप करता है?
औरों के विरह अश्रुपात में,
बरबस यूँ ही क्यूँ....
द्रवित हो जाती हैं ये मेरी आँखें.....

परेशाँ करती है मुझको मेरी संवेदना!
संवेदनशीलता ही मुझको करती है आहत!
सिवा तड़प के पाता ही क्या है मन?
क्यूँ रोऊँ मैं औरों के गम में,
क्यूँ ढ़ोऊँ मैं बेवजह के ये सदमें,
बरबस यूँ ही क्यूँ.....
भीगे तन्हाई में ऐसे ये मेरी आँखें...

आहत मुझको ही क्यूँ कर जाते है?
संताप भरे वो पलक्षिण,
उन नैनों के श्रावित कण,
मेरे ही हृदय क्यूँ प्रतिश्राव दिए जाते हैं,
विमुख क्यूँ ना हो पाता हूँ मैं,
बरबस यूँ ही क्यूँ....
छलक सी जाती है ये मेरी आँखें....

सिवा तड़प के पाता ही क्या है मन?
काश! पत्थर सा होता ये मन,
न ही आहत करती मुझको ये संवेदनाएं,
भावुक झण भर भी ना ये होता,
पाता राहत की कुछ साँसें,
बरबस ही न यूं....
सैलाब सी उफनती ये मेरी आँखें......

Thursday, 4 October 2018

निशाचर अखियाँ

कैसे कटे रतियाँ,
निशाचर सी हुई है दो अखियाँ....

ये नैन! जागे है सारी रैन,
करे ये अठखेलियां,
दबे पाँव चले, यहीं पलकों तले,
छुप-छुप, न जाने,
ये किस किस से मिले?
टुकर-टुकर ताके ये सारी रतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....

ये निशा प्रहर भई दुष्कर,
न माने ये बतियां!
संग रैन चले, न ये निशा ढ़ले,
दिशा-दिशा भटके,
न ही नैनो में नींद पले,
उलझाए कर के उलझी बतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....

ये नैन! पाये न क्यूँ चैन?
कटे कैसे रतियाँ?
राह कठिन, ये हर बार चले,
बोझिल सी पलकें,
रुक रुक अब हार चले,
जिद में जागी ये सारी रतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....

कैसे कटे रतियाँ,
निशाचर सी हुई है दो अखियाँ....

Tuesday, 2 October 2018

शायद तुम आए थे!

शायद तुम आए थे? हाँ, तुम ही आए थे!

महक उठी है, कचनार सी,
मदहोश नशे में, झूम रहे हैं गुंचे,
खिल रही, कली जूही की,
नृत्य नाद कर रहे, नभ पर वो भँवरे,
क्या तुम ही आए थे?

चल रही है, पवन बासंती,
गीत अजूबा, गा रही वो कोयल,
तम में, घुल रही चाँदनी,
अदभुत छटा लेकर, निखरा है नभ,
शायद तुम ही आए थे?

ये हवाएँ, ऐसी सर्द ना थी!
ये दिशाएँ, जरा भी जर्द ना थी!
ये संदेशे तेरा ही लाई है,
छूकर तुमको ही,आई ये पुरवाई है,
बोलो ना तुम आए थे?

कह भी दो, ये राज है क्या!
ये बिन बादल, बरसात है क्या!
क्यूँ मौसम ने रंग बदले,
सातो रंग, क्यूँ अंबर पर है बिखरे?
कहो ना तुम ही आए थे!

चाह जगी है, फिर जीने की,
अभिलाषा है, फिर रस पीने की,
उत्कंठा एक ही मन में,
प्राण फूंक गया, कोई निष्प्राणो में!
हाँ, हाँ, तुम ही आए थे!

शायद तुम आए थे? हाँ, तुम ही आए थे!

Sunday, 30 September 2018

खुमारियाँ

सुस्त लम्हों में, खुमारियों का है ये आलम....

खुश्क सी ये कैसी, चल रही है हवा,
वक्त, जैसे ठहर चुका है यहाँ,
मंद सी हो चली, सूरज की रौशनी,
मंद मंद बह रही, ये बयार भी,
सुस्त से हैं कदम, अधूरी है प्यास भी....

ठहरा सा ये लम्हा, ये उन्मुक्त से पल,
ठहरा सा है, वो बीता सा कल,
ठहरे से हैं, वो ही बेसब्रियों के पल,
गुजरता नहीं, सुस्त सा ये लम्हा,
जाऊँ किधर, कैद ये कर गया यहाँ....

इस पल ने, यूँ ही बांध रखे है कदम,
आकुल से हैं प्राणों के कण,
इक आहट सी, उठ रही है कहीं,
खोया हूँ मैं, इस पल में यहीं,
है माधुर्य सा, इन खुमारियों में कही....

सुस्त लम्हों में, खुमारियों का है ये आलम....