Saturday, 15 June 2019

एकांत पल

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

यूँ लगा था, पहले पहल,
बड़े नीरव से हैं, वो एकांत पल,
दीर्घ श्वांस भरते होंगे, वो एकांत पल,
एकाकी रहती होंगी, वो हरपल,
सिमटे से, होंगे वो पल!
छाई होगी नीरवता, अनमना सा होगा हर पल!

यही सोच, सदियों तक,
पहुँचा था मैं, एकांत पलों तक,
ले अंकपाश, बेतहासा चूमती भाल,
कंठ लिए रव, चहक उठे पल,
जागृत थे, वो हर पल!
थी उनमें स्थिरता, धैर्य भरा था उनमें हर पल!

कलरव हैं, उनके अन्तः,
गुंजित हो उठते हैं, पल स्वतः,
मृदुल से वो पल, मुखर हैं अन्ततः,
रव उनमें, आदि से अन्त तक,
शान्त से, एकांत पल!
रव की मधुरता, आकंठ लिए थे एकांत पल!

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 13 June 2019

दूरियाँ

असह्य सी हैं, हर पल बढ़ती दूरियाँ!

दर्द ही दे गया, उनसे ये बिछड़न,
पीड़ कैसे सह सकेगा, नाजुक सा ये मन,
तोड़ कैसे पाएगा, उनसे ये बंधन,
जोड़ती है क्यूँ, रिश्ते दूरियाँ!

दुरूह सा है कितना, ये बिछड़न,
उभरते फासलों में, बढ़ता हुआ विचलन,
पल-पल, तेज होती एक धड़कन,
असह्य हैं, ये बढ़ती दूरियाँ!

तड़प, दर्द और उभरता विषाद,
अन्तर्द्वन्द्व, विछोह, जन्म लेता अवसाद,
मन से मन का, हर-पल इक विवाद,
रह-रह के, कुरेदती दूरियाँ!

रिश्तों की, ये नाजुक बारीकियाँ,
दूरियों में, पल-पल बढ़ती नजदीकियाँ,
हर पल ऊँघता, पनपता गठबंधन,
उत्पीड़न, देती हैं दूरियाँ!

क्यूँ न बन जाए, फिर अफसाने,
हुए जो बेगाने, जोड़ ले वो रिश्ते पुराने,
चल रे मन, चल नाप ले फासले,
चलो कर ले तय, दूरियाँ!

असह्य सी हैं, हर पल बढ़ती दूरियाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 11 June 2019

तनिक उदासी

यूँ हर लम्हा, हर क्षण, हमेशा ही, पास हो तुम!
फिर भी, तनिक उदास हैं हम!

अभी-अभी, तुम्हारा ही एहसास बन,
बह चली थी, इक ठंढ़ी सी पवन,
छूकर गए थे, हौले से तुम,
सिहरन, फिर वही, देकर गए थे तुम,
अब जो रुकी है वो पवन,
कहीं दूर हो चली है, तेरी छुअन!

यूँ हर लम्हा, हर क्षण, हमेशा ही, पास हो तुम!
फिर भी, तनिक उदास हैं हम!

अभी-अभी, निस्तब्ध कर गए थे तुम,
मूर्त तन्हाईयों में, हो गए थे तुम,
अस्तब्ध हो चला था मन,
उत्तब्ध थे वो लम्हे, स्तब्ध थी पवन,
शब्द ही ले उड़े थे तुम,
कुछ, कह भी तो ना सके थे हम!

यूँ हर लम्हा, हर क्षण, हमेशा ही, पास हो तुम!
फिर भी, तनिक उदास हैं हम!

वो चाँद है, या जैसे अक्श है तुम्हारा,
है चाँदनी, या जैसे तुमने पुकारा,
अपलक, ताकते हैं हम,
नर्म छाँव में, तुम्हें ही झांकते हैं हम,
तुम्हे ढूंढते हैं बादलों में,
तिमिर राह में, जब होते हैं हम!

यूँ हर लम्हा, हर क्षण, हमेशा ही, पास हो तुम!
फिर भी, तनिक उदास हैं हम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 9 June 2019

डूबता सूरज

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

आकर जमीं पर,
क्षितिज को,
क्यूँ चूम जाता है सूरज!
लाल से हैं भाल,
वो गगन है या है ताल,
है आँखों में हया, या नींद में ऊँघ जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

या है ये प्रीत की ही,
रंग-रंगीली सी,
रीत कोई!
या सज कर,
उस सुनहरे मंच पर,
क्षितिज को,
वो सुनाता है गीत कोई!
क्या मिलन की चाह में, रोज ढ़ल जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

या है मिलन की शाम ये,
या है विरह का,
टूटा जाम ये!
बिखरे हैं,
जो उस फलक पर,
छलकते हैं,
जो पैमानों में उतर कर!
या दीवानों सा, फलक पर बिखर जाता है सूरज!

उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......

आकर जमीं पर,
क्षितिज को,
क्यूँ चूम जाता है सूरज!
लाल से हैं भाल,
वो गगन है या है ताल,
है आँखों में हया, या नींद में ऊँघ जाता है सूरज!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 7 June 2019

उसी कल में

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में ...

ये आज है, कि गुजरता ही नहीं,
क्या राज है कि मन समझता ही नहीं?
बदल से गए हैं पल,
या यहीं-कहीं ठहर से गए हैं पल,
चल रे चल, ऐ पल तू चल,
यूँ ना बदल,
कल, उनसे कहीं मिलना है हमें,
आने दे जरा, वो ही कल....

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में....

सुना था कि पंख होते हैं पलों के!
चाल, बड़े ही चपल, होते हैं इन पलों के!
इनको ये हुआ क्या?
उड़ते नहीं क्यूँ आज ये गगन पे,
ऐ, चपल पल, तू जरा चल!
ठहरा जो तू,
चल न दे, वो आने वाला कल,
ले आ जरा, वो ही कल....

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में....

निस्तब्ध हूँ मैं, देख कर तेरी अदा!
ऐसे न पहले, राह में तू कहीं था यूँ रुका!
निरंतर था तू चला,
क्यूँ आज ही, इस राह में तू रुका?
यूँ न कर मुझसे छल, तू चल!
तू आगे निकल,
उसी कल में, तू भी चल...

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 5 June 2019

उत्कर्ष

उत्कर्ष में, शिखर को जब पा जाए जीवन,
तब भी याचक सा, फैल जाए दामन!
वही उत्थान है, वही है चरम!

चरम प्राप्ति पर जब-जब होते हैं हम,
संग-संग, जागृत हो उठते हैं अहम के फन,
प्रवेश करती हैं, चारित्रिक वर्जनाएं,
प्रभावी होता है, नैतिक पतन,
खोता है पल-पल संयम,
स्व-मूल्यांकन के, ये ही होते हैं क्षण!

आधिपत्य होता है, जब अंधियारों का,
व्याप लेती है, क्षण भर में वो विशाल धरा,
चरम को, पाती है रातों की नीरवता,
पर, खुद सहम जाती है रात,
प्रभा-किरणों की चाह में,
किसी याचक सा, फैलाती है दामन!

सूरज भी ढ़लता है, शिखर के पश्चात,
सांझ देकर ही जाती है, अंततः हर प्रभात,
उजालों की भी, होती है इक परिधि,
प्रभावी हो, निकलती है रात,
क्षीण हो जाते हैं ये दिन,
याचक बन, फैलाती है वो दामन !

निश्चित होना है, हर उत्थान का पतन,
सर्वथा ये हैं, इस जीवन के ही दो चरण,
अहम कैसा, जब मिली सफलता,
पतन हुआ, तो क्या है गम,
खोएं पल भर ना संयम,
स्व-मूल्यांकन के, होते हैं ये क्षण!

उत्कर्ष में, शिखर को जब पा जाए जीवन,
तब भी याचक सा, फैल जाए दामन!
वही उत्थान है, वही है चरम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 4 June 2019

तुम्हारी ही बातें

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

हर बंधनों से, मुक्त था मैं कल तक,
यादें वही, ले आई है तुझ तक,
दूर जाऊँ मैं कैसे, मन को समझाऊँ मैं कैसे,
मुक्त, जाल से हो पाऊँ मैं कैसे,
मन पे घिरने लगे हैं, फिर वही जाल कल से..

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

वो अंतहीन सी, तुम्हारे प्रश्नों की लड़ी,
वो हँसी की, गूंजती फुलझड़ी,
प्रश्न के उस जाल में, बस मेरा उलझ जाना,
अनुत्तरित प्रश्नों का, वो जमाना,
मन को जलाने लगे, फिर वही प्रश्न कल से...

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

कभी चुपके, तुम्हारा दबे पाँव आना,
फेरकर नजरें, वहीं बैठ जाना,
मिन्नतों का फिर, अनथक सा वो सिलसिला,
हर बात पर, कोई शिकवा गिला,
तड़पाने लगे हैं मन, फिर वही बात कल से...

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

किसी झील सा, यूँ गुम-सुम सा था मैं,
ठहरा वहीं, चुप-चुप सा था मैं,
वही आहट सी आई, कोई हलचल सी लाई,
यादें तेरी, फिर कहीं झिलमिलाई,
मन को रुलाने लगे, फिर वही याद कल से..

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 2 June 2019

सौंधी मिट्टी

बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!

सौंधी सी ये खुश्बू, है अपनेपन की,
अटूट संबंधो और बंधन की,
अब भस्म हो चुके जो, उस अस्थि की,
बिछड़े से, उस आलिंगन की,
खींच लाते हैं वो ही, फिर चौखट पर!

सौंधी सी ये खुशबू, है इस मिट्टी की,
धरोहर, है जिनमें उन पुरखों की,
निमंत्रण, उनको दे जाती हैं जो अक्सर,
बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी वो ही खुश्बू, मिट्टी की पाकर!

सौंधी सी ये खुश्बू, है संस्कारों की,
संबंधों के, उन शिष्टाचारों की,
छूट चुके हैं जो अब, उन गलियारों की,
बचपन के, नन्हें से यारों की,
पुकारते हैं जो, फिर रातों में आकर!

सौंधी सी खुश्बू, है उन उमंगों की,
तीन रंगों में रंगे, तिरंगों की,
स्वतंत्रता व स्वाभिमान, के जंगों की,
बासंती से, खिलते रंगों की,
लोहित वो मिट्टी, बुलाती है आकर!

बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

देवदार

यशस्वी है, तपस्वी है देवदार,
एकाकी युगों से,
आच्छादित वन में कब से,
है देवों का वो हृदयेश.....

युगों-युगों, वीरान पहाड़ों पर,
फैला कर बाँहें,
लहराकर विशाल भुजाएँ,
कर रहा वो अभिषेक....

निर्विकार कितने ही वर्षों तक,
तप किए उसने,
चाह में आराध्य की अपने,
साध किए अतिरेक...

सम्मुख होकर गगन की ओर,
तकते हैं वो नभ,
आ जाएँ आराध्य शायद,
ख्वाब यही अधिशेष.....

अधूरे या, रूठे से होंगे ख्वाब,
उम्मीदें हैं शेष,
अब भी साँसें ले रही हैं,
अरमानों के अवशेष.....

यशस्वी है, तपस्वी है देवदार,
है साधना-रत,
युगों-युगों से है अनुरक्त,
कामनाएँ है अशेष.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 29 May 2019

चल रे मन उस गाँव

चल रे मन! उस गाँव, उसी पीपल की छाँव चल!

आकाश जहाँ, खुलते थे सर पर,
नित नवीन होकर, उदीयमान होते थे दिनकर,
कलरव करते विहग, उड़ते थे मिल कर,
दालान जहाँ, होता था अपना घर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

धूप जहाँ, आती थी छन छनकर,
छाँव जहाँ, पीपल की मिल जाती थी अक्सर,
विहग के घर, होते थे पीपल के पेड़ों पर,
जहाँ पगडंडी, बनते थे राहों पर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

लोग जहाँ, रहते थे मिल-जुल कर,
इक दूजे से परिहास, सभी करते थे जम कर,
जमघट मेलों के, जहाँ लगते थे अक्सर,
जहाँ प्रतिबंध, नहीं होते थे मन पर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

जहाँ क्लेश-रहित, था वातावरण,
स्वच्छ पवन, जहाँ हर सुबह छू जाती थी तन,
तनिक न था, जहाँ हवाओं में प्रदूषण,
जहाँ सुमन, करते थे अभिवादन!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

उदीप्त जहाँ, होते थे मन के दीप,
प्रदीप्त घर को, कर जाते थे कुल के ही प्रदीप,
निष्काम कोई, जहाँ कहलाता था संदीप,
रात जहाँ, चराग रौशन थे घर-घर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

चल रे मन! उस गाँव, उसी पीपल की छाँव चल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा