Sunday, 24 January 2021

क्या रह सकोगे

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ तो, विचरते हो, मुक्त कल्पनाओं में, 
रह लेते हो, इन बंद पलकों में,
पर, नीर बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

वश में कहाँ, ढ़ह सी जाती है कल्पना,
ये राहें, रोक ही लेती हैं वर्जना, 
इक चाह बन, रह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ ना होता, ये स्वप्निल आकाश सूना!
यूँ, जार-जार, न होती कल्पना,
इक गूंज बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

तुम कामना हो, या, बस इक भावना,
कोरी.. कल्पना हो, या साधना,
यूँ, भाव बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

ढूंढूं कहाँ, आकाश का कोई किनारा,
असंख्य तारों में, प्यारा सितारा,
तुम, दिन ढ़ले ढ़ल जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 19 January 2021

झुर्रियाँ

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

उम्र, दे ही जाती हैं आहट!
दिख ही जाती है, वक्त की गहरी बुनावट!
चेहरों की, दहलीज पर, 
उभर आती हैं.....
आड़ी-टेढ़ी, वक्र रेखाओं सी ये झुर्रियाँ,
सहेजे, अनन्त स्मृतियाँ!

वक्त, कब बदल ले करवट!
खुरदुरी स्मृति-पटल, पे पर जाए सिलवट!
चुनती हैं एक-एक कर,
उतार लाती हैं.....
जीवन्त भावों की, गहरी सी ये पट्टियाँ,
मृदुल छाँव सी, झुर्रियाँ!

घड़ी अवसान की, सन्निकट!
प्यासी जमीन पर, ज्यूँ लगी हो इक रहट!
इस, अनावृष्ट सांझ पर,
न्योछार देती हैं...
बारिश की, भीगी सी हल्की थपकियाँ, 
कृतज्ञ छाँव सी, झुर्रियाँ!

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 16 January 2021

फेहरिस्तों का शहर

कभी, भूले से, कोई आता है इधर!
जाने, कैसा ये शहर!

लोग कहते हैं, कोई विराना है उधर!
न इन्सान, न कोई राह-गुजर!
हुए सदियों, कोई गुजरा न इधर,
जाने, कैसा ये शहर!

ख्वाबों के कई, फेहरिस्तों का शहर!
कई अनसुने, गीतों का डगर!
बनते-बिगरते , रिश्तों का ये घर,
जाने, कैसा ये शहर!

एक मैं हूँ, यहीं, अकेला सा बेखबर!
सपनों के कई, टूटे से ये घर!
परवाह किसे किसको ये फिकर,
जाने, कैसा ये शहर!

लग न जाए, इन ख्वाबों को भी पर!
फिरे आसमानों, पर बेफिक्र,
दूर कितना, सितारों का वो घर,
जाने, कैसा ये शहर!

कभी, भूले से, कोई आता है इधर!
जाने, कैसा ये शहर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 10 January 2021

वो खत

फिर वर्षों सहेजते!
किताबों में रख देने से पहले,
खत तो पढ़ लेते!

यूँ ना बनते, हम, तन्हाई के, दो पहलू,
एकाकी, इन किस्सों के दो पहलू,
तन्हा रातों के, काली चादर के, दो पहलू!
यूँ, ये अफसाने न बनते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!

वो चंद पंक्तियाँ नहीं, जीवन था सारा,
मूक मनोभावों की, बही थी धारा,
संकोची मन को, कहीं, मिला था किनारा!
यूँ, कहीं भँवर न उठते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!

बीती वो बातें, कुरेदने से क्या हासिल,
अस्थियाँ, टटोलने से क्या हासिल,
किस्सा वो ही, फिर, दोहराना है मुश्किल!
यूँ, हाथों को ना मलते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!

अब, जो बाकि है, वो है अस्थि-पंजर,
दिल में चुभ जाए, ऐसा है खंजर,
एहसासों को छू गुजरे, ये कैसा है मंज़र!
यूँ, छुपाते या दफनाते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!
फिर वर्षों सहेजते!
किताबों में रख देने से पहले,
खत तो पढ़ लेते!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 9 January 2021

विचलन

आज, जरा विचलित है मन....
बिन छूए, कोई छू गया मेरा अन्तर्मन!
या ये है, अन्तर्मन की प्रतिस्पर्धा!

यूँ लगता है, जैसे!
शायद, अछूता ही था, 
अब तक मैं!
जबकि, कितनी बार,
यूँ, छूकर गुजरी थी मुझको,
ख्यालों की आहट!
बदलते मौसम की मर्माहट,
ये ठंढ़क, ये गर्माहट,
बारिश की बूँदें!

यूँ, भींगा था तन!
पर, रीता ना अन्तर्मन!
अछूता सा,
कैसा है, ये विचलन!
कैसी है, ये करुण पुकार!
किसकी है आहट?
यूँ अन्तर्मन क्यूँ है मर्माहत?
क्यूँ देती नही राहत!
बारिश की बूँदें!

क्यूँ रहता, बेमानी!
भीगी, पलकों का पानी,
प्यासा सा!
रेतीला, इक मरुदेश!
और, विहँसता नागफनी!
पलता इक द्वन्द!
पल-पल, सुलगती गर्माहट,
इक चिल-चिलाहट,
विचलन, मन की घबराहट,
क्या, बुझाएंगी प्यास?
बारिश की बूँदें!

आज, जरा विचलित है मन....
बिन छूए, कोई छू गया मेरा अन्तर्मन!
या ये है, अन्तर्मन की प्रतिस्पर्धा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 8 January 2021

श्रद्धांजलि

एक अभिन्न मित्र की असामयिक अंतिम यात्रा पर, अनुभूति के श्रद्धासुमन.....इक श्रद्धांजलि

अकेले ही, मुड़ गए तुम, अनन्त की ओर,
पीछे, सारे सगे-संबंधी, छोड़!

एक कदम, बिन साथी, तुम कब चलते थे,
तुम तो, तन्हाई से भी, डरते थे,
पर अबकी, चल पड़े तुम,
तन्हा, बिन बोले,
उस अंजाने, अंधेरे की ओर,
सब, संगी-साथी छोड़! 

अकस्मात्, तुम, चुन बैठे, इक अनन्त पथ, 
ना, सारथी कोई, ना कोई, रथ,
अनिश्चित सा, वो गन्तव्य!
खाई, या पर्वत!
या, वो इक अंतहीन सा मोड़,
या, सघन वन घनघोर!

माना कि जरा भारी था, ये वक्त, ये संघर्ष!
पर, स्वीकारना था, इसे सहर्ष,
यूँ खत्म, नहीं होती बातें,
यूँ फेरकर आँखें,
चल पड़े हो, सच से मुँह मोड़,
बेफिक्र हो, उस ओर!

जाते-जाते, संग उन यादों को भी ले जाते,
सारी, कल्पनाओं को ले जाते,
ढूंढेगीं, जो अब तुझको,
यूँ, रह-रह कर,
गए ही क्यों, रख कर इस ओर!
विस्मृतियों के, ये डोर!

अकेले ही, मुड़ गए तुम, अनन्त की ओर,
पीछे, सारे सगे-संबंधी, छोड़!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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प्रिय मित्र स्व.कौशल  ....अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि 
जहाँ भी हो, खुश रहो दोस्त,
स्मृति के सुमधुर क्षण में,  तुम हमेशा संग रहोगे।

Sunday, 3 January 2021

दो ही दिन

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

पा लेने को, है उन्मुक्त गगन,
है छू लेने को, उम्मीदों के कितने घन!
खुला-खुला, उद्दीप्त ये आंगन,
बुलाता, ये सीमा-विहीन क्षितिज,
भर आलिंगन!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

जितना सौम्य, उतना सम्यक,
रहस्यमयी उतनी ही, यह दृष्टि-फलक!
धारे रूप कई,  बदले रंग कई!
हर रूप अनोखा, हर रंग सुरमई,
और मनभावन!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन

पर अंजाना आने वाला क्षण!
ना जाने कौन सा पल, है कितना भारी!
किस पल, बढ़ जाए लाचारी!
ना जाने, ले आए, कौन सा पल,
अन्तिम क्षण!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

समेट लूँ, जो शेष है जीवन!
भर लूँ दामन में, कर लूँ इक आलिंगन!
कंपित हो, सुसुप्त धड़कन!
जागृत रहे, किसी की वेदना में,
ये हृदयांगण!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 1 January 2021

नव-परिचय

हाथ गहे, अब सोचे क्या! ओ अपरिचित!
माना, अपरिचित हैं हम-तुम,
पर, ये कब तक?
कुछ पल, या कि सदियों तक!

देखो ना, तुम आए जब, द्वार खुले थे सब!
सब्र के बांध, टूट चुके थे तब,
अ-परिचय कैसा?
नाहक में, ये संशय कब तक?

आओ बैठो, शंकित मन को, धीर जरा दो!
दुविधाओं को, तीर जरा दो,
आस जरा ले लो!
संशय में, पीड़ पले कब तक?

अब सोचे क्या, नव-परिचय की यह बेला?
दो हाथों की, इक गाँठ बना,
इक विश्वास जगा,
ये सांस चले, संग सदियों तक!

हर्ष रहे, नव-वर्ष मनें, परिचय की गाँठ बंधे,
चैन धरे, रहे फिर हाथ गहे,
कोई नवताल सुनें,
कुछ पल क्या? सदियों तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 30 December 2020

ओ तथागत-2020

ओ तथागत!

प्रतिक्षण, थी तेरी ही, इक प्रतीक्षा!
जबकि, मैं, बेहद खुश था,
नववर्ष की, नूतन सी आहट पर,
उसी, कोमल तरुणाहट पर!

गुजरा वो, क्षण भी! तुम आए...
ओ तथागत!

कितने कसीदे, पढ़े स्वागत में तेरी!
मान-मनौवल, आवभगत,
जैसे कि, तुम थे कोई अभ्यागत,
पर, तुम तो बिसार चले हो!

गुजरा वो, क्षण भी! तुम चले...
ओ तथागत!

बड़ी खोखली, पाई तेरी ही झोली!
जाते-जाते, ले गए तुम,
मेरी ही, तरुणाई के इक साल!
और, छोड़ गए हो तन्हा!

ओ तथागत!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 27 December 2020

कैसा परिचय

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

फिर क्यूँ, मुड़ गई ये राहें!
मिल के भी, मिल न पाई निगाहें!
हिल के भी, चुप ही रहे लब,
शब्द, सारे तितर-बितर,
यूँ न था मिलना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

कैसी, ये परिचय की डोर!
ले जाए, मन, फिर क्यूँ उस ओर!
बिखरे, पन्नों पर शब्दों के पर,
बना, इक छोटा सा घर,
सजा ले, कल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

यूँ तो फूलों में दिखते हो!
कुनकुनी, धूप में खिल उठते हो!
धूप वही, फिर खिल आए हैं,
कई रंग, उभर आए हैं,
बन कर, अल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)