Sunday, 7 November 2021

मध्य कहीं

कितनी बातों के मध्य, बात रही,
दिल के मध्य, कहीं!

कह भी पाता, तो क्या कह पाता!
ये सागर, कितना बह पाता!
लहर-लहर बन, खुद ही टकराता,
खुद को बिखराता,
अनकही सी, हर जज्बात रही,
दिल के मध्य, कहीं!

कितनी बातों के मध्य, बात रही,
दिल के मध्य, कहीं!

कल्पना कहें, या, कहें सपना उसे!
अब कह दें कैसे, बेगाना उसे,
अनकही वो बातें, वो ही सौगातें,
दिन और ये रातें,
संग मेरे, मेरी तन्हाई में गाते,
दिल के मध्य, कहीं!

कितनी बातों के मध्य, बात रही,
दिल के मध्य, कहीं!

अब जो ये शेष बचे हैं, संग मेरे हैं,
उन बातों में, भीगे रंग तेरे हैं,
फीके, ये लेकिन, शाम-सवेरे हैं,
वो यादों के रंग,
रहते हैं जो, अब मेरे ही संग,
दिल के मध्य, कहीं!

कितनी बातों के मध्य, बात रही,
दिल के मध्य, कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 31 October 2021

मैं और तारा

इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

यूं, दोनों ही एकाकी,
ना संगी, ना कोई साकी,
भूला जग सारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

छूटे, दिवस के सहारे,
थक-कर, डूबे सारे सितारे,
कितना बेसहारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

धीमी, साँसों के वलय,
उमरते, जज़्बातों के प्रलय,
तमस का मारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

ठहरा, बेवश किनारा,
गतिशील, समय की धारा,
ज्यूं, हरपल हारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

दोनों ही पाले भरम,
झूठे, कितने थे वो वहम,
टूट कर बिखरा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

दोनों, मन के विहग,
बैठे, जागे अलग-अलग,
सोया जग सारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 19 October 2021

धागे

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे,
बुनते-बुनते, भावुक से कितने पल,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

कितने अंजाने थे तुम, और बेगाने से हम,
इक सिमटे से, पल थे तुम, 
और कितने बिखरे से, बादल थे हम,
यूं, चुनते-चुनते, तुझ संग खुद को,
आ पहुंचे, साहिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

यूं, आसान न था, बिखरे ये टुकड़े चुनना,
यूं धागों संग, चिथड़े सिलना,
भरमाए से, इस गगन के तारे थे हम,
यूं, चलते-चलते, अंधेरे से राहों में,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

हौले से, तुम आ बैठे, हृदय के आंगन में,
यूं बरसे, घन जैसे सावन में,
प्यासे, पतझड़ के, सूखे उपवन हम,
यूं, रीतते-रीतते, भीगी बारिश में,
आ पहुंचे, साहिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे...

अब जाने, कितने जन्मों का, ये बंधन है,
किन धागों का, गठबंधन है,
बैठे हैं, तेरे इन आँचल के, साए हम,
यूं, सुनते-सुनते, जीवन के किस्से,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

मढ़ते-मढ़ते, रिश्तों के सारे नाज़ुक धागे,
बुनते-बुनते, भावुक से कितने पल,
आ पहुंचे, मंजिल तक हम।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 14 October 2021

मैं और मेरे जीवंत पल

मैं और संग मेरे, जीवंत से ये पल मेरे!

बुने हर पल, कई सपनों के महल,
भरे रंग कई, नैनों तले जगाए रात कई,
संग मेरे, करे मनमानियां,
जीवंत से ये पल मेरे!

कहीं खोई सी हो, बादलों में धूप,
झूमे वो गगन, धरे ये चांदनी कई रूप,
टिम-टिमाते, सितारों भरे,
जीवंत से ये पल मेरे!

ठहर सी गई हो, कुछ पल पवन,
रुकी हो साँसें, रुकी सी हों ये धड़कन,
मगर, द्रुत कदमों से दौड़े,
जीवंत से ये पल मेरे!

गूँजे कहीं, उन कदमों की आहट,
बजे यूँ हीं, टूटी सी ये वीणा यकायक,
चुपके से, सुनाए वही धुन,
जीवंत से ये पल मेरे!

जागृत हकीकत, या महज स्वप्न,
सुप्त कई एहसास, यूं हो उठे जीवंत,
करे, तुम्हारी ही बातें अनंत,
जीवंत से ये पल मेरे!

मैं और संग मेरे, जीवंत से ये पल मेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 9 October 2021

पथिक

पथिक इस राह के, हम, दूर तक जाएंगे,
वो पंछी चाह के, हमें भटकाएंगे,
विचलन कई, लुभाने आएंगे!
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
उलझे बड़े, पथ ये सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक, इस राह के हम‌....

या, धुंधलाने लगे हों, पथ के सितारे,
या फिर पुकारें, क्षणिक गगन के, छांव सारे, 
और, भरमाते रहे, पथ के वो तारे‌...
लक्ष्य से, विचलित ना हो,
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
भ्रम से भरे, पथ ये सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक इस राह के हम.....

बाधाएं बड़ी हों, पथ में शिलाएं खड़ी हों,
दुर्गम घाटियों की, बाहें बड़ी हों,
विपरीत, ये दिशाएं पड़ी हों,
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
कंटक भरे, पथ ये सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक इस राह के हम.....

या, हों प्रतिकूल, समय के ये दोधारे,
या बिछड़ने लगे हों, पथ के वो संगी सहारे,
और न हो, सांझ के कोई सहारे...
वक्त से, प्रभावित ना हो,
कह दो जरा, मन से, भटके न वो,
ज़िंदगी के, पड़ाव सारे, कहीं अटके न वो!

पथिक इस राह के हम.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 4 October 2021

सूनी ये वादियां

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
या, फिर गुनगुना दो, प्रणय के गीत कोई!

अक्सर ओढ़ कर, खामोशियां,
लिए अल्हड़, अनमनी, ऊंघती, अंगड़ाइयां,
बिछा कर, अपनी ही परछाईयां,
चल देते हो, कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

पल वो क्या, जो चंचल न हों,
प्रणय हों, पर अनुनय-विनय के पल न हों,
संग हो, पर ये कैसी तन्हाईयां,
खोए हो, तुम कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

देखो, वो पर्वत, कब से खड़ा,
छुपाए पीड़ मन के, तन्हाईयों में, हँस रहा,
जरा, फिर बिछाओ परछाईयां,
तुम भी, बैठो यहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!

अक्सर, पलों को, बिखेर कर,
यूं ही हौले से, बहते पलों को झकझोरकर,
छोड़ कर, उच्श्रृंखल क्षण यहां,
चल देते हो, कहां!

सूनी पड़ी ये वादियां, सुना दो, आलाप वो ही!
या, फिर गुनगुना दो, प्रणय के गीत कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 3 October 2021

अधूरा शै

लगाए, खुद पे पहरा,
हर शख्स, है कितना अधूरा!

कितनी गांठें, बंध गई, इस मन के अन्दर,
प्यासा रह गया, कितना समुन्दर,
बहता जल, नदी का, ज्यूं कहीं हो ठहरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर शै, यहां कितना अधूरा!

मुरझा चुकी, कितनी कलियां, बिन खिले, 
असमय, यूं बिखरे फूल कितने,
बागवां से, इक बहार, कुछ यूं ही गुजरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर बाग, है कितना अधूरा!

बरस सके ना, झूमकर, बादल चाहतों के,
ढ़ंग, मौसमों के, बदले-बदले,
वो बादल, आसमां से कुछ यूं ही गुजरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर चाह, है कितना अधूरा!

तमन्नाओं के डोर थामे, बिताई उम्र सारी,
प्यासी रह गई, जैसे हर क्यारी,
दूर, यूं ढ़ल रहा सांझ, ओढ़े रंग सुनहरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर रंग, है कितना अधूरा!

लगाए, खुद पे पहरा,
हर शख्स, है कितना अधूरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 30 September 2021

टूटे पत्थरों के गीत

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

ह्रदय के ज़ख्म सारे, ‌‌‌‌‌‌‌गाकर गीत हारे,
हरे, ये ज़ख्म उभरे,
‌कौन, इन जख्मों को भरे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

रही जब तक, शिला, हर कोई मिला,
गिला, क्यूं ना करे,
लगाए कौन, मन पे पहरे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

तोड़ा था, उसी ने, जिसने यूं बिखेरा,
अधूरा, ये गीत मेरा,
वो सुने, ना, विलाप करे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

भर ही जाएं, ना कुरेदो ज़ख़्म कोई,
रहने दो, यूं ही पड़ा,
सह लूंगा, राह की ठोकरें!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

बुलाएंगे ये कल, पुकारेंगे आह मेरे,
लुभाएंगे, ज़ख्म हरे,
देखें, कौन जख्मों को भरे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

वो अक्सर

मचल कर, मखमली सवालों में!
वो अक्सर, आ ‌‌‌‌‌ही जाते हैं, ख्यालों में!

न बदली, अब तक, उनकी शोखियां,
वो ही रंग, अब भी, वो ही खुश्बू,
और वही, नादानियां,
वो अक्सर, कर ही जाते हैं ख्यालों में!

पर, ठहरती है, कब वो, चंचल पवन,
गुजर से जाते हैं, पल वो आकर,
जरा सा, गुदगुदा कर,
अक्सर, भरमा ही जाते हैं, ख्यालों में!

बज ही उठती हैं, ये टूटी सी, वीणा,
थिरक से, उठते हैं, ये तार-तार,
इक पल, गुनगुना कर,
वो अक्सर, बस ही जाते हैं ख्यालों में!

दोष, उन उफनती , लहरों का क्या,
बे-सहारे, किनारों के, वो सहारे,
टकराकर, किनारों से,
अक्सर, भीगो ही जाते हैं, ख्यालों में!

मचल कर, मखमली सवालों में!
वो अक्सर, आ ‌‌‌‌‌ही जाते हैं, ख्यालों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 September 2021

भारी व्यथा

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

देकर आधार, अनन्त सिधार गए तुम,
देकर अनुभव का, सार गए तुम,
पर, किस पार गए तुम?
फिर, ढूंढ न पाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

आँखों में मेरी, जीवन्त सा चेहरा तेरा,
है ख्यालों पर मेरी, तेरा ही पहरा,
पर, दर्शन वो अन्तिम तेरा,
मेरे ही, भाग्य न आया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

है भारी जीवन पर, इक वो ही व्यथा!
भूल पाऊँ कैसे, तुमको सर्वथा?
कहीं, खत्म हुई जो कथा!
वही, फिर याद आया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

यूँ तो संग रहे तुम, करुणामय यादों में,
गूंज तुम्हारी, ‌‌है अब भी कानों में,
पर, भीगी सी पलकों में!
तुझको, ना भर पाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

तुम, रहे बन कर, स्वप्न कोई अनदेखा,
टूटकर, जैसे फिर बनती हो रेखा,
पर, वो ही मूरत अनोखा!
है, आँखों में समाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

थी विस्मयकारी, तेरी सारगर्भित बातें,
शेष है जीवन की, वो ही सौगातें,
और, लम्बी होती ये रातें!
इन, रातों नें भरमाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

हर पल भारी, है तेरे विरह की व्यथा,
भूल पाऊँ कैसे, तुमको सर्वथा?
हार चला, भले ही तुझको,
अन्तर्मन, तुझे ही पाया!

अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)