Friday, 29 April 2016

कह भी देेते

हसीन सी होती ये जिन्दगी, कह भी देते जो बात वो।

कहीं कुछ तो है जो कह न पाए है वो,
कोई बात रुक गई है लबों पे आ के जो,
बन भी जाती इक नई दास्ताँ, कह भी देते जो बात वो।

चुप चुप से वो बैठे लब क्युँ सिले हैं वो,
जाने कब से इन सिलसिलों में पड़े हैं वो,
हँस भी देती ये खामोशियाँ, कह भी देते जो बात वो।

ये जरूरी नही कि कह दें मन की बात वो,
कह देती हैं सब ये नजरें, चाहे हों जज्बात जो,
रोके रुके हैं कब जज्बात ये, कह भी देते जो बात वो।

कुछ और होती ये जिन्दगी, कह भी देते जो बात वो।

Thursday, 28 April 2016

सुर के गिरह

सुर साधूँ तो मै कैसे,
बार-बार न जाने कितनी बार,
टूटा है मेरा सुर हर बार।

गिरह पड़े हैं सुर में मेरे,
तार-तार सुर के न जाने क्युँ बेजार,
स्वर मेरे लड़खड़ाए हैं हर बार।

संगम हो कैसे सुर का?
नाल-नाल मृदंग जब हो ना तैयार,
गीत मेरे भटके है हर बार।

सुर सधते गीत बजते,
जब-जब पायल की तेरी हो झंकार,
खुल जाते सुर के गिरह हर बार।

खालीपन अब संग

मैं और मेरा खालीपन, अब दोनो ही रहते हैं संग!

कभी-कभी अजीब सा खालीपन,
गहराता मन के अन्दर,
जैसे सायों सा लहराता है,
अंधियारा स्याह रातों के भीतर।

उथला सा ये मन कब तक सह पाए,
कौन भरे मन का खालीपन,
मन बोलता है मन से,
आँखें मीचे मन बस सुनता ही जाए।

मन का खालीपन एहसासों का भूखा,
कोई तो जग में होता,
जो मन के एहसासों को सुनता,
ये खालीपन खुद मे ही खुद को ढूंढ़ता।

मैं और मेरा खालीपन अब दोनो हैं संग,
कभी-कभी मिल बैठते हम निर्जन में,
ठिठकता तब मेरा एकाकीपन,
फिर लगा लेता तब वो मुझको अपने अंग।

मैं और मेरा खालीपन, अब दोनो ही रहते हैं संग!

अपरिचित अपना सा

परिचित ही था मेरा वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

यह कैसा परिचय, एक अपरिचित शख्स से,
ओझल है जो अबतक परिचय की नजरों से,
कल्पना की सतरंगी घोड़ों पर चढ़ आता वो,
परिचय की किन डोरों से मन को बांधता वो।

परिचित लगता अब वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

हम कहते है जिसे परिचय, क्या सच में है वो,
या प्रतिविम्ब है इक, या बस इक छलावा वो,
अपरिचित सा जब भी कोई इस जीवन में हो,
प्रश्न अनेंकों मन में, उठने लगते न जाने क्यों।

परिचित होने से पहले, अपरिचित से लगते क्युँ वो!

कल्पना हो या छलावा, मन को है प्यारा वो,
अन-सुने गीत यादों में, हर पल गनुगुनाता वो,
अनुराग स्पर्श के, कल्पनाओं में अलापता वो,
जन्मों का ये परिचय, अपरिचित कब था वो।

परिचित सदियों से वो, अपरिचित मुझको  कब था वो!

Wednesday, 27 April 2016

कहता है विवेक मेरा

कहता है हृदय मेरा, चल ख्वाहिशों का मुँह मोड़ दे तू।

तमन्नाओं की महफिल फिर जगमगाई है कहीं,
कहता है मन,
गीत कोई अधूरा सा तू गाता ले चल,
रस्मों की दम घोंटती दीवारों से,
तू बाहर निकल आ चल।

अधूरी ख्वाहिशों के शहर मे तमन्ना जागी है फिर,
कहता है दिल,
परिदें ख्वाहिशों के उड़ा ले तू भी चल,
छुपी है जो बात अबतक दिल मे,
कह दे तू भी आ चल।

महफिल ख्वाहिशों की ये, तमन्नाओं को पीने दे फिर,
कहता है विवेक,
मैं ना निकलुंगा आदर्शों की लक्ष्मन रेखा से,
तमन्ना मेरी पीकर भटके क्युँ,
चल ख्वाहिशों का मुँह मोड़ दे तू।

कहता है हृदय मेरा, विवेक की अनदेखी ना कर तू।

वो बेपरवाह

वो बेपरवाह,
सासों की लय जुड़ी है जिन संग,
गुजरती है उनकी यादें,
हर पल आती जाती इन सासों के संग।

वो बेपरवाह,
बस छूकर निकल जाते है वो,
हृदय की बेजार तारों को,
समझा है कब उसने हृदय की धड़कनो को।

वो बेपरवाह,
अपनी ही धुन मे रहता है बस वो,
परवाह नही तनिक भर उसको,
पर कहते है वो प्यार तुम्ही से है मुझको।

वो बेपरवाह,
हृदय की जर्जर तारो से खेले वो,
मन की अनसूनी कर दे वो,
भावनाओं के कोमल धागों को छेड़े वो।

वो बेपरवाह,
टूट टूट कर बिखरा है अब ये मन,
बेपरवाह वो कहता है धड़कन,
बंजारा सा फिरता अब व्याकुल बेचारा मन।

वो बेपरवाह,
झाक लेती गर हृदय के प्रस्तर में वो,
सुन लेती गर सासों की लय वो,
जीवन के लम्हों से लापरवाह ना होते वो।

वो बेपरवाह,
ललाट पर बिंदियों की चमकती कतारें होती,
सिन्दुरी मांग अबरख सी निखर उठती,
सुन्दर सी मोहक तस्वीर इस धड़कन में भी बसती।

व्यस्त जिन्दगानी

व्यस्त लम्हे, हकीकत हैं ये जीवन के,
पल भर को फुर्सत नही साँसें लेने की चैन के,
रफ्तार से घूम़ती हैं, ये पहिए जिन्दगी के,
जरूरतों के आगे पिसती है, जरूरत जिन्दगानी के।

कब रुके हम, कब साँसों को झकझोरा,
जाने किन राहों पर हमने खुद को ही रख छोड़ा,
खुद से ही पूछते है हम कभी खुद का पता,
व्यस्तताओं के आगे विवश, हमारी आवश्यकता।

शून्य संग्याहीन हो चुके मन के भाव सारे,
निर्णय के दोराहों पर जाने कितने ही पल गुजारे,
हारी है चाह मन की असंख्य बार जीवन में,
भौतिकता के आगे हरबार टूटे हैं घर कल्पनाओं के।

कोमलता हंदय की दबी व्यस्तताओं में,
खूबसूरती लम्हो की रहती अनदेखी वर्जनाओं में,
जज्बातों के घरौंदे जलते जीवन की भट्ठी में,
एहसासों के राख पर ही महल बनते जिन्दगानी के।

तन्द्रा भंग हुई अब व्यस्त लम्हों की मजार पर,
कशिश आह भरी दिल में, रंजिश उन गुजरे लम्हों पर
आँसू छलके हैं नैनों में, हृदय हो रहा बेजार पर,
गुजरे वक्त के आगे विवश, बैठा जज्बातो के ढ़ेर पर।