Saturday, 15 October 2016

इक मोड़

अजब सी इक मोड़ पर रुकी है जिंदगानी,
न रास्तों का ठिकाना, न खत्म हो रही है कहानी।

लिए जा रहा किधर हमें ये मोड़ जिन्दगी के,
है घुप्प सा अंधेरा, लुट चुके हैं उजाले रौशनी के,
ओझल हुई है अब मंजिलें चाहतों की नजर से,
उलझी सी ये जिन्दगानी हालातों में जंजीर के।

अवरुद्ध हैं इस मोड़ पर हर रास्ते जिन्दगी के,
जैसे कतरे हों पर किसी ने हर ख्वाब और खुशी के,
ताले जड़ दिए हों किसी ने बुद्धि और विवेक पे,
नवीनता जिन्दगी की खो रही अंधेरी सी सुरंग में।

अजब सी है ये मोड़.....इस जिंदगी की रास्तों के.....

पर कहानी जिन्दगी की खत्म नहीं इस मोड़ पे,
बुनियाद हौसलों की रखनी है इक नई, इस मोड़ पे,
ऊँची उड़ान जिंदगी की भरनी हमें है विवेक से,
आयाम ऊंचाईयों की नई मिलेंगी हमें इसी मोड़ से।

यूँ ही मिल जाती नही सफलता सरल रास्तों पे,
शिखर चूमने के ये रास्ते, हैं गुजरते कई गहराईयों से,
चीरकर पत्थरों का सीना बहती है धार नदियों के,
इस मोड़ से मिलेगी, इक नई शुरुआत कहानियों के।

अजब सी इस मोड़ पे, नई मोड़ है जिन्दगानियों के.....

Thursday, 13 October 2016

सौगातें

सौगातें उन लम्हों की, मैं बाँटता हूँ जीवन की झोली से...

अपने मन की तेज धार में उन्मुक्त बह जाने को,
मन ही मन खुल कर मुस्काने को,
गुजारे थे कुछ लम्हे मैनें संग जीवन के,
बस वो ही लम्हे हैं थाथी, मेरे बोझिल से जीवन के।

सौगातें उन लम्हों की, मैं बाँटता हूँ जीवन की झोली से...

चढती साँसों की लय में दूर तक बह जाने को,
कंपन धड़कन की सुन जाने को,
बिताए थे कुछ लम्हे मैने एकाकीपन के,
बस वो लम्हे ही हैं साथी, मेरे जीवन की तन्हाई के।

सौगातें उन लम्हों की, मैं बाँटता हूँ जीवन की झोली से...

दो नैनों की प्यासी पनघट में नीर भर लाने को,
करुणा के सागर तट छलकाने को,
गुजारे थे कुछ लम्हे मैने तुम बिन विरहा के,
बस वो लम्हे हैं काफी, नैनों से सागर छलकाने के।

सौगातें उन लम्हों की, मैं बाँटता हूँ जीवन की झोली से...

Thursday, 6 October 2016

दस्तक देते पल

दस्तक देते हैं कुछ पल बीते वक्त के तहखाने से ....

ऐ वक्त के बहते हुए अनमस्क से साये,
लघु विराम दे तू अपनी यात्रा को,
देख जरा छीना है कैसे तूने उन लम्हों को,
सिमटी हैं उन लम्हों में ही मेरे जीवन की यादें,
तू लेकर आ यादों के वो घनेरे से छाये,
तेरी तहखानों में कैद हुए वो पल, मुझको लौटा दे.....

ऐ वक्त के बहते हुए अनवरत से धारे,
खोई तेरी धारा में, चपलता यौवन की मेरी,
बदली है काया, बदली सी सूरत है मेरी,
मायने बदल गए हैं रिश्तों के इन राहों में तेरी,
छूट गई राहों में कितने ही साँसों की डोरी,
दस्तक देते उन लम्हातों के पल, मुझको लौटा दे.....

झाँक रहे है वो कुछ पल बीते वक्त के तहखाने से ....

दोरसा मौसम

वो बोली, रखना खयाल अपना दोरसा है ये मौसम....

ठंढी बयार लेकर आई थी जब अगहन,
पहली बार तभी काँपा था उस दुल्हन का मन,
होकर व्याकुल फिर समझाया था उसने,
दोरसा है ये मौसम, खयाल होंगे तुम्हे रखने,
संभल कर रहना, इक तुम ही हो इस मन में........

बदलते मौसम से चिंतित थी वो दुल्हन,
मन ही मन सोचती बड़ा अल्हड़ है मेरा साजन,
उपर से अगहन पूष का दोरसा ये मौसम,
आशंकओं से पहली बार कांपा था उसका मन,
दोरसे मौसम में तब घबराई थी वो नव दुल्हन......

युग बीते, बीते कितने ही दोरसे मौसम,
चिन्तित होती वो अब भी, जब आता दोरसा मौसम,
बेफिक्री साजन की बढ़ाती उसकी धड़कन,
मन ही मन कहती, आता ही है कयूँ दोरसा मौसम,
दोरसे मौसम में, बन चुकी थी वो पूरी दुल्हन......

रखती है वो ख्याल मेरा, जब आता है दोरसा मौसम.....

Tuesday, 4 October 2016

प्यार भरी कोई बात

शायद, दबी सी मन में है कोई बात, ये कैसे हैं जज्बात?

जागे हैं अनदेखे से सपने....ये खयालात हैं कैसे,
अनछुए से मेरे धड़कन.........पर ये एहसास हैं कैसे,
अन्जाना सा चितवन...ये तिलिस्मात हैं कैसे,
बहकते कदम हैं किस ओर, ये अंजान है कैसे?

जीवन के.....इस अंजाने से डगर पर,
उठते है ज्वर ....झंझावातों के.........किधर से,
कौन जगाता है .....एहसासों को चुपके से,
बेवश करता सपनों में कौन, ये अंजान है कैसे?

खुली आँख.. सपनों की ...होती है बातें,
बंद आँखों में ....न जाने उभरती वो तस्वीर कहाँ से,
लबों पर इक प्यास सी...जगती है फिर धीरे से,
गहराती है फिर वो प्यास, मन अंजान हो कैसे?

अंजानी उस बुत से.....होती हैं फिर बातें,
बसती है छोटी सी दुनियाँ...फलक पे अंजाने से,
घुलती है साँसों में....खुश्बु इक हौले से,
बज उठते हैं फिर तराने, गीत अंजान ये कैसे?

संभाले कौन इसे, रोके ...इसे कोई कैसे,
एहसासों...की है ये बारात, अरमाँ हैं बहके से,
रिमझिम सी उस पर ये बरसात, हौले से,
मचले से हैं ये जज्बात, समझाएँ इसे फिर कैसे?

शायद, दबी सी मन में है कोई बात, ये कैसे हैं जज्बात?

Monday, 3 October 2016

रुखसत

रुखसत हुआ वो जहान से यूँ पलट कर,
अनगिनत सवालों के हल, अथूरे यूँ ही रख कर,
हालातों के भँवर में फसा वो यूँ सिमट कर।

दीप था वो बुझ गया जो फफक कर,
थी खबर उसको कहाँ वो बुझेगा यूँ ही जलकर,
रास्तो के अंधेरो मे मिटेगा यूँ धधक कर।

चौराहे पर बिलखती संगिनी छोड़ कर,
बीच मझधार में नाव जीवन की यूँ ही छोड़ कर,
रिश्तों के मोह से चला वो यूँ मुँह मोड़ कर।

न जाने किधर वो चला जहाँ को छोड़ कर
क्या खुश है वो भी मोह के बंधनों को तोड़कर?
चाहतों के हमसफर को अकेला छोड़ कर?

रुखसत हुई हैं साँसे उसकी यूँ ही टूटकर,
रुखसत हुआ है अलग भीड़ से वो वजूद रख कर,
संसार की रंगीनियों को अलविदा कह कर।

(आज, एक दोस्त की असमय आकस्मिक निधन पर)

Sunday, 2 October 2016

हल्की सी हवा

हल्की सी वो हवा थी, जो हौले से तन को छू गई....

वादी वो हरी-हरी खिली-खिली सी,
झौंके हवाओं के हल्के से, मदहोश कर गई,
गुनगुनाने लगा है मन उन वादियों में कहीं,
चल पड़े हैं बहके कदम मेरे, दिशाहीन से कहीं....

हल्की सी वो सिहरन थी, जो हौले से तन को छू गई....

शायद कल्पनाओं की है ये इक लरी,
शब्द मेरे ही गीतों के, वादी में गुंज रही हैं कहीं,
मुस्कुराने लगा है मन, हवा ये कैसी चली,
थिरक रहे हैं रोम-रोम, धुन छिड़ी है ये कौन सी.....

हल्की सी वो चुभन थी, जो हौले से तन को छू गई....

सच कर लूँ मैं भरम मन के वही,
दोहरा लूँ फिर से वही अनुभव सिहरन भरी,
बह जाये वो पवन, इन्ही वादियों में कहीं,
दिशाहीन बहक लूँ मैं, सुन लूँ इक संगीत नई......

हल्की सी वो अगन थी, जो हौले से तन को छू गई....