Tuesday, 25 April 2017

टूटते ख्वाहिशों की जिन्दगी

दिखने में नायाब! मगर किसी भी क्षण ढहने को बेताब!
बेमिसाल, मगर टूटती हुई ख्वाहिशों की जिन्दगी!

अकस्मात् ही,
रुक से गए जैसे जिन्दगी के रास्ते,
मोहलत भी न मिली हो
ख्वाहिशों के परिंदों को ऊड़ने की जैसे!
रूठ जो गई थी
खुद उसकी ही सांसे उससे!
मोह के धागे सब टूट चुके थे उसके....

जैसे सरकती हुई बर्फ की पहाड़ी ढह गई हो कोई,
पत्तियों के कोर पर शबनमी बूंदों की सूखती सी लड़ी,
रेगिस्तान में बनता बिगरता रेत का टीला कोई!

कभी थे कितने
प्रभावशाली, जीवन्त,
गतिशीलताओं से भरे ये जिन्दगी के रास्ते,
निर्बाध उन्मुक्त,
उड़ान भरते थे ये ख्वाहिशों के परिंदे....
पर जैसे अब टूटी हो तन्द्रा,
माया के टूटे हों जाल,
विरक्त हुआ हो जीवन से जैसे.....

दिखने में नायाब! मगर किसी भी क्षण ढहने को बेताब!
बेमिसाल, मगर टूटती हुई ख्वाहिशों की जिन्दगी!

Sunday, 23 April 2017

उल्लास

इशारों से वो कौन खींच रहा क्षितिज की ओर मेरा मन!

पलक्षिण नृत्य कर रहा आज जीवन,
बज उठे नव ताल बज उठा प्राणों का कंपन,
थिरक रहे कण-कण थिरक रहा धड़कन,
वो कौन बिखेर गया उल्लास इस मन के आंगन!

नयनों से वो कौन भर लाया मधुकण आज इस उपवन!

पल्लव की खुशबु से बौराया है चितवन,
मधुकण थोड़ी सी पी गया मेरा भी यह जीवन,
झंकृत हुआ झूमकर सुबासित सा मधुबन,
जीर्ण कण उल्लासित चहुंदिस हँसता उपवन!

इशारों से वो कौन खींच रहा क्षितिज की ओर मेरा मन!

Friday, 21 April 2017

बेचैन खग

तट के तीरे खग ये प्यासा,
प्रीत की नीर का जरा सा,
नीर प्रीत का तो मिलता दोनो तट ही!
कलकल सा वो बहता, इस तट भी! उस तट भी!
पर उभरती कैसी ये प्यास,
सिमटती हर क्षण ये आश,
यह कैसी है विडम्बना?
या शायद है यह इक अमिट पिपास....?
या है अचेतन मन के चेतना की इक अधूरी यात्रा,
या भीगे तन की अंतस्थ प्यास की इक अधूरी ख्वाहिश!

उस डाली खग ढूंढे बसेरा,
चैन जहाँ पर हो जरा सा,
छाँव प्रीत का तो मिलता हर डाली पर!
रैन बसेरा तो रमता, इस डाली भी! उस डाली भी!
पर किस आशियाँ की है तलाश,
क्युँ उस खग का मन है उदास,
कैसा है यह अनुराग?
या शायद है यह अन्तहीन सी तलाश....?
या है एकाकीपन से कारवाँ बनने तक की अधूरी यात्रा,
या एकांत मन को यूँ बहलाने की इक अधूरी कोशिश!

Wednesday, 19 April 2017

हमेशा की तरह

हकीकत है ये कोई या है ये दिवास्वप्न, हमेशा की तरह!

हमेशा की तरह, है किसी दिवास्वप्न सा उभरता,
ख्यालों मे फिर वही, नूर सा इक रुमानी चेहरा,
कुछ रंग हल्का, कुछ वो नूर गहरा-गहरा.......
हमेशा की तरह, फिर दिखते कुछ ख्वाब सुनहरे,
कुछ बनते बिगरते, कुछ टूट के बिखरे,
सपने हों ये जैसे, किसी हकीकत से परे......

हमेशा की तरह,किसी झील में जैसे पानी हो ठहरा,
मन की झील में, चुपके से कोई हो आ उतरा,
वो मासूम सी, पर छुपाए राज कोई गहरा.....
हमेशा की तरह, खामोशियों के ये पहरे,
रुमानियत हों ये जैसे, किसी हकीकत से परे.......

हमेशा की तरह, दामन छुड़ा दूर जाता कोई साया,
जैसे है वो, मेरे ही टूटे हृदय का कोई टुकड़ा,
फिर पलट कर वापस, क्युँ देखती वो आँखें.....
हमेशा की तरह, अपनत्व क्युँ ये बढाते,
अंजान से है ये रिश्ते, किसी हकीकत से परे.......

हकीकत है ये कोई या है ये दिवास्वप्न, हमेशा की तरह!

Monday, 17 April 2017

वक्त के सिमटते दायरे

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

अंजान सा ये मुसाफिर है कोई,
फिर भी ईशारों से अपनी ओर बुलाए रे,
अजीब सा आकर्षण है आँखो में उसकी,
बहके से मेरे कदम उस ओर खीचा जाए रे,
भींचकर सबको बाहों में अपनी,
रंगीन सी बड़ी दिलकश सपने ये दिखाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

छीनकर मुझसे मेरा ही बचपन,
मेरी मासूमियत दूर मुझसे लिए जाए रे,
अनमने से लड़कपन के वो बेपरवाह पल,
मेरे दामन से पल पल निगलता जाए रे,
वो लड़कपन की मीठी कहानी,
भूली बिसरी सी मेरी दास्तान बनती जाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

टूटा है अल्हर यौवन का ये दर्पण,
वक्त की विसात पर ये उम्र ढली जाए रे,
ये रक्त की बहती नदी नसों में ही सूखने लगी,
काया ये कांतिहीन पल पल हुई जाए रे,
उम्र ये बीती वक्त की आगोश में ,
इनके ये बढते कदम कोई तो रोके हाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

Sunday, 16 April 2017

गूंजे है क्युँ शहनाई

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

अभ्र पर जब भी कहीं, बजती है कोई शहनाई,
सैकड़ों यादों के सैकत, ले आती है मेरी ये तन्हाई,
खनक उठते हैं टूटे से ये, जर्जर तार हृदय के,
चंद बूंदे मोतियों के,आ छलक पड़ते हैं इन नैनों में...

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

ऐ अभ्र की वादियाँ, न शहनाईयों से तू यूँ रिझा,
तन्हाईयों में ही कैद रख, यूँ न सोए से अरमाँ जगा,
गा न पाएंगे गीत कोई, टूटी सी वीणा हृदय के,
अश्रु की अविरल धार कोई, बहने लगे ना नैनों से....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

निहारते ये नैन अपलक, न जाने किस दिशा में,
असंख्य सैकत यादों के, अब उड़ रही है हर दिशा में,
खलबली सी है मची, एकांत सी इस निशा में,
अनियंत्रित सा है हृदय, छलके से है नीर फिर नैनों में....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

क्षितिज की ओर

भीगी सी भोर की अलसाई सी किरण,
पुरवैयों की पंख पर ओस में नहाई सी किरण,
चेहरे को छूकर दिलाती है इक एहसास,
उठ यार! अब आँखे खोल, जिन्दगी फिर है तेरे साथ!

ये तृष्णगी कैसी, फिर है मन के आंगन,
ढूंढती है किसे ये आँखे, क्युँ खाली है ये दामन,
अब न जाने क्युँ अचेतन से है एहसास,
चेतना है सोई, बोझिल सी इन साँसों का है बस साथ!

ये किस धुंध में गुम हुआ मन का गगन,
फलक के विपुल विस्तार की ये कैसी है संकुचन,
न तो क्षितिज को है रौशनी का एहसास,
न ही मन के धुंधले गगन पर, उड़ने को है कोई साथ!

पर भीगती है हर रोज सुबह की ये दुल्हन,
झटक कर बालों को जगाती है नई सी सिहरन,
मन को दिलाती है नई सुखद एहसास,
कहती है बार बार! तु चल क्षितिज पर मैं हूँ तेरे साथ!