Sunday 10 January 2016

सूर्य नमन

नमन आलिंगन नव प्रभात, 
हे रश्मि किरण तुम्हारा,
खुद अग्नि मे हो भस्म,
तम हरती करती उजियारा।

जनकल्यान परोपकार हेतु
पल-पल भस्म तू होती,
ज्वाला ज्यों-ज्यों तेज होती,
प्रखर होती तेरी ज्योति ।

विश्व मे पूजित हो पाने का,
अवश्यमभावी मंत्र यही है,
निष्काम्-निःस्वार्थ परसेवा,
जीवन का आधार यही है।

सीख सभ्यता को नितदिन,
तू देता निःशुल्क महान,
परमार्थ कार्य तू भी सीख,
मानव हो जगत कल्याण।

दिल ढूंढता

फुर्सत के क्षण मन बेचैन, बेचैनियों से फुर्सत कहाँ,
दिल क्युँ ढूंढता फिर वही, बेचैन लम्हों के रात दिन।

तलाश जिस सुकून की मिलती वो इन बेचैनियों मे,
लम्हात उन्ही मुफलिसी के दिल ढूंढता रहता रात दिन।

अक्सर बेचैनियों के बादल छाते दिल के आकाश पर,
सुकून वही फिर दे जाते जिन्हे दिल ढूंढता रात दिन।

जीवन संघर्ष

जीवन तेरा नित संघर्षमय,
राहें तेरी अनवरत संघर्ष की,
धैर्य साहस से तू कर संघर्ष,
यही राह तेरे उत्कर्ष की।

शिखर पर आरूढ़ होने को,
चरमोत्कर्ष पर चढ़ जाने को,
निष्ठा लगन से तू कर संघर्ष,
यही पंथ तेरे निष्कर्ष की।

बाधाएँ फिर भी घेरेंगी तुझको,
तेरे अपने ही रोकेंगे तुझको,
अपनों से ही है तेरा संघर्ष,
यही संघर्ष तेरे मोक्ष की।

प्रभात आगमन

क्षितिज पर वसुधा के प्रांगण में,
किरणों नें है फिर खोली आँखे,
मुखरित हुए कोमल नव पल्लव,
विँहसते खग ने छेड़ी फिर तान।

कलियों के घूंघट लगे हैं खुलने,
पत्तियों पर बिखर ओस की बूंदें,
किरण संपुट संग लगे चमकने,
ये कौन रम रहा हिय फिर आन।

नभ-वसुधा के मिलन क्षोर पर,
क्षितिज निकट सागर कोर पर,
आभा रश्मि निखरी जादू सम,
सप्तरंग बिखरे नभ जल प्राण।

कलकल करते जल प्रपात के,
कलरव करते खग विहाग के,
जगमग करते रश्मि प्रभात के,
छेड़ रहे मदमस्त सुरीली गान।

Saturday 9 January 2016

एक जोगन या विरहन?


एक अधेर औरत!
शायद जोगन या विरहन?
नदी किनारे बैठी वर्षों से,
अपलक देखती धारों के उस पार,
आँखें हैं उसकी पथराई सी,
होंठ सूखे हुए कपड़े चीथड़े से,
पर बाल बिलकुल सँवरे से,
शायद उसे किसी के लौटने का,
अन्तहीन, अनथक इंतजार है।

हजारों आने-जाने वाले,
कई सिर्फ उसे देख गुजर जाते,
पर कोई उसे टोकता नही,
उसके अन्दर छुपे,
मर्म पीड़ा को सुनने समझने की,
शायद किसी को जरूरत नही।

इलाके में नया था मैं,
कुछ दिनों से रोज,
मैं देखता उसकी ओर
और आनेजाने वालों को भी,
अकुलाहट सी होती, कई प्रश्न उठते,
मन के अन्दर, फिर सोचता,
शायद मनुष्य के अन्दर इंसान,
या उसके जज्बात पूर्णतः मर चुके हैं!

इस उधेड़बुन में मैने सोचा,
क्युँ न मैं खुद पूछ लूँ,
उसकी व्यथा, पीड़ा, कहानी?

हिम्मत जुटाई खुद को तैयार किया,
उसके समीप जाकर ठहर गया,
अनायास ही वो मेरी ओर मुड़ी,
उसकी पथराई आँखें चौंध सी गई,
कई भाव एकसाथ उसके
चेहरे पर तैरने लगे थे,
जुबान अवरुद्ध थी उसकी,
सजल हो उठी थी आँखे,
मानो सारी व्यथा उसने कह दी थी,
और मेरी ओर एकटक देखी जा रही थी।

उसका मुख देख मै हतप्रभ था,
मेरी आँखों से आँसू के दो बूँद बह गए,
मेरी संवेदना समझ चुकी थी,
शायद उसके उपर दुखों का
भीषण सैलाब टूटा होगा कभी,
मर्माहत हुए होंगे उसके अरमान,
पर वो तो ज्जबातों को शब्द भी नही दे सकती!

जैसे तैसे अपने मन को काबू में कर,
मैंने उसे एक आश्रम मे छोड़ दिया था,
मैं समझ गया था शायद,
एक जोगन या विरहन ही है वो!
पर उसे थी जरूरत मानवीय संवेदना की!

कदमों के निशान

कभी सोचता!

जीवन में जो भी हासिल कर पाऊँ,
उनके निशान चंद छोड़ जाऊँ,
सागर तट मीलों चलता रहता,
निरंतर सोचता जाता बस यही,
साधता स्वार्थ सिर्फ अपनी,
लिखता रहता कर्मों के बही,
पर निश्छल चंचल सागर की लहरें,
धो जाती सब स्वार्थ के निशाँ,
ढूंढता वापस मुड़कर जब,
जीवन सागर तट यहाँ,
मिल पाते नही कदमों के निशाँ।

फिर सोचता!

बनते कब निशां कदमों के सागर किनारे,
अनवरत लहरे सागर की स्वयं,
निस्वार्थ करती रहती कार्य दिन रात,
और अपने ही हाथों पोछती रहती,
निरंतर अपने कदमो के निशान।

फिर खुद से कहता!

जीवन की राहें मिलती हैं सागर से,
कटीली, पथरीली रास्तों में चलकर,
पथ जीवन की कहाँ सुरीली प्यारे,
तू इन पत्थरों पर नित हो अग्रसर,
मानव कल्यान को ध्येय बनाकर,
करता जा कर्म तू निःस्वार्थ निरंतर,
बनते जाएंगे खुद ही तेरे पीछे,
अमिट तेरे कदमों के निशाँ प्यारे।

झुरमुट के तले

झुरमुट के तले साए में बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

राहें रुबड़ खाबर,
नित् नई चिन्ताएँ,
न पीछे की बूझ,
न आगे रहा कुछ सूझ,
घर छोड़ा था क्या सोंचकर,
यह भी याद नहीं अब,
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

बिटिया बड़ी हो गई होगी,
शायद हाथ पीले होंगे अब करने,
माँ भी अब दिखती होगी बूढ़ी,
कब वापस जा पाऊँगा?
क्या उन्हें फिर देख पाऊँगा?
जिम्मेवारियों की लगी है फेहरिस्त,
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

लक्ष्य क्या था इस जीवन का?
लक्ष्य क्या साधा है मैंने?
दोनों मे इतनी क्युँ विषमता?
कल जो हैं मुझे करने,
क्या है वो मेरी विवशता?
भविष्य कहाँ ले जाए मुझको?
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

पल जीवन के हैं अनिश्चित,
पर लक्ष्य सभी करने सुनिश्चित,
एहसानों का है बोझ प्रबल,
दायित्व इनके आगे निर्बल,
मार्ग सही क्या चुना है मैंने?
क्या इस राह सध पाएंगे दोनो?
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

तृष्णा

तृष्णा,ख्वाहिशें,हसरतें,चाहतें अनेक,
दिल, मन, प्राण जीवन बस एक।

अभिलाषा उत्कंठा के असंख्य कण,
चिर यौवन हो उठते मन में हर क्षण। 

आकांक्षाए वश में नही मानव की,
इच्छाएँ प्रबल  गगण भेद देने की।

श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम करने की आकांक्षा,
सुन्दर से सुन्दरतम पाने की ईच्छा।

ऊँचाई के शिखर छू लेने की तमन्ना,
विहंगम नव सृष्टि रचने की कामना।

ब्रम्ह के परे पहुँचनेे की मनोकामना,
क्या तृप्त होगी कभी मानव की तृष्णा?

ममता

ममता माता के कोख से जन्मी,
प्रसव पीड़ा संग उर लहलहाई,
नवजीवन के आहट संग उपजी,
वात्सल्य के आँसू बन बिखरी।

भाव दुलार मधुर वात्सल्य ,
मिलते ममता की गाँव में,
लालन पालन लाड़ प्यार,
सब ममता की छाँव में।

फलिभूत होता जीवन कण,
सुरभित ममता के अाँचल संग,
ममता वसुधा के कण-कण,
पुचकारती जनजन के मन।

सुख कल्पना नहीं ममता बिन,
राग विहाग नही ममता बिन,
नित सू्र्यालाप नही ममता बिन,
सृष्टि अधूरी ममता बिन।

Friday 8 January 2016

पल वापस मिल गए


वो एक पल!
हर पल वो लम्हा,
आँसुओं में भीगे वो पल,
तुमने जब छोड़ा था दामन,
लम्हे रीत गए सदियों बीत गए,
वो एक पल कभी बीता ही नहीं।

उस पल की उदासी,
आँखों की भीगी पलकें,
लबों पे लरजते अल्फाज,
मन के अंदर तुफानों के भँवर,
वो एक पल कभी बीता ही नहीं।

पर ये क्या इस पल?
इक चेहरे में दिखता तेरा नूर,
आँखों मे दिखती फिर वही प्यास,
बातों मे उसकी मिलती वही मिठास,
हाँ, वो एक पल वापस मिल गए हैं मुझे।