क्षितिज पर वसुधा के प्रांगण में,
किरणों नें है फिर खोली आँखे,
मुखरित हुए कोमल नव पल्लव,
विँहसते खग ने छेड़ी फिर तान।
कलियों के घूंघट लगे हैं खुलने,
पत्तियों पर बिखर ओस की बूंदें,
किरण संपुट संग लगे चमकने,
ये कौन रम रहा हिय फिर आन।
नभ-वसुधा के मिलन क्षोर पर,
क्षितिज निकट सागर कोर पर,
आभा रश्मि निखरी जादू सम,
सप्तरंग बिखरे नभ जल प्राण।
कलकल करते जल प्रपात के,
कलरव करते खग विहाग के,
जगमग करते रश्मि प्रभात के,
छेड़ रहे मदमस्त सुरीली गान।
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