Sunday 10 January 2016

इन्द्रधनुष: धुन और रंग

सोंचता हूँ कभी!

किसने सीमित की?
जीवन के विविध धुनों को,
सात अारोह-अवरोह के स्वरो.....
सा, रे, ग, म, प, ध नी, सा,....में,
किसने कोशिश की जीवन धुन को 
परिमित करने की?
जीवन के धुन तो हैं अपरिमित,
संभव नही कर पाना,
इनकी जटिलताओं को सीमित!

सोंचता हूँ कभी!

किसने सीमित की
जीवन के विविध रंगों को,
इन्द्रधनुष के सात रंगों......
बै, नी, आ, ह, पी, ना, ला....,में,
किसने कोशिश की जीवन रंग को 
सीमित करने की?
जीवन के रंग तो हैं असीमित,
संभव नही कर पाना,
इनकी विविधताओं को सीमित!

सोंचता हूँ कभी! जीवन के रंग, धुन तो हैं अनंत!

दर्द की दास्तान

चौराहे पर गाड़ियों की कतार में,
रुकी मेरी कार के शीशे से,
फिर झांकती वही उदास आँखें!

जानें कितनी कहानियाँ,
हैं उन आँखो मे समाई,
कितने दर्द उन लबों पर सिले,
चेहरों की अनगिनत झुर्रियों मे,
असंख्य दु:ख के पलों के एहसास समेटे,
झुकी हुई कमर दुनिया भर के बोझ से दबी,
तन पर मैले फटे से कपड़े,
मुश्किल से बदन ढकने को काफी,
हाथों मे लाठी का सहारा लिए,
किसी तरह कटोरा पकड़े,
कहती, "कुछ दे दो बाबू"!

तभी हरी सिग्नल देख,
चल पड़ती गाड़ियों के कारवाँ,
मैं भौचक्का सा!
उसे देखता रह जाता!
फिर पीछे से तेज हार्न में,
मैं भी आगे बढ़ जाने को विवश!

पर मन में उठते कई प्रश्न,
क्या इंसान की कीमत सिर्फ इतनी?
क्या अभाव मे बुजुर्ग हो जाना है गुनाह?
क्या हम इतने भावविहीन हो चुके है?
समाज के प्रति हमारी संवेदना कहाँ है?
क्या मेरा व्यक्तिगत प्रयास काफी होगा?

सोचता मैं बढ़ जाता आगे,
पर अगले चौराहे पर देखता,
झांकती फिर वैसी ही उदास आँखें!
जीवन के दर्द की दूसरी दास्तान समेटे!
फफक-फफक कर रो पड़ता मन,
उनकी मदद कर पाने में,
खुद को असह्य अक्षम पाकर।

सूर्य नमन

नमन आलिंगन नव प्रभात, 
हे रश्मि किरण तुम्हारा,
खुद अग्नि मे हो भस्म,
तम हरती करती उजियारा।

जनकल्यान परोपकार हेतु
पल-पल भस्म तू होती,
ज्वाला ज्यों-ज्यों तेज होती,
प्रखर होती तेरी ज्योति ।

विश्व मे पूजित हो पाने का,
अवश्यमभावी मंत्र यही है,
निष्काम्-निःस्वार्थ परसेवा,
जीवन का आधार यही है।

सीख सभ्यता को नितदिन,
तू देता निःशुल्क महान,
परमार्थ कार्य तू भी सीख,
मानव हो जगत कल्याण।

दिल ढूंढता

फुर्सत के क्षण मन बेचैन, बेचैनियों से फुर्सत कहाँ,
दिल क्युँ ढूंढता फिर वही, बेचैन लम्हों के रात दिन।

तलाश जिस सुकून की मिलती वो इन बेचैनियों मे,
लम्हात उन्ही मुफलिसी के दिल ढूंढता रहता रात दिन।

अक्सर बेचैनियों के बादल छाते दिल के आकाश पर,
सुकून वही फिर दे जाते जिन्हे दिल ढूंढता रात दिन।

जीवन संघर्ष

जीवन तेरा नित संघर्षमय,
राहें तेरी अनवरत संघर्ष की,
धैर्य साहस से तू कर संघर्ष,
यही राह तेरे उत्कर्ष की।

शिखर पर आरूढ़ होने को,
चरमोत्कर्ष पर चढ़ जाने को,
निष्ठा लगन से तू कर संघर्ष,
यही पंथ तेरे निष्कर्ष की।

बाधाएँ फिर भी घेरेंगी तुझको,
तेरे अपने ही रोकेंगे तुझको,
अपनों से ही है तेरा संघर्ष,
यही संघर्ष तेरे मोक्ष की।

प्रभात आगमन

क्षितिज पर वसुधा के प्रांगण में,
किरणों नें है फिर खोली आँखे,
मुखरित हुए कोमल नव पल्लव,
विँहसते खग ने छेड़ी फिर तान।

कलियों के घूंघट लगे हैं खुलने,
पत्तियों पर बिखर ओस की बूंदें,
किरण संपुट संग लगे चमकने,
ये कौन रम रहा हिय फिर आन।

नभ-वसुधा के मिलन क्षोर पर,
क्षितिज निकट सागर कोर पर,
आभा रश्मि निखरी जादू सम,
सप्तरंग बिखरे नभ जल प्राण।

कलकल करते जल प्रपात के,
कलरव करते खग विहाग के,
जगमग करते रश्मि प्रभात के,
छेड़ रहे मदमस्त सुरीली गान।

Saturday 9 January 2016

एक जोगन या विरहन?


एक अधेर औरत!
शायद जोगन या विरहन?
नदी किनारे बैठी वर्षों से,
अपलक देखती धारों के उस पार,
आँखें हैं उसकी पथराई सी,
होंठ सूखे हुए कपड़े चीथड़े से,
पर बाल बिलकुल सँवरे से,
शायद उसे किसी के लौटने का,
अन्तहीन, अनथक इंतजार है।

हजारों आने-जाने वाले,
कई सिर्फ उसे देख गुजर जाते,
पर कोई उसे टोकता नही,
उसके अन्दर छुपे,
मर्म पीड़ा को सुनने समझने की,
शायद किसी को जरूरत नही।

इलाके में नया था मैं,
कुछ दिनों से रोज,
मैं देखता उसकी ओर
और आनेजाने वालों को भी,
अकुलाहट सी होती, कई प्रश्न उठते,
मन के अन्दर, फिर सोचता,
शायद मनुष्य के अन्दर इंसान,
या उसके जज्बात पूर्णतः मर चुके हैं!

इस उधेड़बुन में मैने सोचा,
क्युँ न मैं खुद पूछ लूँ,
उसकी व्यथा, पीड़ा, कहानी?

हिम्मत जुटाई खुद को तैयार किया,
उसके समीप जाकर ठहर गया,
अनायास ही वो मेरी ओर मुड़ी,
उसकी पथराई आँखें चौंध सी गई,
कई भाव एकसाथ उसके
चेहरे पर तैरने लगे थे,
जुबान अवरुद्ध थी उसकी,
सजल हो उठी थी आँखे,
मानो सारी व्यथा उसने कह दी थी,
और मेरी ओर एकटक देखी जा रही थी।

उसका मुख देख मै हतप्रभ था,
मेरी आँखों से आँसू के दो बूँद बह गए,
मेरी संवेदना समझ चुकी थी,
शायद उसके उपर दुखों का
भीषण सैलाब टूटा होगा कभी,
मर्माहत हुए होंगे उसके अरमान,
पर वो तो ज्जबातों को शब्द भी नही दे सकती!

जैसे तैसे अपने मन को काबू में कर,
मैंने उसे एक आश्रम मे छोड़ दिया था,
मैं समझ गया था शायद,
एक जोगन या विरहन ही है वो!
पर उसे थी जरूरत मानवीय संवेदना की!

कदमों के निशान

कभी सोचता!

जीवन में जो भी हासिल कर पाऊँ,
उनके निशान चंद छोड़ जाऊँ,
सागर तट मीलों चलता रहता,
निरंतर सोचता जाता बस यही,
साधता स्वार्थ सिर्फ अपनी,
लिखता रहता कर्मों के बही,
पर निश्छल चंचल सागर की लहरें,
धो जाती सब स्वार्थ के निशाँ,
ढूंढता वापस मुड़कर जब,
जीवन सागर तट यहाँ,
मिल पाते नही कदमों के निशाँ।

फिर सोचता!

बनते कब निशां कदमों के सागर किनारे,
अनवरत लहरे सागर की स्वयं,
निस्वार्थ करती रहती कार्य दिन रात,
और अपने ही हाथों पोछती रहती,
निरंतर अपने कदमो के निशान।

फिर खुद से कहता!

जीवन की राहें मिलती हैं सागर से,
कटीली, पथरीली रास्तों में चलकर,
पथ जीवन की कहाँ सुरीली प्यारे,
तू इन पत्थरों पर नित हो अग्रसर,
मानव कल्यान को ध्येय बनाकर,
करता जा कर्म तू निःस्वार्थ निरंतर,
बनते जाएंगे खुद ही तेरे पीछे,
अमिट तेरे कदमों के निशाँ प्यारे।

झुरमुट के तले

झुरमुट के तले साए में बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

राहें रुबड़ खाबर,
नित् नई चिन्ताएँ,
न पीछे की बूझ,
न आगे रहा कुछ सूझ,
घर छोड़ा था क्या सोंचकर,
यह भी याद नहीं अब,
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

बिटिया बड़ी हो गई होगी,
शायद हाथ पीले होंगे अब करने,
माँ भी अब दिखती होगी बूढ़ी,
कब वापस जा पाऊँगा?
क्या उन्हें फिर देख पाऊँगा?
जिम्मेवारियों की लगी है फेहरिस्त,
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

लक्ष्य क्या था इस जीवन का?
लक्ष्य क्या साधा है मैंने?
दोनों मे इतनी क्युँ विषमता?
कल जो हैं मुझे करने,
क्या है वो मेरी विवशता?
भविष्य कहाँ ले जाए मुझको?
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

पल जीवन के हैं अनिश्चित,
पर लक्ष्य सभी करने सुनिश्चित,
एहसानों का है बोझ प्रबल,
दायित्व इनके आगे निर्बल,
मार्ग सही क्या चुना है मैंने?
क्या इस राह सध पाएंगे दोनो?
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

तृष्णा

तृष्णा,ख्वाहिशें,हसरतें,चाहतें अनेक,
दिल, मन, प्राण जीवन बस एक।

अभिलाषा उत्कंठा के असंख्य कण,
चिर यौवन हो उठते मन में हर क्षण। 

आकांक्षाए वश में नही मानव की,
इच्छाएँ प्रबल  गगण भेद देने की।

श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम करने की आकांक्षा,
सुन्दर से सुन्दरतम पाने की ईच्छा।

ऊँचाई के शिखर छू लेने की तमन्ना,
विहंगम नव सृष्टि रचने की कामना।

ब्रम्ह के परे पहुँचनेे की मनोकामना,
क्या तृप्त होगी कभी मानव की तृष्णा?