Wednesday 20 January 2016

लक्ष्य

क्या लक्ष्य तेरा कहीं भटक चुका है?

साथ चला तू,
जिसे लेकर जीवन भर,
जिसकी फिक्र तू,
करता रहा सारी उमर,
वह मात्र स्थुल शरीर नहीं हो सकता?

क्या मार्ग तेरा गलत दिशा मुड़ चुका है?

तेरी चिन्ता तो,
तेरी काया के भी परे है,
पर भटकता तू,
सदा भौतिक सुख के पीछे है!
यश कीर्ति कहाँ रही तेरी प्राथमिकता?

क्या जीवन तेरा कहीं पर खो चुका है?

नभ पर तू,
ऊँचा उड़ता गिद्ध को देख,
उस ऊचाई पे,
उसे अहम के वहम ने है घेरा,
क्या कर्म उसके दे पाएगी उसे प्रभुसत्ता?

क्या कर्म पथ तेरा कहीं भटक चुका है?

पतवार जीवन का

खे रहा पतवार जीवन का,
चल रहा तू किस पथ निरंतर,
अनिश्चित रास्तों पर तू दामन धैर्य का धर,
है पहुँचना तुझे उस कठिन लक्ष्‍य पर।

देख बाधाएँ सम्मुख विकट,
छोडना़ मत पतवार तुम,
निश्चित होकर तू अपना कर्म कर,
कर्म तेरा तुझको ले जाएगा लक्ष्य पर।

अनिश्चित सदा ही कर्म फल,
पर कर्म से यदि रहा यह पथ वंचित,
हो न पाएगा यश तेरा संचित,
धैर्य तेरा ले जाएगा तुझे उस लक्ष्य पर।

निशान कठिन रास्तों के भी,
मिलते नही लक्ष्य शिखर पर कभी,
तू बचा सका गर अपना अस्तित्‍व,
मिल जाएगा अपनत्‍व तुझे उस लक्ष्य पर।

जोगन और बटोही

युगों से द्वार खड़ी वाट जोहती वटोही का वो!

शायद भूल चुका वादा अपना चितचोर वो वटोही,
मुड़कर वापस अबतक वो क्युँ ना आया?
यही सोचती वो जोगन वाट जोहती!

वो निष्ठुर हृदय उसको तनिक भी दया न आई,
मैं अबला उसने मेरी ही क्युँ चित चुराई?
चित चुराने ही आया था वो सोचती!

फिर सोचती! होगी कोई मजबूरी उसकी भी,
चितचोर नही हो सकता मेरा परदेशी!
समझाती मन को फिर राह देखती!

मेरे विश्वास का संबल बसता हिय उस परदेशी के,
बल मेरे संबल का क्या इतना दुर्बल?
वाट जोहती जोगन रहती सोचती!

भाग्य रेखा मेरे ही हाथों की है शायद कमजोर,
कर नही पाती मदद जो ये मेरे प्रीतम की,
बार-बार अपने मन को समझाती!

अब तो बाल भी सफेद हो गए आँखें कमजोर,
क्या मेरा वटोही अब देखेगा मेरी ओर?
झुर्रियों को देख अपनी सिहर जाती!

युगों तक बस वाट जोहती रही उस वटोही का वो!

जोगन की विश्वास का संबल दे गया अथाह खुशी,
वक्त की धूंध से वापस लौट आया वो परदेशी!
अश्रुपूर्ण आखें एकटक रह गई खुली सी।

हिय लगाया उस जोगन को काँपता वो परदेशी,
व्यथा जीवन सारी आँखों से उसने कह दी,
निष्ठुर नहीं किश्मत का मारा था वो वटोही!

खिल उठी विरहन सार्थक उसकी तपस्याा हुई!
युगों युगों तक फिर वो जोगन, उस वटोही की हो गई।

अब सोचती! मेरा प्रीतम चितचोर था, पर निष्ठुर नही!


Tuesday 19 January 2016

निशा स्नेह निमंत्रण

निशा रजनी फिर से खिल आई,
कोटि दीप जल करती अगुवाई,
कीट-पतंगें उड़ती भर तरुणाई।

खिल उठेे मुखमंडल रात्रिचर के
अदभुत छटा छाई नभमंडल पे,
गूंज उठी रात्रि  स्वर कंपन से।

झिंगुर, शलभ, कीट, पतंगे  गाते,
विविध नृत्य कलाओं से मदमाते,
आहुति दे अपनी उत्सव मनाते।

नववधु अातुर निशा निमंत्रण को,
सप्तश्रृंगार कर बैठी आमंत्रण को,
हृदय धड़कते नव गीत गाने को ।

स्नेह की बूँद निशा ने भी बरसाए,
मखमली शीत की चादर बिछाए,
 स्नेहिल मदिरा मकरंद सी मदमाए।

रंग

रंग असंख्य जीवन की बगिया के, 
                      चटक रहे कुछ ऐसे घुल मिल के,
अद्भुद  छटा  की  सुंदर आभा से, 
                        पुलकित कर जाते प्राण हृदय के।

 चमकीले रंगों मे ही छिपा है जीवन, 
                      कुछ लुभावने रंग  तुम भी चुन लो,
सराबोर कर दो तुम इनमे खुद को 
                       मनचाहे रंगो से तुम जग को रंग दो।

जब खुद को तुम पूरा खोल पाओगे, 
                      इन रंगो सा तुम भी निखर जाओगे,
जीवन नाचती गाती इर्द-गिर्द पाओगे,
                         मतलब होली का तब समझ पाओगे।

विविध  स्वरूप  रंगों के  खिल आते, 
                        जब रंग अनेक अापस में मिल जाते, 
सराबोर करने की लग जाती है होड़, 
                         तू ले चल मुझे भी उन रंगों की ओर।

मुझे सींचकर तुम क्या पाओगे?

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हूँ संवेदनाओं का,
रख दी गई है जो समेट उस कोने में,
व्यर्थ गई भावनाएँ मन को समझाने में।
बन चुका बस एक फसाना बेगाने में।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हुँ अरमानों का,
साँस छूट चुके है जिनके घुट-घुट के,
छुपा दी गई जिन्हे पीछे उस झुरमुट के,
कुछ मोल नहीं इन निश्छल जज्बातों के।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हूँ कल्पनाओं का,
असंख्य तार टूट चुके हैं कल्पनाओं के,
गुजरेगी अब कैसे कंपन वेदनाओं के,
मृत हो चुके हैं संभावना संवेदनाओं के।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

पनिहारिन की पीड़ा

इक भोली विरहन पनिहारिन,
पनघट तट पनिया भरन के बहाने,
कहती पीड़ा अपने मन की।

आयो नाही अबकी बरस अब तक पिया,
बितत ना बिताई अब दिन रतिया, 
कासे कहुँ पीड़ा अब मन की।

बबलु मुनिया के समझाऊँ दिन रतिया,
बाबुजी गइल विदेश हे बचवा,
व्यथा बचल बस अब मन की।

सास ससुर भइले अब बिलकुल अक्षम,
सुझत नही अब कुछ अँखियाँ,
बोझ बहुत बढ़ गईल जीवन की।

अबकी बरस जल्दी आ जा पिया जी,
पनिहारिन के तनिक समझी व्यथा,
साथ निभा जा अब आंगन की।

बवंडर व्योम का

बवंडर सा आज उठ रहा व्योम मे क्युँ,
क्या खो गई है सहनशीलता व्योम की,
या फिर टूट गए इसके तार धीरज के।

रूह बादलों के आज काप उठे हैं क्युँ,
क्युँ अनन्त के हृदय मची चक्रवात सी,
नभ ने छोड़ दिए क्या हाथ धीरज के।

पाप व्योम में पसर गयी है पीड़ा बन ज्यों,
रो रहा मन व्योम का कोलाहल करता यूँ,
अश्रुवर्षा करते काले घन साथ नीरव के।

ये बवंडर व्योम के पीड़ा की प्रकटीकरण,
चक्रवात बादलो के व्यथा की स्पष्टीकरण,
चलने दे आँधियाँ कुछ तम छटे जीवन की।

Monday 18 January 2016

कोमल हृदय

दो निश्छल हृदय, नन्हे कोमल से,
मिल रहे वसुधा की हरियाली पर,
मन मष्तिष्क हैं अनन्त कल्पनाएँ,
कह देना चाहे बातें सारी मन की!

संवेदनाएँ बेजुवाँ असंख्य नन्हे से,
हृदय अनुभूति प्रकट करें तो कैसे,
निश्छल मन आस पलती नन्ही सी,
चल बैठ यहीं कर ले अपने मन की!

कुछ  तुम अपने  मन की कह लेना,
कुछ मैं अपने मन की भी कह लूँगा,
मतलब इन बातों का कोई हो ना हो,
इन बातों मे ही खुशियाँ जीवन की!

नन्हे हृदय की संवेदना ही एक भाषा,
कोमल मन की निष्कपट अभिलाषा,
दुविधाओं शंकाओं से परे निर्मल मन,
बस यही है मंत्र भावमयी जीवन की।

टूटा हृदय

अश्रुओं की अविरल मुक्त धार से अपनी,
अब क्युँ रोक रही हो राह उसकी?
मंडराते बादलों की तरह टूटा है हृदय उसका,
अश्रुबूँद क्या भर सकेंगे घाव उसकी?

टूटा हृदय बादलों सा नभ में व्याकुल मंडराता,
गर्जना कर व्यथा अपनी सबको सुनाता,
चीर जाती पीड़ा उसकी हृदय व्योम के भी,
निष्ठुर तुझे न आयी क्या दया जरा भी?

अब व्यर्थ किसलिए तुम पश्चाताप करती,
आँसुओं के सैलाब क्युँ बरबाद करती,
प्यास हृदय की बुझ चुकी खुद की आँसुओं से ही,
शेष बरस रहे अब झमाझम बारिश की बुंदों सी।