Wednesday 17 February 2016

देश की दुर्दशा

चैतन्य चित्त का चंचल चेतक,
हिनहिना रहा आज चित्त के भीतर,
आकुल प्राण आज उस कर्मवीर के ,
सहम रहा देश की विवशता पर।

चेतक है वो जानता कर्म करना,
निष्ठा कर्म की रक्षा में सर्वस्व झौंकना,
सजल हुए नैन आज उस चेतक के,
रो रहा देश की बिखरती दशा पर।

जान न्योछावर की थी उस चेतक ने,
अपनी राणा और मेवाड़ की अधिरक्षा मे,
चैतन्य चित्त चिंतित आज उस चेतक के,
हिनहिनाता देश की दुर्दशा पर।

सूखा पत्ता


गिरा डाल से टूट कर इक सूखा पत्ता,
अस्तित्व अपने बिंब की तलाशता वो सूखा पत्ता!

जीता था जिन्दगी कभी वो झूमकर,
कोमल मृदुल एहसास सासों में लेकर, 
हौसले बुलंद उमड़ते अरंमानों पे चढ़कर,
झंझावात आँधियों की चली ये कैसी,
टूटकर डाली से बिखरा वो पत्ता।

अस्तित्व अपने बिंब की तलाशता वो सूखा पत्ता!

बिछड़ गया वो अपने प्रियतम से,
क्षुधा प्यास पिपास मिटती थी जिससे,
जीवन की अटूट गाँठ जुड़ी थी जिस वृक्ष से,
रो रहा शायद मन आज उस वृक्ष का भी,
प्रीत की डोर टूटी थी उस पत्ते की।

गिरा डाल से टूट कर वो सूखा पत्ता,
अस्तित्व अपने बिंब की तलाशता वो सूखा पत्ता!

अनबुझी प्यास

अंकुरित अभिलाषा पलते एहसास,
अनुत्तिरत अनुभूतियाँ ये कैसी प्यास?

अन्तर्द्वन्द अन्तर्मन अंतहीन विश्वास,
क्षणभंगूर निमंत्रण क्षणिक क्या प्यास?

पिघलते दरमियाँ छलकते आकाश,
अनकहे निःस्तब्ध जज्बात कैसी मौन प्यास?

अमरत्व अभिलाषा स्मृति अविनाश,
अंकुरित अनुभूति अनुत्तरित अनबुझी प्यास?

उम्मीद की शाख

नाउम्मीद कहाँ वो, उम्मीद की शाख पर बैठा अब भी वो।

एक उम्मीद लिए बैठा वो मन में,
दीदार-ए- तसव्वुर में न जाने किसके,
हसरतें हजार उस दिल की,
ख्वाहिशें सपने रंगीन सजाने की।

एक प्यासा उम्मीद पल रहा वहाँ,
तड़पते छलकते जज्बात हृदय में लिए,
नश्तर नासूर बने उस दिल की,
हसरतें पतंगों सी प्रीत निभाने की।

एक उम्मीद विवश बेचैन वहाँ,
झंझावात सी अनकही अनुभूतियाँ मन में लिए,
निःस्तब्ध पुकार दिल मे उसकी,
चाह सिसकी की प्रतिध्वनि सुनाने की।

नाउम्मीद कहाँ वो, एक उम्मीद लिए बैठा अब भी वो।

पानी की लकीरों से कब तकदीर बनता है!

जीवन के चलने में खुद जीवन ही घिसता है,
घिस घिस कर ही पत्थर नायाब हीरा बनता है,
पिट पिट कर ही साज मधुर धुनों में बजता हैं।

सभ्यता महान बनने में एक-एक युग कटता है,
बूंद-बूंद जल मिलकर ही सागर अपार बनता है,
पल-पल खुद में जलकर समय अनन्त बनता है।

कूट-कूट कर ही पत्थर शिलालेख बनता है,
तिल तिल जलकर मोम रौशन चराग बनता है,
पानी की लकीरों से कब कहाँ तकदीर बनता है?

जीवन के चलने मे खुद जीवन ही घिसता है।

Tuesday 16 February 2016

जब जब तुम मिले

सांझ ढ़ले सुरमई बातों के सिलसिले,
मधुमई आवाज की उन गाँवों में हम चले,
चाँद मे नहाई सी रात अब साथ ढ़ले।

रात ढ़ले छुईमुई सी यादों के सिलसिले,
अन्तस्थ हृदय की उन धड़कनों से हम मिले,
अन्तर में कुम्हलाई सी अब याद ढ़ले।

जीवनदीप ढ़ले मधुमई यादों के सिलसिले,
मधुप्रीत की इस नैया मे तुम संग कुछ देर चले,
मनप्रांगण खिल आई जब जब तुम मिले।

बसंत ने ली अंगड़ाई

अंजुरी भर भर अाम रसीली मंजराई,
वसुधा के कणकण पर छाई तरुनाई,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।

रूप अतिरंजित कली कली मुस्काई,
प्रस्फुटित कलियों के सम्पुट मदमाई,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।

कूक कोयल की संगीत नई भर लाई,
मंत्रमुग्ध होकर भौंरे भन-भन बौराए,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।

Monday 15 February 2016

बिखरी जुल्फे

अगर वो कहें तो उनकी बिखरी लटे मैं सँवार दूँ,
झुकी हुई सी यें पलकें,जरा इनको निहार लूँ,
मद्धिम पड़ रही है चांदनी, रौशन चराग कर लूँ।

रूप उस साँवरी का अभी, जी भर के देखा नही,
अंधेरों मे अब जिन्दगी ढलती जा रही यूँहीं,
चेहरे से जुल्फें हटा दूँ, रातो मे रौशनी भर लूँ।

जज्बातों की आँधियाँ उठ रही हैं यहाँ अभी,
मुझको संभाल लो, मैं आज वश में नही,
चेहरों से उठा दूँ नकाब, रौशन अरमान कर लूँ।

पत्ते डालियों के है हरे, सूखे अभी तक ये नही,
चढ़ान पर उम्र है जिन्दगी अभी रुकी नही,
निहारता रहूँ तेरा चेहरा, संग तमाम उम्र चल लूँ।

स्वर्ण सम बालूकण

हे मानव, इस जीवन मरु मे स्वर्णकण सम निखरो तुम।

स्वर्णकण सी चमक रही, बालूकण मरुस्थल के,
कड़कती तेज प्रखर धूप ज्वाला में जल जल के।
हे मानव, जीवनमरु में बालू सम निखरो जल के।

अकित हुई मरुस्थल स्वर्ण सी बालू की आभा में,
शोभित हो कर बिखर रहे स्वर्णकण चहु दिशा में,
हे मानव, स्वर्णकण सी बिखरो जीवन की राहों में।

उठी वेग से आंधी, धूलकण बिखरी स्वर्णकण बन,
बरस रही फेनिल स्वर्ण सी, उड़उड़ कर बालूकण।
हे मानव, तुम उड़ो मरूजीवन के स्वर्णकणों सम।

हे मानव, इस जीवन मरु मे स्वर्णकण सम निखरो तुम।

कठिन परिभाषा जीवन की

मान लो मेरी, परिभाषा बड़ी कठिन इस जीवन की!

बोझ लिए सीधा चलना सधे पैरों भी है भारी,
प्राणों का यह विचलन, सबल मन पर भी है भारी,
मौन वेदणा सहता सहनशील मानव इस जीवन की।

हिलते मिलते थे जीवन कभी एक डाल पे,
भार असह्य बोझ की थी उस निर्बल डाल पे,
कल्पना नहीं टूटेगी कभी, बोझ से डाली जीवन की

जिज्ञासा सशंकित आँखों में भविष्य की,
कुहासा छटती नही, जीवन के इस फलक की,
परिभाषा हो चुकी कठिन, इस उलझी जीवन की।

मान लो मेरी, परीक्षा लेता वो बड़ी कठिन जीवन की!