Tuesday 7 November 2017

वापी

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

अंतःसलिल हो जहाँ के तट,
सूखी न हो रेत जहाँ की,
गहरी सी हो वो वापी, हो मीठी सी आब जहाँ की।

दीड घुमाऊँ मैं जिस भी ओर,
हो चहुँदिश नीवड़ जीवन का शोर,
मन के क्लेश धुल जाए, हो ऐसी ही आब जहाँ की।

वापी जहाँ थिरता हो धीरज,
अंतःकीचड़ खिलते हों जहाँ जलज,
मन को शीतल कर दे, ऐसी खार हो आब जहाँ की।

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

ऐ नाविक, रोको मत,
तुम खुद बयार बन पाल भरो,
बह जाने दो इस वापी में, मनमाफिक है आब यहाँ की।

Monday 6 November 2017

रूबरू

रूबरू मिल गए, गर वो किसी मोड़ पर तो!

लौट आओ तुम मिन्नतें हम करेंगे,
हैं कितनी बातें अधूरी, मुलाकातें जरूरी,
टूटे ख्वाबों को हम, फिर से जोड़ लेंगे,
रख लेंगे, सहेज कर वो यादों के पल हम,
उसी मोड़ से उनको घर ले चलेंगे.....

रूबरू मिल गए, गर वो किसी मोड़ पर तो!

फिर साँसों के बंधन हम जोड़ लेंगे,
खफा होकर क्यूँ, मुझसे गए दूर थे वो?
रश्म-ए-वफा हम उनसे पूछ लेंगे,
बांध लेंगे, वादों की जंजीर से खुद को हम,
सजदे वफा उसी मोड़ पर करेंगे....

रूबरू मिल गए, गर वो किसी मोड़ पर तो!

यूँ तन्हाई से नाता, हम तोड़ देंगे,
खाईं थी हमने, न जीने की जो कसमें,
कसम के वो सारे भरम तोड़ देंगे,
जी लेंगे, बस पल दो पल उसी मोड़ पे हम,
उसी मोड़ पे हम दम तोड़ देंगे....

रूबरू मिल गए, गर वो किसी मोड़ पर तो!
लौट आओ तुम, हम यही कहते रहेंगे।

Sunday 5 November 2017

मेरे पल

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

युँ ही उलझ पड़े मुझसे कल सवेरे-सवेरे,
वर्षों ये चुप थे या अंतर्मुखी थे?
संग मेरे खुश थे या मुझ से ही दुखी थे?
सदा मेरे ही होकर क्युँ मुझ से लड़े थे?
सवालों में थे ये अब मुझको ही घेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

सालों तलक शायद था अनभिज्ञ मैं इनसे,
वो पल मुझ संग यूँ जिया भी तो कैसे?
किस बात पर वो इतना दुखी था?
मैं तो हर उस पल में सदा ही सुखी था!
उलझन बड़ी थी अब सामने मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

दबे पाँव देखा टटोलकर उस पल को मैंने,
नब्ज चल रही थी मगर हौले-हौले,
व्याप्त सूनापन, जैसे सुधि कोई ना ले,
रिक्तियों से पूर्ण विरानियों में वो रहा था!
तन्हा ही रहा हरपल वो संग मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

झकझोर कर रख दिया था उस पल ने मुझे,
टूटी थी तन्द्रा, अवाक् रह गया था मैं,
था स्वार्थी मैं, निस्वार्थ थी उसकी लगन,
झुंझलाहट में उसके भेद ये खुल चुका था!
फिर भी सहमा सा सामने था वो मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

Saturday 4 November 2017

जलता दिल

राख! सभी हो जाते हैं जलकर यहाँ,
दिल ये है कि जला...
और उठा न कहीं भी धुँआ!

है जलने में क्या?
बैरी जग हुआ दिल जला!
चित्त चिढा,
मन को छला,
दिल जला!
कहीं आग न कहीं दिया, दिल यूँ ही बस जला!

ये धुआँ?
दिल में ही घुटता रहा,
घुट-घुट दिल जला,
बैरी खुद से हुआ,
दिल को छला,
उठता कैसे फिर धुआँ, दिल के अन्दर ये घुला!

राख ही सही!
पश्चाताप की भट्ठी पर चढा,
बस इक बार ही जला,
अंतःकरण खिला......
स्वरूप बदल निखरा,
धुआँ सा गगन में उड़ा, पुनर्जन्म लेकर खिला।

Friday 3 November 2017

स्नेह वृक्ष

बरस बीते, बीते अनगिनत पल कितने ही तेरे संग,
सदियाँ बीती, मौसम बदले........
अनदेखा सा कुछ अनवरत पाया है तुमसे,
हाँ ! ... हाँ! वो स्नेह ही है.....
बदला नही वो आज भी, बस बदला है स्नेह का रंग।

कभी चेहरे की शिकन से झलकता,
कभी नैनों की कोर से छलकता,
कभी मन की तड़प और संताप बन उभरता,
सुख में हँसी, दुख में विलाप करता,
मौसम बदले! पौध स्नेह का सदैव ही दिखा इक रंग ।

छूकर या फिर दूर ही रहकर!
अन्तर्मन के घेरे में मूक सायों सी सिमटकर,
हवाओं में इक एहसास सा बिखरकर,
साँसों मे खुश्बू सी बन कर,
स्नेह का आँचल लिए, सदा ही दिखती हो तुम संग।

अमूल्य, अनमोल है यह स्नेह तेरा,
दूँ तुझको मैं बदले में क्या? 
तेरा है सबकुछ, मेरा कुछ भी तो अब रहा ना मेरा,
इक मैं हूँ, समर्पित कण-कण तुझको,
भाव समर्पण के ना बदलेंगे, बदलते मौसम के संग।

है सौदा यह, नेह के लेन-देन का,
नेह निभाने में हो तुम माहिर,
स्नेह पात लुटा, वृक्ष विशाल बने तुम नेह का,
छाया देती है जो हरपल,
अक्षुण्ह स्नेह ये तेरा, क्या बदलेगा मौसम के संग?

Thursday 2 November 2017

हमसफर

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

राह में गर काँटे तुमको मिले अगर,
शूल पथ में हो हजार, बिछे हों राह में पत्थर,
तुम राहों में चलना दामन मेरा थामकर,
खिल आएंगे काँटों में फूल, साथ तुम दो अगर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

हो राहों में गर कहीं अंधेरा घना सा,
गर कोहरों में कहीं गुम हो जाए ये रास्ता,
ये दामन भरोसे से तुम थामे रखना,
जल उठेंगे सौ दिए, इन अंधेरों को चीरकर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

हो कहीं, छोटा सा इक आशियाँ,
बसाएंगे वहीं अपना, हम सपनों का जहाँ,
बिछड़े ना कभी हम ऐ मेरे हमनवाँ,
आँगन में बस गूंजे खुशी, हो न गम का बसर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

Monday 30 October 2017

हार-जीत

बयाँ कर गई मेरी बेबसी, उनसे मेरे आँखो की ये नमी!

नीर उनकी नैनों में, शब्द उनके होठों पे,
क्युँ लग रहे हैं बरबस रुके हुए?
शायद पढ़ लिया हैं उसने कहीं मेरा मन!
या मेरी आँखे बयाँ कर गई है बेबसी मेरे मन की!

घनीभूत होकर थी जमी,
युँ ही कुछ दिनों से मेरी आँखों में नमी,
सह सकी ना वेदना की वो तपिश,
गरज-बरस बयाँ कर गई, वो दबिश मेरे मन की!

ओह! मनोभाव का ये व्यापार!
संजीदगी में शायद, उनसे मैं ही रहा था हार!
संभलते रहे हँसकर वो वियोग में भी,
द्रवीभूत से ये नैन मेरे, कह गई सब मेरे मन की!

उनसे कह न पाते जो शब्द मेरे,
विस्तारपूर्वक कह गई थी उनसे मेरी नमी!
उस हार मे भी था जीत का एहसास,
विहँस रहे नैन उनके, समझ चुके वो मेरे मन की!

अब विहँसते हैं नैन उनके, समझते है वो मेरे मन की!