Monday 6 May 2019

अजनबी शहर

अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?

कभी उस तरफ, था ये दिल हमारा,
तन्हा सा रहा, वहाँ वर्षों बेचारा!

तृष्णगि थी, दिल में रही ये कमी थी,
मेरे ही काम की, न वो ज़मीं थी!

अन्जाने शक्ल थे, अपना न था कोई,
भीड़ में वहीं, ये आत्मा थी खोई!

वैसे तो रोज ही, कई लोग थे मिलते,
रंगीन थे मगर, ग॔धहीन थे रिश्ते!

छोड़ आया हूँ, कहीं पीछे मैं वो शहर,
मन की गाँव सा, है ना वो शहर!

न कोई जानता, है मुझको अब उधर,
बड़ा ही अजनबी सा, है वो शहर!

अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 4 May 2019

भीगे बादल

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

ना कोई, शाख था बचा,
चमन में, न कोई बाग था बचा,
टपकती थी बूँदें,
हर तरफ फूल पर, बिखरी थी बूँदें,
भीगे थे सब, पात-पात !

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

भीगी हुई, वो टहनियाँ,
कर गई, हाले-दिल सब बयाँ,
तन पर लकीरें,
सुबह की, मोम सी पिघली तस्वीरें,
पिघली सी थी, हर बात!

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

हर पल, टूटा था बादल,
छूटा था जैसे, हाथों से आँचल,
उजाड़ था मन,
दहाड़ कर, रात भर बरसा था घन,
बूँदों संग, छूटा था साथ !

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

कोई, घटाओं से कह दे,
मन में दबी, सदाओं से कह दे,
भीगती है क्यूँ,
संग बूँद के, इतना मचलती है क्यूँ?
जज्बातों की, है ये बात!

रात भर बरसती रही, वो भीगी सी रात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 30 April 2019

बांधो मत उसको

सृष्टि खुद जिसमें, सिमटी है आकर,
नित स्वरूप नए से लेकर, खिलती है वो बलखाकर!
अद्भुत सी वो चित्रकारी,
रचनाओं में, श्रेष्ठतम है नारी!

नारी है, शक्ति है, सृष्टि समूल है वो!
रचयिता की भूल नहीं, उसकी रचना का मूल है वो!
श्रष्टा के बंद किताबों में,
झांक कर पढ़ लेना!
कल्पना नहीं, सशक्त संकल्पना है,
कालसमय से परे, तर्क की तार्किक विवेचना है वो!
सीमाओं के बंधन में,
बांध कर मत रखना उसको!

मृदुल है वो, सशक्त हैं पर उसके,
आयाम सफलताओं के, नए लिख सकती हैं वो!
संकीर्णताओं के जंजीरों में,
उन्हे कैद न रखना!
आसमान, छू सकते हैं उसके पर,
आकांक्षाओं के वृहदाकार, मन के मुक्ताकाश पर,
चाहत के दीर्घ श्वास,
सीने में भर लेने देना उसको!

नारी है, इस व्योम का सार है वो!
श्रृष्टि की जटिल रचना का, विशिष्ट मूलाधार है वो!
प्राण उसी के गर्भ में,
निष्प्राण न होने देना उसको!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 26 April 2019

तुम थे तो

तुम जिस पल थे,
वो ही थे,
आकर्षण के दो पल!

तुम थे तो,
जागे थे नींद से ये एहसास,
धड़कन थी कुछ खास,
ठहरी सी थी साँस,
आँखों नें,
देखे थे कितने ही ख्वाब,
व्याकुल था मन,
व्याप गई थी इक खामोशी,
न जाने ये,
थी किसकी सरगोशी,
तन्हाई में,
तेरी ही यादों के थे पल!

तुम जिस पल थे,
वो ही थे,
आकर्षण के दो पल!

तुम थे तो,
वो पल था कितना चंचल,
नदियों सा बहता था,
वो पल कल-कल,
हवाओं में,
प्रतिध्वनि सी थी हलचल,
तरंगों सी लहरें,
विस्मित करती थी पल-पल,
खींचती थी,
छुन-छुन बजती पायल,
क्षण भर में,
सदियाँ गुजरी थी उस पल!

तुम जिस पल थे,
वो ही थे,
आकर्षण के दो पल!

तुम थे तो,
अधूरा सा न था ये आंगण,
मूर्त हुई थी चित्रकलाएं,
बोलती थी तस्वीरें,
अंधेरों में,
जग पड़ते थे कितने तारे,
सजता था गगन,
गुम-सुम कुछ कहते थे तुम,
तारों संग,
विहँसते थे वो बादल,
उन बातों में,
जीवन्त थे रातों के पल!

तुम जिस पल थे,
वो ही थे,
आकर्षण के दो पल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 21 April 2019

प्यार

न जाने, कितनी ही बार,
चर्चा का विषय, इक केन्द्र-बिंदु, रहा ये प्यार!
जब भी कहीं, अंकुरित हुई कोमलता,
भीगी, मन की जमीन,
अविरल, आँखों से फूटा इक प्रवाह,
बह चले, दो नैन,
दिन हो या रैन, मन रहे बेचैन,
फिर चर्चाओं में,
केन्द्र-बिंदु बन कर, उभरता है ये प्यार!

हर दिन, क्षितिज के पार,
उभरता है सूरज, जगाकर संभावनाएं अपार!
झांकता है, कलियों की घूँघट के पार,
खोल कर, उनके संपुट,
सहलाकर किरणें, भर देती हैं उष्मा,
विहँसते हैं शतदल,
खिल आते हैं, करोड़ों कमल,
अद्भुत ये श्रृंगार,
क्यूँ न हो, चर्चा के केन्द्र-बिन्दु में प्यार!

कल्पना, होती हैं साकार,
जब सप्तरंगों में, इन्द्रधनुष ले लेता है आकार!
मन चाहे, रख लूँ उसे ज़मीं पर उतार,
बिखर कर, निखरती बूंदें,
किरणों पर, टूट कर नाचती वो बूंदें,
भींगता, वो मौसम,
फिजाओं में, पिघली वो धूप,
शीतल वो रूप,
चर्चाओं के केन्द्र-बिंदु, क्यूँ न बने ये प्यार!

न जाने, कितनी ही बार,
चर्चा का विषय, इक केन्द्र-बिंदु, रहा ये प्यार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 19 April 2019

रिश्तों की चाय

फीकी ही सही, चाय, गर्म तो हो मगर,
रिश्ते ना सही, मायने, रिश्तों के तो हों मगर!

सिमट कर रह गए, रिश्तों के खुले पर,
महज औपचारिकताओं के, जकड़े पाश में
उड़ते नही ये, अब खुले आकाश में!

चहचहाते थे कभी, मीठी प्यालियों में,
उड़ते थे ये कभी, चाय संग सर्द मौसमों में,
अब बची, औपचारिकताएँ चाय में!

फीकी सी हुई, रिश्तों की सुगबुगाहट,
अब कहाँ है, चाय के प्यालियों की आहट,
हो न हो चीनी, कम गई है चाय में!

या जरूरतें! या स्वार्थ! हुई हैं प्रभावी,
या झूठी तरक्की, सब पे हो चुकी हैं हावी,
कम हो चुकी है, गर्माहट चाय में!

फीकी ही सही, चाय, गर्म तो हो मगर,
रिश्ते ना सही, मायने, रिश्तों के तो हों मगर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

वादों का नया संस्करण

रुक गए थे जहाँ, पल भर को कदम,
ठहरी है वहीं, वो ठंढ़ी सी पवन,
और बिखरे हैं वहीं, रूठे से कई ख्वाब भी,
चलो मिल आएं हम,
फिर, ख्वाबों से, उन्ही पगडंडियों पर!

लहराए थे तुमने, कभी आँचल जहाँ,
सूना सा है, आजकल वो जहां,
रह रही हैं वहाँ, कुछ चुभन और तन्हाईयाँ,
चलो मिटा आएं हम,
फिर, ये तन्हाईयाँ, उन्हीं पगडंडियों पर!

रख दिए थे जहाँ, मन के सारे भरम,
कहीं होके जुदा, तुम और हम,
न जाने उनपर हुए, वक्त के कितने सितम,
चलो तोड़ आएं हम,
फिर वो भरम, उन्हीं पगडंडियों पर!

जहाँ वादों का था, इक नया संस्करण,
हुआ ख्वाबों का, पुनर्आगमण,
शायद बनने लगे, भ्रम के नए समीकरण,
चलो कर आएं हम,
फिर कुछ वादे, उन्हीं पगडंडियों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 17 April 2019

रुहानी बातें-पुरानी बातें

बड़ी ही रुहानी, थी वो पुरानी बातें!

सजाए बदन पर, संस्कारों का गहना,
नजरों का उठना, वो पलकों का गिरना,
लबों का हिलना, मगर कुछ भी न कहना,
शर्मो-हया की, वो ही पर्दों की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

सुबह-सबेरे, उनकी गलियों के फेरे,
भरी दोपहरी, अमुआ के बागों में डेरे,
संध्या-प्रहर, रेडियो संग प्रियजनों के घेरे,
रूमानी रातें, संग सितारों की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें!

शिष्टता में, कुछ बुजुर्गों से न कहना,
खिदमत में उनकी, गर्व महसूस करना,
प्रथम आशीर्वचन, उन बुजुर्गों से ही लेना,
शिष्टाचार और परम्पराओं की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

खेत-खलिहानों की, वो पगडंडियाँ,
ओस में भीगी हुई, गेहूँ की वो बालियाँ,
भींगकर पैरों में सटी, नाजुक सी पत्तियाँ,
फर्स पर घास की, कई सुहानी बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 15 April 2019

पूछती है राहें

न जाने क्यूँ, इक मुझे ही टोक कर,
शायद, तन्हा सफर में देख कर!
थाम कर मेरी बाहें, पूछती है मुझसे ही राहें....

तुम तो हो, बस इक मुसाफिर,
तुम भी, गुजर ही जाओगे,
मैं हूँ इक राह बस, फिर लौट कर न आओगे!

गुजरे कई, गुजरी न ये तन्हाई,
सह गई, विरह और जुदाई,
वर्षों मैं तन्हा रही, क्षणभर न ऐसे रह पाओगे!

इक आग में, मैं सदियों जली,
बिना अनुराग, वर्षों पली,
राहगीर हो तुम, छाँव राहतों के न दे पाओगे!

मिले कई, अपना सा न मिला,
मन में रहा, बस ये गिला,
अपने तो हो तुम भी, अपनापन न दे पाओगे!

अनगिनत रास्ते, हैं तेरे वास्ते,
एक तुझसे, मेरा वास्ता,
हर शै छोड़ गई तन्हा, तुम भी छोड़ जाओगे!

मन पर अंकित हैं, ये रेखाएँ,
जख्म किसे दिखलाएँ,
रेखाएँ के इक मकरजाल, तुम भी दे जाओगे!

न जाने क्यूँ, इक मुझे ही टोक कर,
शायद, तन्हा सफर में देख कर!
थाम कर मेरी बाहें, पूछती है मुझसे ही राहें....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 13 April 2019

पदचिन्ह

पदचिन्ह हैं ये किसके....

क्या गाती विहाग, नींद से जागी प्रभात?
या क्षितिज पे प्रेम का, छलक उठा अनुराग?
या प्रीत अनूठा, लिख रहा प्रभात!

पदचिन्ह हैं ये किसके....

ये निशान किस के, अंकित हैं लहर पे!
क्या आई है प्रभा-किरण, करती नृत्य-कलाएँ?
या आया है कोई, रंगों में छुपके?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

स्थिर-चित्त सागर, विचलित हो रहा क्यूँ?
हर क्षण बदल रही, क्यूँ ये अपनी भंगिमाएं?
हलचल सी मची, क्यूँ निष्प्राणों में?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

चुपके से वो कौन, आया है क्षितिज पे?
या किसी अज्ञात के, स्वागत की है ये तैयारी!
क्यूँ आ छलके है, रंग कई सतरंगे?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

टूट चली है मेरी, धैर्य की सब सीमाएँ!
दिग्भ्रमित हूँ अब मैं, कोई मुझको समझाए!
तनिक अधीर, हो रहा क्यूँ सागर?

पदचिन्ह हैं ये किसके....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा।