Monday, 21 January 2019

सम्भल ऐ गमे-दिल

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

चल कहीं निकल, न संताप में तू जल,
बन जा विहग, आकाश पे मचल,
छोड़ दे ये दायरे, उन सितारों के पास चल,
खुद को न यूँ, तू दिवानगी में जला!

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

रात का प्रहर, चाँद विंहस रहा मचल,
हँस रही ये रात भी, गा रही गजल,
तू न मौन रह, गुनगुना ले संग तू भी चल,
घुट-कर न यूँ, जीवन के क्षण बिता!

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

कम न होता यहाँ, जिन्दगी का आँचल,
छँट ही जाते हैं, गम के ये बादल,
बरस गए जरा, ये पल में हो जाएंगे विरल,
शुन्य में कहीं, यूँ खुद को ना भुला!

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

4 comments:

  1. रात का प्रहर, चाँद विंहस रहा मचल,
    हँस रही ये रात भी, गा रही गजल,
    तू न मौन रह, गुनगुना ले संग तू भी चल,
    घुट-कर न यूँ, जीवन के क्षण बिता! बहुत ही बेहतरीन रचना

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    1. शुभप्रभात ।।।।
      सादर आभार आदरणीय अनुराधा जी।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-01-2019) को "गंगा-तट पर सन्त" (चर्चा अंक-3224) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    उत्तरायणी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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