Friday, 12 July 2019

किताब

बहते चिनाब से,
मिल गई, इक किताब!

उम्र, जो है अब ढ़ली,
सोचता था,
गुजर चुकी है, अब वो गली,
अब न है राफ्ता,
शायद, अब बन्द हो वो रास्ता,
पर, टूटा न था वास्ता,
रह गईं थी,
कुछ यादें, वही मखमली,
संग-संग चली,
उम्र के इस चिनाब में,
इक किताब सी,
मन में,
ढ़ली वो मिली!

बहते चिनाब से,
मिल गई, इक किताब!

बातें वही, बहा ले गई,
यादें पुरानी,
नई सी लगी, थी वो कहानी,
फिर बना राफ्ता,
पर, अब तो बन्द था वो रास्ता,
रह गया था, इक वास्ता,
वो किस्से पुराने,
यादों में ढ़ले, वो ही तराने,
अब सताने लगे,
वो पन्ने, फरफराने लगे,
बंद किताब की,
हर बात,
तड़पाती ही मिली!

बहते चिनाब से,
मिल गई, इक किताब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

16 comments:

  1. बहुत सुन्दर. किताब की मोहक कल्पना शानदार है.

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (13 -07-2019) को "बहते चिनाब " (चर्चा अंक- 3395) पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है

    ….
    अनीता सैनी

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 12 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. मन के एहसासों का बहुत सुंदर चित्रण दिल तक उतरती मोहक पंक्तियाँ।

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  5. जीवन भी एक किताब ही है। सुंदर कल्पना।

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