वो, नदी सी!
बंधी, दो किनारों से,
कहती रही, उच्छृंखल तेज धारों से,
हो मेरे, श्रृंगार तुम ही,
ना, कभी कम,
तुम, ये धार करना,
उमर भर, साथ बहना,
संग-संग,
बहूंगी, प्रवाह बन!
रही, उन दायरों में,
उलझी, बहावों के अनमने सुरों में,
चली संग, सफर पर,
रत, अनवरत,
अल्हड़, नादान सी,
दायरों में, गुमनाम सी,
सतत् ,
बहती, अंजान बन!
थकी, थी धार अब,
सिमटना था, उसे उन समुन्दरों में,
सहमी थी, नदी अब,
गुम, वो धारे,
खो, चुके थे किनारे,
विस्तृत, हो चले थे दायरे,
चुप सी हुई,
मिलकर, सागरों में!
वो, नदी सी!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय मयंक जी ।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 23 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीया दी।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24 -3-2020 ) को " तब तुम लापरवाह नहीं थे " (चर्चा अंक -3650) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
बंधी, दो किनारों से,
Deleteकहती रही, उच्छृंखल तेज धारों से,
हो मेरे, श्रृंगार तुम ही,
ना, कभी कम,
तुम, ये धार करना,
उमर भर, साथ बहना,
संग-संग,
बहूंगी, प्रवाह बन!
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति आदरणीय ।
आदरणीया मीना जी, इस रचना का मूलभाव व अन्त्तर्आत्मा ही स्त्री जीवन और उनका समर्पण है। अतः रचना से जुड़ने हेतु, आपका आभारी हूँ ।
Deleteआभारी हूँ आदरणीया कामिनी जी।
Deleteकाश ,मानव जगत भी इतना सहज और सुन्दरल होता !
ReplyDeleteआभारी हूँ आपकी विचारणीय प्रतिक्रिया हेतु। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया ।
Deleteबहुत सुंदर मर्म को छूती रचना जिसमें नदी के माध्यम से एक अंतरद्वंद्व को ख़ूबसूरती से पिरोया गया है आदरणीय सर
ReplyDeleteसादर
सदियों बात आपकी प्रतिक्रिया पुनः पाकर प्रसन्न हूँ । कोरोना से अपना ख्याल रखें और स्वस्थ रहें । धन्यवाद ।
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