Sunday, 22 March 2020

वो नदी सी

वो, नदी सी!

बंधी, दो किनारों से,
कहती रही, उच्छृंखल तेज धारों से,
हो मेरे, श्रृंगार तुम ही,
ना, कभी कम,
तुम, ये धार करना, 
उमर भर, साथ बहना,
संग-संग,
बहूंगी, प्रवाह बन!

रही, उन दायरों में,
उलझी, बहावों के अनमने सुरों में,
चली संग, सफर पर,
रत, अनवरत,
अल्हड़, नादान सी,
दायरों में, गुमनाम सी,
सतत्  ,
बहती, अंजान बन!

थकी, थी धार अब,
सिमटना था, उसे उन समुन्दरों में,
सहमी थी, नदी अब,
गुम, वो धारे,
खो, चुके थे किनारे,
विस्तृत, हो चले थे दायरे,
चुप सी हुई,
मिलकर, सागरों में!

वो, नदी सी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

12 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 23 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24 -3-2020 ) को " तब तुम लापरवाह नहीं थे " (चर्चा अंक -3650) पर भी होगी,
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

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    1. बंधी, दो किनारों से,
      कहती रही, उच्छृंखल तेज धारों से,
      हो मेरे, श्रृंगार तुम ही,
      ना, कभी कम,
      तुम, ये धार करना,
      उमर भर, साथ बहना,
      संग-संग,
      बहूंगी, प्रवाह बन!
      बेहतरीन भावाभिव्यक्ति आदरणीय ।

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    2. आदरणीया मीना जी, इस रचना का मूलभाव व अन्त्तर्आत्मा ही स्त्री जीवन और उनका समर्पण है। अतः रचना से जुड़ने हेतु, आपका आभारी हूँ ।

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    3. आभारी हूँ आदरणीया कामिनी जी।

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  3. काश ,मानव जगत भी इतना सहज और सुन्दरल होता !

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    1. आभारी हूँ आपकी विचारणीय प्रतिक्रिया हेतु। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया ।

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  4. बहुत सुंदर मर्म को छूती रचना जिसमें नदी के माध्यम से एक अंतरद्वंद्व को ख़ूबसूरती से पिरोया गया है आदरणीय सर
    सादर

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    1. सदियों बात आपकी प्रतिक्रिया पुनः पाकर प्रसन्न हूँ । कोरोना से अपना ख्याल रखें और स्वस्थ रहें । धन्यवाद ।

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