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Tuesday 19 April 2016

अधूरे सपने

अधूरे सपने ! ये संग-संग ही चलते है जीवन के!

अधूरे ही रह जाते कुछ सपने आँखों में,
कब नींद खुली कब सपने टूटे इस जीवन में,
कब आँख लगी फिर जागे सपने नैनों में।

अधूरे सपने ! सोते जगते साथ साथ ही जीवन में!

सपनों की सीमा कहीं उस दूर क्षितिज में,
पंख लगा उड़ जाता वो कहीं उस दूर गगण में,
कब डोर सपनों की आ पाई है हाथों में।

अधूरे सपने ! पतंगों से उड़ते जीवन के नील गगन में!

पलकों के नीचे मेरी सपनों का रैन बसेरा,
बंद होती जब ये पलकें सपनों का हो नया सवेरा,
अधूरे उन सपनो संग खुश रहता है मन मेरा।

अधूरे सपने ! ये प्यार बन के पलते हैं मेरे हृदय में।

Tuesday 5 April 2016

यादें

प्रशस्त हो रही सामने संथ्या जीवन की,
कुछ भीनीं यादें ख्यालों में पल रही सपनों सी,

सपने ही होते वो जो सच ना बन पाते,
बोझल होती साँसों मे कभी खुश्बु बिखराते,
बैठे-बैठे उन आँखो में आँसू भर आते,
रिश्ते ही तो हैं वे भी जो अपने ना बन पाते!

संथ्या जीवन की पल-पल प्रशस्त होते ही जाते....,

इक सुखी फूल किताबों में कहीं गुम सी,
यादों में अबतक वो, चुभती मन में काटों सी,
सिमट आई यादें वो साँसों में बन कंपन सी,
पंखुड़ियाँ बिखर रही, अब उन सूखे फूलों की!

प्रशस्त हो रही हर पल सामने संध्या जीवन की.....
कुछ भीनी-भीनी यादें संग चल रही सपनों सी........

Monday 4 April 2016

शायद भरम था वो

क्या खुशबू थी वो, जो मेरी साँसों में उतर गई?

शायद कचनार खिली हैं कहीं?
क्यों बिखरे है इतर हवाओं में यूँही?
कहीं रजनीगंधा ने छेड़ी गजल तो नहीं?
साँसों में ये मादक महक सी है क्युँ?

क्या हवा थी वो, जो मुझको छूकर गुजर गई?

अनायास रुक गया था मैं क्युँ?
पुकार गुंजी थी किन सदाओं की?
सिहर सी गई थी क्युँ साँसे मेरी?
सरसराहट उन पत्तियों में है क्युँ?

क्या सपना था वो, जो मुझको बेखबर कर गई?

एतबार क्युँ मेरे मन को नही?
कहीं है वो मेरे करीब या कि नहीं?
कही भ्रम वो मेरे मन का तो नहीं?
आँखों में उलझे हैं जाल से क्युँ?

शायद भरम था वो, जो मुझको गुमराह कर गई!

Thursday 31 March 2016

वो ठहरा हुआ पल

वो पल अब तलक ठहरा हुआ है यहीं,
मुद्दतों से दरमियाँ ये दूरियाें के रुके हैं वहीं,
खोया है मन उस पल के दायरों में वहीं कहीं!

अपना सा एक शक्ल लगा था इस उम्र में कहीं,
सपनों मे मिलता था वो हमसे कभी-कभी,
हकीकत न बन सका सपनों का वो शक्ल कभी।

एहसास एक पल को कुछ ऐसा हुआ,
हकीकत बन के वो शक्ल सामने खड़ा मिला,
हतप्रभ सा खड़ा बस उसे मैं देखता ही रह गया।

कुछ पल को दूरियों के महल वो गिर गए,
मासूमियत पर उस शक्ल की हम फिर से मर गए,
टूटे भ्रम के महल, जब शक्ल अंजान वो लगने लगे।

वो पल अब फिर से ठहर गया है वहीं,
दरमियाँ ये दूरियाें के मुद्दतों के अब फिर हैं वहीं,
फिर से खोया है मन उस पल के दायरों में ही कहीं!

Tuesday 22 March 2016

एहसास एक गहराता हर पल

एहसास एक गहराता हर पल,
निर्जन तालाब में जैसे ठहरा शांत जल,
खामोशी टूटती तभी जब फेकता कोई कंकड़।

कभी कभी ये एहसास उठते मचल,
वियावान व्योम मे जैसे घुमरता मंडराता बादल,
खामोशी टूटती है तभी जब लहराता उसका आँचल।

एहसासों के पर कभी आते निकल,
तेज हवा के झौंकों मे जैसे पत्तियों के स्वर,
खामोशी टूटती है तभी जब छा जाता है पतझड़।

आशाएँ एहसास की कितनी विकल,
सपनों की नई दुनियाँ मे रोज ही आता निकल,
खामोशी टूटती है तभी जब बिखरते सपनों के शकल।

एहसास एक गहराता हर पल........,!

Saturday 19 March 2016

घर सपनों के बना लेता मै भी

गर सपने अपने मिल जाते तो घर एक बना लेता मैं भी.......!

सपना उस प्यारे से घर का संजोए वर्षों से इस मन में,
इन्तजार करती है नित ये आँखें वर्षों से उन हसीन सपनों के,
गर मिल जाते वो सपने, चुन-चुन कर रख लेता उनको प्रांगण में,
छोटा सा घर एक बना लेता सपनों के मैं भी तब इस जीवन में......!

मेरे सपने बड़े सरल सीधे-सादे तामझाम से परे........!

मैं, मेरा एकाकीपन, मेरी तन्हाई, मेरी तृष्णगी सपनों मे साथ मेरे,
साथ परछाई सी सपनों मे तुम चलती हो पीछे पीछे मेरे,
मेरी इच्छाएं, आशाएँ, भावनाएं, कल्पनाएं वशीभूत सपनों के मेरे,
घर की इन चार दीवारों पर अंकित हों केवल सपन-सुनहरे मेरे।

दूर-दूर तक गम की बूंदे छलकती कभी ना इन नयनों में,
जीवन मरण, मिलन-बिछड़न का भय ना होता इस जीवन में,
साथ छोड़ प्यारा सा अपना दूर ना जाता इस जीवन से,
विरह की दुखदाई वेला धुली होती प्रीत की विविध रंगो से।

आशाएँ ही आशाएँ होती जीवन में निराशा कही दम तोड़ती,
रौशनी के उजाले फैले दूर तक होते अंधेरे कही घुटकर दम तोड़ते,
विश्वास हर दिल में होता, सच्चाई के आगे जमाना झुकता,
छल, कपट, द्वेष, विषाद, क्लेश से दूर हरपल मानव का जीवन होता।

ये मेरे सपने हैं बड़े सरल सीधे-सादे से तामझाम से परे........!

गर ये सपने अपने मिल जाते तो दुनियाँ ऩई बसा लेता मैं भी....!

Thursday 18 February 2016

सपनों के भारत को लगी नजर

मेरे सपनों के भारत को लग गई किसकी नजर?

सोंच हो चुकी है दूषित आज सत्तालोलुपों की,
सत्ता के भूखे उस महा दानव की,
साधते स्वार्थ अपना रोपकर वृक्ष वैमनस्य की।

महादानव हैं वो पर दाँत नही दिखते उसके,
खतरनाक विषधर विष भरे सोंच उनके,
दूषित कर देते ये सोंचविचार निरीह भोले मानस के।

चंद पैसों की खातिर बिक जाते यहाँ ईमान,
देश समाज धर्म का फिर कहाँ ध्यान,
आम जन मरे या जले, बढ़ता रहे इनका सम्मान।

सत्ता लोलुपता इनकी देशभक्ति से ऊपर,
देश की बदहाली, दुर्दशा से ये बेखबर,
खुशहाल आवो हवा को लग गई इनकी बुरी नजर।

मेरे सपनों के भारत को लग गई किसकी नजर?

Saturday 16 January 2016

सपनों का भ्रमजाल

सपनों का फैला भ्रम जाल,
देख मानव हो रहा निहाल,
अकल्पित भयंकर यह मकर जाल।

भ्रमजाल मे जकड़ता हर पल,
यथार्थ से दूर ले जाता पल पल,
विस्मित सपनों का प्रलय यह जाल।

सपना तो बस एक छलावा,
भांति भांति के मोहक छद्म दिखाता,
खुली आँखों मे मोह सा छलिया जाल।

सपनों का है अपना कर्म,
जन की आँखो मे बैठ निभाता धर्म,
तू भी कर्म कर अंत काल न रहे मलाल।