Saturday, 26 March 2016

संबंधों का कर्ज मोक्ष पर भारी

धागे ये संबंधों के जुड़े स्नेह की गांठो से,
कब कैसे जुड़ जाते ये बंधन साँसों की झंकारों से,
ममतामयी स्पर्श स्नेहिल मधुर इन गाँठों का,
धागे ये कच्चे पर बंधन अटूट ये जन्मों-जन्मों का।

अनगिनत संबंध जीवन के भूले बिसरे से,
जीवन की आपाधापी में तड़पते कुचले-मसले से,
विरह की टीस सी उठती फुर्सत के क्षण में,
गतिशीलता जीवन की भारी स्नेह, दुलार, ममता पे।

आधार स्तम्भ जीवन के, संबंधों के दायरे यही,
कितने ही स्नेहमयी गोदों में नवजात मुस्कुराते यहीं,
कर्ज भारी इन संबंधों का ढ़ोते जीवन भर यहीं,
क्या उरृण हो पाऊँगा इस कर्ज से, मैं सोचता यही?

कर्ज इस बंधन का शायद जीवन पर है भारी,
जन्मों का यह चक्र मानव के कर्ज चुकाने की तैयारी,
गरिमामयी संबंधों को फिर से जीने की यह बारी,
मोह संबंधों के स्नेहिल बंधन के मोक्ष पर है मेरी भारी।

तुम दीप जलाने ना आई

तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया!
हृदय अरकंचन के पत्तों सा, जज्बात बूँदों सा बह आया!

प्रज्जवलित सदियों से एक दीप ह्रदय में,
जलता बुझ-बुझ कर साँसों की लौ मेंं,
नीर हृदय के लेकर जल उठता धू-धू कर मन में,
सूखे हैं अब वो नीर बुझ रहा दीप इस हिय में ।

तूम आ जाते जल उठता असंख्य दीप जीवन में,
तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया।

निर्झर नीर जज्बातों का बह रहा चिर निरंतर,
रुकता है ये कब अरकंचन के पत्तों पर,
अधूरी प्यास हृदय की प्यासी सागर के इस तट पर,
आकुल प्राणों के कण-कण किसकी आहट पर।

तुम आ जाते जल उठता दीप हृदय के इस तट पर,
तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया।

हृदय अरकंचन के पत्तों सा, जज्बात बूँदों सा बह आया।

Friday, 25 March 2016

दिया याद के तुम जला लेना

कहीं जब साँझ ढ़ले, दिया याद के तुम जला लेना!

सुनसान सी राहों पर, साँस जब थक जाए,
पथरीली इन सड़कों पर, जब चाल लड़खड़ाए,
मृत्यु खड़ी हो सामने और चैन हृदय ना पाए,
तब साँसों के रुकने से पहले, याद मुझे तुम कर लेना।

कहीं जब साँझ ढ़ले, दिया याद के तुम जला लेना!

दुनिया की भीड़ में, जब अपने बेगाने हो जाए,
स्वर साधती रहो तुम, गीत साधना के ना बन पाए,
घर के आईने मे तेरी शक्ल अंजानी बन जाए,
तब सूरत बदलने से पहले, याद मुझे तुम कर लेना।

कहीं जब साँझ ढ़ले, दिया याद के तुम जला लेना!

पीर पर्वत सी सामने, साथ धीरज का छूट जाए,
निराशा के बादल हों घेरे, आशा का दामन छूट जाए,
आगे हों घनघोर अंधेरे और राह नजर ना आए,
तब निराश बिखरने से पहले, याद मुझे तुम कर लेना।

कहीं जब साँझ ढ़ले, दिया याद के तुम जला लेना!

विह्वल भाव

भाव कितने ही प्रष्फुटित होते हर पल इस मन में...,!

कुछ भाव सरल भाषाविहीन, कुछ जटिल अंतहीन,
कुछ उद्वेलित घन जैसे व्यक्त अन्तःमानस में आसन्न,
कुछ हृदय में हरपल घुलते, कुछ अव्यक्त अन्त:स्थ मौन!

भाव पनपते भावनाओं से, भावना वातावरण से,
संग्यांहीन, संग्यांशून्य, निरापद भाव कुछ मेरे मन के,
मैं प्रेमी जीवन के हर शय का प्रेम ही दिखता हर मन में,

भिन्नता क्युँ भावों में इतनी मानव मन क्युँ विभिन्न,
रिक्तता तो है अंग जीवन का भाव क्युँ हुए दिशाविहीन,
कभी तैरती भावों मे विह्वलता कभी कभी ये मतिविहीन।

विह्वलता सुन्दरतम भाव मन की अभिव्यक्ति का,
माता हो जाती विह्वल पुत्र के निष्कपट भाव देखकर,
हृदय पुत्र का हो जाता विह्वल माँ की छलके नीर देखकर।

हृदय दुल्हन का विह्वल बाबुल का आँगन छोड़कर,
विदाई के क्षण नैन असंख्य विह्लल आँसूओं में डूबकर,
पत्थर हृदय पिता हो जाता विह्वल बेटी के आँसू देखकर।

भाव कितने ही प्रष्फुटित होते हर पल मन में...,!
कैद कर लेना चाहता विह्वल भावों को मैं "जीवन कलश" में.!

धागे जज्बातों के

कितनी ही बातें हैं.......
दिल में कहने को,कोई सुन ले तो आकर!
धागे जज्बातों के.....
उलझे हैं, थोड़ा इनको सुलझा लें तो जाकर।

व्यथा के आँसू......
क्युँ सूखे हैं, थोड़ा इनको बह जाने दो झरकर,
चंद रातें ही बची हैं.....
जीने को, थोड़ा सा तो हँस लेने दो जी भरकर,

इतने पहरे क्युँ......
जीने पर, जज्बातों को मुखरित तू कर,
बात दबी सी जो........
दिल में, कह दे खुले व्योम में जाकर।

चंदन बना तू........
आँसुओं के, जीवन की बहती धारा में घिसकर,
व्यथा तो बस......
इक स्वर है, बाकी के सप्त स्वर तू कर प्रखर।

कितनी ही बातें हैं.......
दिल में कहने को,कोई सुन ले तो आकर!

Thursday, 24 March 2016

हिचकियों का दौर

क्युँ सरक रहा हूँ मैं! क्या बेवसी में याद किया उसने मुझे?

शायद हो सकता है........
रूह की मुक्त गहराईयों में बिठा लिया है उसने मुझे,
साँसों के प्रवाह के हर तार में उलझा लिया है उसने मुझे,
सुलगते हुए दिलों के अरमान में चाहा है उसने मुझे,

क्या बरबस फिर याद किया उसनेे? आई क्युँ फिर हिचकी!

या फिर शायद..........
दबी हुई सी अनंत चाह है संजीदगी में उनकी,
जलप्रपात सी बही रक्त प्रवाह है धमनियों में उनकी,
फिजाओं में फैलता हुआ गूंज है आवाज में उनकी।

फिर हुई हिचकी! क्या चल पड़ी हैं वो निगाहें इस ओर ?

शायद हो न हो.......
तल्लीनता से वो आँखे देखती नभ में मेरी ओर,
मशरूफियत में जिन्दगी की ध्यान उनका है मेरी ओर,
या हिज्र की बात चली और आ रहे वो मेरी ओर।

सरक रहा हूँ मैं, रूह में अब बस गया ये हिचकियों का दौर ।

ये क्या कह गया तुमसे नशे में

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?

जाम महुए की पिला दी थी किसी नें,
उस पर धतूरे की भंग मिलाई थी किसी ने,
मुस्कुराकर शाम शबनमी बना दी थी आप ने,
उड़ गए थे होश मेरे, मन कहाँ रह गया था वश में।

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?

यूँ तो मैं पीता नही जाम हसरतों के,
पिला दी थी दोस्तों नें कई जाम फुरकतों के,
मुस्कुराए आप जो छलके थे जाम यूँ ही लबों पे,
होश में हम थे कहाँ, देखकर आपको सामने।

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?

ये दो नैन मयखाने से लग रहे आपके,
जाम कई हसरतों के छलकाए है यूँ आपने,
लड़खड़ाए मेरे कदम आपकी मुस्कुराहटों में,
उड़ चुके हैं होश मेरे, मन विवश आपके सामने।

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?

Wednesday, 23 March 2016

वो कौन

वो कौन जो पुकार रहा क्षितिज की ओर इशारों से।

पलक्षिण नृत्य कर रहा आज जीवन के ,
बौराई हैं सासें मंजरित पल्लव की खुशबु से,
थिरक रहीं हैं हर धड़कन चितवन के,
वो कौन जो भर लाया है मधुरस आज उपवन सेे।

जीर्णकण उल्लासित चहुंदिस उपवन के,
जैसे घूँट मदिरा के पी आया हो मदिरालय से,
झंकृत हो उठे है तार-तार इस मधुबन के,
वो कौन जो बिखेर रहा उल्लास मन के आंगन में।

मधुकण अल्प सी पी गया मैं भी जीवन के,
बज उठे नवीन सुरताल प्राणों के अंतःकरण से,
गीत नए स्वर के छेर रहे तार मन वीणा के,
वो कौन जो पुकार रहा क्षितिज की ओर इशारों से।

वक्त ही नही है

वक्त ठहरता ही नही,

आशाएं बढती ही जाती जीवन की इस गतिशीलता में,

भावनाएं! या तो पंख पा लेती या फिर कुंठित हो जाती,

आंखे जीवन भर तलाशती रह जाती हैं उन्हे,

जिनसे भावनाओं को समझने की उम्मीद हों बंधी,

वो मिल भी गया तो ........

वक्त ही नही उसके पास भी ।

उसे यह फ़िक्र है हरदम : स्व. भगत सिंह, 1931

अमर शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को शत-शत नमन।

शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने अपनी जंग को कुछ यूँ बयाँ किया था,

उसे यह फ़िक्र है हरदम : भगत सिंह (मार्च 1931)

उसे यह फ़िक्र है हरदम,
नया तर्जे-जफ़ा क्या है?
हमें यह शौक देखें,
सितम की इंतहा क्या है?

दहर से क्यों खफ़ा रहे,
चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही,
आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूँ,
ए-अहले-महफ़िल,
चरागे सहर हूँ,
बुझा चाहता हूँ।

मेरी हवाओं में रहेगी,
ख़यालों की बिजली,
यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी,
रहे रहे न रहे।

रचनाकाल: मार्च 19319

(यह रचना अपने ब्लाग के माध्यम से आपलोगों के साथ साझा करने में मुझे गर्व महसूस हो रहा है। क्रान्ति की इस मशाल को नमन।)