Sunday, 4 February 2018

पुराना किस्सा

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

हया की लाली आँखों पर छाना,
इक पल में तेरा घबराना,
शरमाकर चुपके से आँचल में छुप जाना,
हाथों में वो कंगण खनकाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

बात-बात पर तुम्हारा रूठ जाना,
हर क्षण मेरा तुम्हें मनाना,
अगले ही पल फिर हँसना खिलखिलाना,
सिमटकर फिर इठला जाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

कसमें-वादों में नित बंधते जाना,
पल में नैनों का छलकाना,
जुदाई का इक क्षण भी असह्य हो जाना,
विरहा में ये दामन भीग जाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

अनदेखे धागों से यूँ जुड़ते जाना,
यूँ ही भावप्रवन कर जाना,
जन्मों के किस्से साँसों पर लिख जाना,
नींव इरादों की फिर रख जाना.......

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

खुदातर्स

नजरों में मेरी खुदातर्स हैं बस वो....

प्रकृति प्रेमी हो श्रष्टा अनुगामी हो,
परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, अहंकार से दूरी रखते है जो,
उद्भवन करते हों जो सद्गुण का,
असद्गुणों का हृदय से उच्छादन करते हैं जो...
अनुत्सेक हो मद रहित ज्ञानी है जो.....

नजरों में मेरी खुदातर्स हैं बस वो....

पर के सच्चे या झूठे दोष प्रकट कर,
अपने विद्यमान या अविद्यमान गुणों को जाहिर कर,
असद्गुणों को सदगुणों पर प्रभावी कर,
ईश्वरीय शक्ति से परे निडर बेफिक्र होते हैं जो.....
कदपि खुदातर्स नही बन सकते वो....

नजरों में मेरी खुदातर्स हैं बस वो....

सदा ही बचते हों खुदनुमाई से जो,
रूप, गुण, श्रेष्ठता, अहंकार का प्रदर्शन ना करते हो
श्रेष्ठजन हो, नम्रवृत्ति के हो अनुपालक,
साधुसमाधि से तपश्चरण का संघारण करते हों,
निष्कलेष हो निर्विकार ईश्वरगामी हो....

नजरों में मेरी खुदातर्स हैं बस वो....
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ख़ुदातर्स
1. ख़ुदा या ईश्वर से डरने वाला
2. धर्मभीरू 3. कृपालुदयालु

Friday, 2 February 2018

जो मन को भाता है

वो, जो मन को भाता है,
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......

हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....

वो, जो मन को भाता है,.......

कभी मन ये दूर निकल जाता है,
तन्हा फिर भी रह जाता है,
मरुभूमि से सूने आंगण में काँटों सा,
जब नागफनी डस जाता है,
नीरवता के उस बीहड़ जंगल में,
व्याकुल सा ये मन जब घबरा जाता है,
फिर करता है अपने मन की,

वो, जो मन को भाता है,.......

जब कोई भी लम्हा तड़पाता है,
सुख चैन भटक सा जाता है,
छूट जाती है जब मंजिल की आशा,
और हताश पल डस जाता है,
जीवन के उस बिखरे से प्रांगण में,
विह्वल मन जब खुद को तन्हा पाता है,
करता है फिर अपने मन की,

वो, जो मन को भाता है,.......
नीरवता से कहीं दूर, मीलों दूर, .......

हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....

वो, जो मन को भाता है,.......
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......

Monday, 29 January 2018

सृजन

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

एकत्र हुई है सब कलियाँ,
चटक रंगों से करती रंगरलियाँ,
डाल-डाल खिल आई नव-कोपल,
खिलते फूलों के चेहरे हैं चंचल,
सब पात-पात झूमे हैं,
कलियों के चेहरे भँवरों ने चूमे हैं,
लताओं के लट यूँ बिखरे हैं,
ज्यूँ नार-नवेली ने लट खोले हैं,
रंगीन धरा, अंग-अंग में श्रृंगार भरा...

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

झूम-झूम हो रही मतवाली,
गुलमोहर, अमलतास की डाली,
खुश्बू भर आई गुलाब, चम्पा और बेली,
गीत बसंत के कूक रही वो कोयल,
पपीहा अपनी धुन में पागल,
रह रह गाती बस ..पी कहाँ, पी कहाँ!
मुग्ध संसृति है इनकी तान से,
सृजन का है सुन्दर नव-विहान ये,
मुखरित धरा, कण-कण में लाड़ भरा...

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

हैं दलदल में खिले कमल,
जल में बिखरे हैं शतधा शतदल,
कलरव क्रीड़ा करते झूम रहे है जलचर,
जैसे मना रहे उत्सव सब मिलकर,
झिलमिल करती वो किरणें,
ठहरी झील की चंचल सतह पर,
थिरक रही बूँद-बूँद बस इठलाकर,
मुग्ध धरा, अंग-प्रत्यंग में उन्माद भरा......

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

Saturday, 27 January 2018

गुनगुनी धूप

गुनगुनी धूप, खींच लाई दामन में मुझको...

कई दिनों के सर्द मौसम में,
मखमली एहसास दिला गई थी धूप,
ठिठुरते कांपते बदन को,
तपिश ने दी थी राहत थोड़ी सी...

हरियाली निखरी पात पात में,
बसंत की थपकी ले, खिली थी फूल,
रूप मिला था कलियों को,
रुख बदली थी हवाओं ने अपनी....

रंग कई भर आए थे बागों में,
कितने रांझे, बैठे थे राहों को भूल,
स्वर मिले थे कोयल को,
बदले थे आस्वर फिजाओं के भी....

निरन्तर कहर ढ़ाते मौसम में,
सृजन का आभास दे गई थी धूप,
संकुचित सी वातावरण को,
तपिश ने दी थी राहत थोड़ी सी...

शब्द शब्द हुए मुखर नेह में,
अक्षर अक्षर दे रही सुगंध देह की 
फ़ैली है सुरभि अन्तर्मन की,
सजल नयन है इक पाती प्रेम की....

मौसम की ये गुनगुनी धूप, भा गई मुझको...

इक दुर्घटना

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

दुर्घटना! आह वो विवश क्षण!
कराहता तड़पता विवशता का क्षण,
तम में डूबता, प्रिय का तन!
सनकर लहू में, वो पिघलता सा बदन......

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

क्षण भर में टूटता वो अवगुंठन,
अकस्मात हाथों से छूटता वो दामन,
विघटित सासें, बढ़ती वो घुटन,
विकर्षित होता, जीवन का वो आकर्षण....

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

निढाल हुआ, जैसे वह जीवन,
लथपथ रक्तरंजित, दुखदाई वो क्षण,
डूबते नैनों में, करुणा के घन,
इक पल में छूटता, साँसों से ये जीवन....

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

कैसी वो दुर्घटना, वो कैसा क्षण?
अन्तिम क्षण में, बढता वो आकर्षण,
पल पल टूटती, साँसों का घन,
आँखों में टूटकर, उमड़ता सा वो सावन....

अब याद न मुझको आना, ओ विघटन के क्षण....

(कविता "जीवन कलश" पर यह मेरी 800वीं रचना है, शायद 22 अक्टूबर 2017 की उस भीषण कार दुर्घटना के बाद, यह संभव न हो पाता । ईश्वर की असीम कृपा सब पर बनी रहे।)

Friday, 26 January 2018

हे ईश्वर

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार...
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई प्रभात!

बिन बात जहाँ, बढ जाती हो विवाद,
बिन पतझड़ ही, बिखर जाते हों पात,
बादल के रहते, सूखी सी हो बरसात,
खुशियों के पल, मन में हो अवसाद....

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार....
मत देना तुम मुझको, ऐसी कोई भी रात!

सितारों बिन जहाँ, सूना हो आकाश,
बिन जुगनू जहाँ, अंधेरा हो ये प्रकाश,
एकाकीपन हो, मृत हो मन के आश,
ये राहें ओझल हो, खोया हो उल्लास...

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार.....
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई भी पल!

बिन जीवन संगी, साँसे हो बोझिल,
बिन हमराही के, ये राहें हो मुश्किल,
अकेलापन हो, गम में हो महफिल,
जग के मेले में, तन्हाई हो हासिल...

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार.....
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई विषाद!

परछाँई

उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

मैं आज भले हूँ सामने,
कल शायद ना रह पाऊँगा!
शब्दों के ये तोहफे,
फिर तुझे ना दे पाऊँगा!
दिन ढ़ले इक टीस उठे जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

हूँ बस इक परछाँई मैं,
शब्दों में ही ढ़लता जाऊँगा!
कुरेदुँगा भावों को मै,
मन में ही बसता जाऊँगा!
सांझ ढ़ले ये अश्क गले जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

लिख जाऊँगा गीत कई,
इन नग्मों में ही बस जाऊँगा!
भाव पिरोकर शब्दों में,
अश्कों में बहता जाऊँगा!
मन की महफिल सूनी हो जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

न बाट जोहना तुम मेरा,
कल वापस भी न आ पाऊँगा!
यादों की किताब बन,
"कविता कलश" दे जाऊँगा!
कभी हो जीवन में तन्हाई जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

मैं, आज भले हूँ सामने.......
कल शायद!  ना.... रह पाऊँगा..!
इक कविता "जीवन कलश"....
मैं आँचल में रखता जाऊँगा!
एकाकीपन के अंधेरे हों जब-जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

Thursday, 25 January 2018

तिरंगा गणतंत्र

1. उठो देश

उठो देश! 
यह दिवस है स्वराज का,
गणतंत्र का, गण के तंत्र का,
पर क्युँ लगता?
यह गणराज्य कहीं है बिखरी सी,
जंजीरों में जकरा है मन,
स्वाधीनता है खोई सी,
पावन्दियों के हैं पहरे,
मन की अभिलाषा है सोई सी,
अंकुश लगे विचारों पे,
कल्पनाशीलता है बंधी सी!

उठो देश!
तोड़ कर ये सारे बंधन,
रच ले अपना गणतंत्र हम?
आओ सोचे मिलकर,
स्वाधीन बनाएँ मन अपना हम,
खींच दी थी किसी ने,
लकीरें पाबन्दियों की इस मन पर,
अवरुद्ध था कहीं न कहीं,
मन का उन्मुक्त आकाश सरजमीं पर,
हिस्सों में बट चुकी थी
कल्पनाशीलता कहीं न कहीं पर,
विवशता थी कुछ ऐसा करने की,
जो यथार्थ से हो परे,
ऐसे में मन करे भी तो क्या?
जिए या मरे?

उठो देश!
देखो ये उन्मुक्त मन,
आकर खड़ा हो सरहदों पे जैसे,
लेकिन कल्पना के चादर,
आरपार सरहदों के फैलाए तो कैसे,
रोक रही हैं राहें
ये बेमेल सी विचारधाराएं,
भावप्रवणता हैं विवश,
खाने को सरहदों की ठोकरें,
देखी हैं फिर मैने विवशताएँ,
आर-पार सरहदों के,
न जाने क्यूँ उठने लगा है,
अंजाना दर्द कोई
इस सीने में..!

उठो देश,
जनवरी 26 फिर लिख लें...
हम अपनी जन्मभूमि पर..

2. मेरी जन्मभूमि

है ये स्वाभिमान की,
जगमगाती सी मेरी जन्मभूमि...

स्वतंत्र है अब ये आत्मा, आजाद है मेरा वतन,
ना ही कोई जोर है, न बेवशी का कहीं पे चलन,
मन में इक आश है,आँखों में बस पलते सपन,
भले टाट के हों पैबंद, झूमता है आज मेरा मन।

सींचता हूँ मैं जतन से,
स्वाभिमान की ये जन्मभूमि...

हमने जो बोए फसल, खिल आएंगे वो एक दिन,
कर्म की तप्त साध से, लहलहाएंगे वो एक दिन,
न भूख की हमें फिक्र होगी, न ज्ञान की ही कमी,
विश्व के हम शीष होंगे, अग्रणी होगी ये सरजमीं।

प्रखर लौ की प्रकाश से,
जगमगाएगी मेरी जन्मभूमि...

विलक्षण ज्ञान की प्रभा, लेकर उगेगी हर प्रभात,
विश्व के इस मंच पर,अपने देश की होगी विसात,
चलेगा विकाश का ये रथ, या हो दिन या हो रात,
वतन की हर जुबाॅ पर, होगी स्वाभिमान की बात।

तीन रंगों के विचार से,
रंग जाएगी ये मेरी जन्मभूमि...

3. तीन रंग

चलो भिगोते हैं कुछ रंगों को धड़कन में,
एक रंग रिश्तों का तुम ले आना,
दूजा रंग मैं ले आऊँगा संग खुशियों के,
रंग तीजा खुद बन जाएंगे ये मिलकर,

चाहत के गहरे सागर में...
डुबोएंगे हम उन रंगों को....

चलो पिरोते हैं रिश्तों को हम इन रंगों में,
हरा रंग तुम लेकर आना सावन का,
जीवन का उजियारा हम आ जाएंगे लेकर,
गेरुआ रंग जाएगा आँचल तेरा भीगकर,

घर की दीवारों पर...
सजाएँगे हम इन तीन रंगों को....

आशा के किरण खिल अाएँगे तीन रंगों से,
उम्मीदों के उजली किरण भर लेना तुम आँखों में,
जीवन की फुलवारी रंग लेना हरे रंगों से,
हिम्मत के चादर रंग लेना केसरिया रंगों से,

दिल की आसमाँ पर....
लहराएँगे संग इन तीन रंगों को....

उम्र

ऐ उम्र, जरा ठहर!  ऐसी भी क्या है जल्दी!

अब तक बीता ये जीवन व्यर्थ ही,
अर्थ जीवन का मिला नहीं,
कुछ अर्थपूर्ण करना है अभी-अभी,
ठहर ना, तू बीत रही क्यूँ जल्दी-जल्दी? 

अभी खुल कर हमने जिया नहीं,
मन का कुछ भी  किया नहीं,
आई थी तू भी तो बस अभी-अभी,
फिर जाने की, क्यूँ ऐसी भी है जल्दी?

पथ कंटक वाली ही सभी मिली,
फूलों सी राहों पर चला नही,
पथ फूलों की दिखी है अभी-अभी,
यहीं रुक जा, जाने की क्या है जल्दी?

जितनी भी पी, वो थी गरल भरी,
अधरों से ये अमृत विरल रही,
चाहत पीने की जागी अभी-अभी,
जरा ठहर, जाने की ऐसी क्या जल्दी?

रिश्तों की कितनी गाठें खुली नहीं,
मन की गाठें भी यूँ रही बंधी,
गांठें चाहत की खुली अभी-अभी,
फिर जाने की, ऐसी भी क्या है जल्दी?

ऐ उम्र, तूने उड़ान ये कैसी भरी?
पल में ही सदियाँ ये गुजर गई,
ख्वाहिश जीनै की थी अभी-अभी,
फिर क्यूँ, तुझे जाने की ऐसी है जल्दी?

कभी हाथों में तो तू आया ही नहीं,
संग चला पर साया भी नहीं,
स्पर्श भर कर गया तू अभी-अभी,
तू बैठ जरा, यूँ बीत न तू जल्दी-जल्दी!

ऐ उम्र, जरा ठहर!  ऐसी भी क्या है जल्दी!