Tuesday 31 July 2018

तन्हाईयाँ

हँस ले जी भर के,
आज मुझपे ऐ तन्हाईयाँ,
सजेंगी महफिलें,
तब आऊंगा बुलाने मैं तुझे,
जल जाएगा तू भी,
देखकर मेरी कहकशाँ....

चलो ये माना कि,
तन्हा है आज हम यहाँ,
न है वो काफिले,
न ही है सितारों का कारवाँ,
पर ये न समझो,
कि गमगीन हैं हम यहाँ....

गूंज हूं मैं अकेला,
संग गूंजेंगी ये विरानियाँ,
दो पग भी चले,
बन ही जाएंगी पगडंडियाँ,
पथिक भी होंगे,
यूं ही बजेंगी शहनाईयाँ....

झेंप जाओगे फिर,
देख मुझको ऐ तन्हाईयाँ,
आ मिल ले गले,
है बेकार की ये रुशवाईयाँ,
क्यूं शिकवे पले,
क्यूं ये शिकायत साथिया....

Sunday 29 July 2018

भूलोगे कैसे

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

वो सूनी राहें, वो बलखाते से पल,
बहते से लम्हे, ये हवाएं चंचल,
वो टूटे पत्ते, वो बिखरा सा आँचल,
यूं मुझमें खो जाओगे तुम,
बहते लम्हों संग, उड़ आओगे तुम,
मौसम के रंग बदलेंगे,
घटा घनघोर जमकर बरसेंगे,
भिगाएंगे, मन विरहाकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

उड़-उड़कर कागा मुंडेरे पे आएंगे,
काँव-काँव कर संदेशे लाएंगे,
अकुलाहट आने की ये दे जाएंगे,
सोचोगे, राह तकोगे तुम,
सूनी राहों के पदचाप गिनोगे तुम,
कागा फिर फिर आएंगे,
मुंडेर चढ़ गाएंगे, चिढाएंगे,
तरसाएंगे, मन आकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

कुहू-कुहू कोयल झुरमुट में गाएगी,
छुप-छुप विरहा ये सुनाएंगी,
यादें मेरी लेकर वो भी आएंगी,
मन ही मन, गाओगे तुम,
कुछ गीत मेरे, यूं दोहराओगे तुम,
सूने नैने छलक आएंगे,
कोयल, रुक-रुककर गाएंगे,
जलाएंगे, मन व्याकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

Friday 27 July 2018

पथ परिचायक

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

पथ तूने जो दिखलाया मुझको,
उस पथ ही मैं रहा अग्रसर,
कंटक ही कंटक मिले थे पथ पर,
निर्बाथ चला मैं उन कांटो पर,
हँसकर सहे मैंने, दंश बड़े दुखदायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

पग-पग सांसें थी इक जंग सी,
सुख! जैसे उड़ती पतंग थी,
बातें तेरी थी मेरी राहों की शिखा,
दीपक सा मैं हरदम ही जला,
सहता रहा मैं, वो तपिश पीड़ादायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

सुख की नींद मिली ना पलभर,
दुर्गम राहों पर चलता चला,
तिल तिल जल फूल सा खिला,
हँसकर गम से गले मिला,
चुपचाप सहे, पीर बड़े कष्टदायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

अब सफल हुआ या मैं असफल,
साधना तेरी ही है मेरा संबल,
विमुख मैं इनसे पल भर भी नहीं,
नायक मेरा है बस तू ही,
साधना तेरी, अति ही सुखदायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक? 

Thursday 26 July 2018

स्वप्न मरीचिका

स्वप्न था, इक मिथ्या भान था वो!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!

ज्यूं परछाईं उभरी हो दर्पण में,
चाह कोई जागी हो मन में,
यूं ही मृग-मरीचिका सा भान हुआ!

भ्रम ने जाल बुने थे कुछ सुंदर,
आँखों में आ बसे ये आकर,
टूटा भ्रम, जब सत्य का भान हुआ!

मन फिरता था यूं ही मारा-मारा,
जैसे पागल या कोई बंजारा,
विचलित था मन, अब शांत हुआ!

छूट चुका सब स्वप्न की चाह में,
हम चले थे भ्रम की राह में,
कर्मविमुख थे पथ का ज्ञान हुआ!

सत्य और भ्रम विमुख परस्पर,
विरोधाभास भ्रम के भीतर,
अन्तर्मन जीता, ज्यूं परित्राण हुआ!

स्वप्न था, इक मिथ्या भान था वो!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!

Wednesday 25 July 2018

वीरान बस्तियां

आशियाँ उजड़े, वीरान हुई ये बस्तियां,
है बस अनुत्तरित से कुछ अनसुलझे सवाल!

एक एक कर बुझते गए दीये सारे,
धूप, अंधेरों में हौले-हौले से घुलते गए,
किरणों में सिलते गए सैकड़ों मलाल,
आसमां पर आ बिखरे रंग गुलाल!

बस्तियों से दूर हो चले ये उजाले,
सांझ हुई या हैं ये गर्त अंधेरों के प्याले,
स्तब्ध खमोश हो चले सब सहचर,
सन्नाटों में चीख रहे ये निशाचर!

छल-छल करती पसरती ये रात,
पल-पल बोझिल होता ये सूना मंजर,
हर क्षण फैला है मरघट सा आलम,
बस्तियों में व्याप चुके हैं मातम!

अब शेष रह गए हैं कुछ सवाल,
और शेष बची हैं कुछ टूटी सी तस्वीरें,
उस रौशनी का है  बस  ख्याल भर,
शायद, वापस आएं वो मुड़कर!

आशियाँ उजड़े, वीरान हुई ये बस्तियां,
है बस अनुत्तरित से कुछ अनसुलझे सवाल!

Wednesday 18 July 2018

वजह ढूंढ लें

जीने की कुछ तो वजह होगी,
बेवजह ये साँसे न यूं ही चली होंगी,
न सीने में दर्द यूं ही जगा होगा,
ये आँसू न यूं ही आँखों मे भरा होगा,
वजह कुछ न कुछ तो रहा होगा,
वजह वही चलो हम ढूंढ लें.....

नैन बेचैन रहते हैं क्यूं रातभर,
दूर अपना कोई उनसे तो रहा होगा,
नीर नैनों से न यूं ही बहे होंगे,
नैनों से उस ने कुछ तो कहा होगा,
वजह कुछ न कुछ तो रहा होगा,
चलो वजह वही हम ढूंढ लें.....

न यूं ही सजी होंगी ये वादियां,
ये पर्वत यूं ही एकाकी न हुआ होगा,
बर्फ शीष पर यूं ही न जमे होंगे,
धार बनकर नदी यूं ही न बही होगी,
वजह कुछ न कुछ तो रहा होगा,
वजह वही चलो हम ढूंढ लें.....

विहँसती हैं धूप में क्यूं पत्तियां,
पत्तियों का बदन भी तो जला होगा,
खिलते हैं हँसकर ये फूल क्यूं,
ये कांटा फूलों को भी तो चुभा होगा,
वजह कुछ न कुछ तो रहा होगा,
चलो वजह वही हम ढूंढ लें.....

जीने की कुछ तो वजह होगी,
बेवजह न उभर आया होगा रास्ता,
कुछ कदम कोई तो चला होगा,
अकेला सारी उम्र न कोई रहा होगा,
वजह कुछ न कुछ तो रहा होगा,
वजह वही चलो हम ढूंढ लें.....

Tuesday 17 July 2018

गुनगुनाती पवन

है वजह कोई या यूं ही बेवजह!
ओ रे सजन, गुनगुनाने लगी है फिर ये पवन....

कुछ तुमने कहा!
या कोई शिकायत हुई?
सुनाने लगी है क्या ये पवन?
कुछ गुनगुनाने लगी है क्यूं ये पवन?

है कौन सा राग?
या सोया कोई अनुराग,
जगाने लगी है अब ये सजन,
क्यूं गीत कोई गाने लगी है ये पवन?

ये है बैरी पवन,
सुने ना ये मेरी सजन,
बेवजह छेड़ जाए ये मेरा मन,
उलझन भरे गीत गाए क्यूं ये पवन?

ये कैसी है चुभन,
क्यूं छुए है मुझको पवन,
विरह में जलाए क्यूं ये बदन?
गीत विरहा के गाए है क्यूं ये पवन?

कुछ भीगी है ये,
जरा सी बहकी है ये,
भिगोए है बूंदो से ये मेरा तन,
गीत बरखा के गाए है क्यूं ये पवन?

है कोई वजह,
या यूं ही बेवजह,
सताने लगी है फिर ये पवन,
नया गीत कोई गाने लगी है ये सजन!

है वजह कोई या बेवजह!
ओ रे सजन, गुनगुनाने लगी है फिर ये पवन....

Monday 16 July 2018

समय की आगोश में

समय बह चला था और मैं वहीं खड़ा था ......

मैं न था समय की आगोश में,
न फिक्र, न वचन और न ही कोई बंधन,
खुद की अपनी ही इक दुनियां,
बाधा विमुक्त स्वतंत्र उड़ने की चाह,
लक्ष्य से अंजान इक दिशाविहीन उड़ान,
समय को मैं कहां पढ़ सका था?

सब कुछ तो था मेरे सम्मुख,
समय की लहर और बहती हुई पतवार,
न था पर किसी पर ऐतबार,
फिर भी सब कुछ पा लेने की चाहत,
स्व की तलाश में सर्वस्व ही छूटा था पीछे,
वो किनारा मै पा न सका था?

यूं ही पड़ी संस्कारों की गठरी,
बाहर रख दी हों ज्यूं चीजें फिजूल की,
रिवाजों से अलग नया रिवाज,
आप से तुम तक का बेशर्म सफर,
सम्मान को ठेस मारता हुआ अभिमान,
समय को मैं कहां पढ़ सका था?

अब ढूंढ़ता हूं मैं वो ही समय,
जिसकी आगोश में मैं भी ना रुका था,
विपरीत मैं जिसके चला था,
जिसकी धार में सब बह चुका था,
आचार, विचार, संस्कार अब कहां था?
हाथों से अब समय बह चला था!

और मैं मूकद्रष्टा सा, बस वहीं खड़ा था ......

Friday 13 July 2018

जीवन्त पल

आदि है यही, इक यही है अन्त,
संग गुजारे है जो पल, बस वही है जीवन्त!

इक मृत शिला सा,
मैं था पड़ा,
राह के ठोकरों सा,
मैं था गिरा,
चंद आस्था के फूल लेकर,
स्नेह स्पर्श देकर,
जीवन्त तूने ही किया....

संग बीते पल कई,
स्नेह तेरा मिला,
अब नहीं मैं मृत शिला,
भाव पाकर,
जी उठा अब ये शिला,
देवत्व सा मिला,
तेरे ही मन्दिर में खिला....

अब धड़कते हैं हृदय,
इक कंपन सी है,
नैनों में नीर आकर है भरे,
छलका है मन,
प्रारब्ध है ये प्रेम की,
या है ये अन्त मेरा,
क्षण है यही जीवन्त मेरा.....

पतझड़ है यही, यही है बसन्त,
तुम संग जो गुजरे, पल वही है जीवन्त.....

Wednesday 11 July 2018

लकीरें

मिटाए नहीं मिटती ये सायों सी लकीरें.......

कहता इसे कोई तकदीर,
कोई कहता ये है बस हाथों की लकीर,
या गूंदकर हाथों पर,
बिछाई है इक बिसात किसी ने!

यूं चाल कई चलती ये हाथों की लकीरें.......

शतरंज सी है ये बिसात,
शह या मात देती उम्र सारी यूं ये साथ,
या भाग्य के नाम पर,
खेला है यहां खेल कोई किसी ने!

लिए जाए है कहां ये हाथों की लकीरें.......

आड़ी तिरछी सी राह ये,
कर्म की लेखनी का है कोई प्रवाह ये,
इक अंजाने राह पर,
किस ओर जाने भेजा है किसी ने!

मिटती नहीं हाथ से ये सायों सी लकीरें.......

या पूर्व-जन्म का विलेख,
या खुद से ही गढ़ा ये कोई अभिलेख,
कर्म की शिला पर,
अंकित कर्मलेख किया है किसी ने!

तप्तकर्म की आग से बनी है ये लकीरें......