Friday, 28 August 2020

जिन्दगी

कुछ बारिश ही, बरसी थी ज्यादा!
भींगे थे, ऊड़ते सपनों के पर,
ऊँचे से, आसमां पर!
यूँ तो, हर तरफ, फैली थी विरानियाँ!
वियावान डगर, सूना सफर,
धूल से, उड़ते स्वप्न!

क॔पित था जरा, मन का ये शिला!
न था अनावृष्टि से अब गिला,
जागे थे, सारे सपन!
यूँ थी ये हकीकत, रहते ये कब तक!
क्या अतिवृष्टि हो तब तक?
क्षणिक थे वो राहत!

खिले हैं फूल तो, खिलेंगे शूल भी!
अंश भाग्य के, देंगे दंश भी,
प्रकृति के, ये क्रम!
यूँ अपनों में हम, यूँ अपनों का गम!
टूटते-छूटते, कितने अवलम्ब!
काल के, ये भ्रम!

राह अनवरत, चलती है ये सफर!
बिना रुके, चल तू राह पर,
कर न, तू फिकर!
तू कर ले कल्पना, बना ले अल्पना!
है ये जिन्दगी, इक साधना,
सत्य तू ये धारणा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 19 August 2020

सहिष्णुता

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर,
रक्त है तो, उबल भी सकता है ये!

ओढ़ कर चादर, हमनें झेले हैं खंजर,
समृद्ध संस्कृति और विरासत पर,
फेर लूँ, मैं कैसे नजर!
बर्बर, कातिल निगाहें देखकर!
विलखता विरासत छोड़कर!
रक्त है, मेरे भी नसों में,
उबल जाता है ये!

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर!

खोखली, धर्म-निरपेक्षता के नाम पर,
वे हँसते रहे, राम के ही नाम पर,
पी लूँ, कैसे वो जहर!
सह जाऊँ कैसे, उनके कहर,
राम की, इस संस्कृति पर!
रक्त है, मेरे भी नसों में,
उबल जाता है ये!

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर!

गढ़ो ना यूँ, असहिष्णुता की परिभाषा,
ना भरो धर्मनिरपेक्षता में निराशा,
जागने दो, एक आशा,
न आँच आने दो, सम्मान पर,
संस्कृति के, अभिमान पर,
रक्त है, मेरे भी नसों में,
उबल जाता है ये!

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर,
रक्त है तो, उबल भी सकता है ये!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 13 August 2020

पाओगे क्या

सीने पर मेरे, सर रख कर पाओगे क्या?

गर, जिद है तो....
इस सीने पर, तुम भी, सर रख लो,
रिक्त है, सदियों से ये,
पाओगे क्या?

इन रिक्तियों में.....

है कुछ भी तो, नहीं यहाँ!
हाँ, कभी इक धड़कन सी, रहती थी यहाँ,
पर, अब है, बस इक प्रतिध्वनि,
किसी के, धड़कन की,
शायद, वो ही, सुन पाओगे!
पाओगे क्या?

इन रिक्तियों में.....

इक आकृति, थी उत्कीर्ण!
पर, अब तो शायद, वो भी हैं जीर्ण-शीर्ण,
और, सोए हों, एहसासों के तार,
भर्राए हों, दरो-दीवार,
आभाष, वो ही, कर पाओगे!
पाओगे क्या?

इन रिक्तियों में.....

टूटे बिखरे, हों कुछ पल!
समेट लेना उनको, भर लेना तुम आँचल,
कुछ कंपन, एहसासों के, देना,
पर, उम्मीद न भरना,
कल, तुम भी, छल जाओगे!
पाओगे क्या!

इन रिक्तियों में.....

गर, जिद है तो....
इस सीने पर, तुम भी, सर रख लो,
रिक्त है, सदियों से ये,
पाओगे क्या?

सीने पर मेरे, सर रख कर पाओगे क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 11 August 2020

संक्षिप्त

संक्षिप्त हुए, विस्तृत पटल पर रंगों के मेले!
संक्षिप्त हुए, समय के सरमाए,
हुई सांझ, वो जब आए,
बेवजह, ठहरे सितारों के काफिले,
हुए संक्षिप्त से!

संक्षिप्त से हो चले,
लम्बी होती, बातों के सिलसिले,
रुके, शब्दों के फव्वारे,
अंतहीन, रिक्त लम्हों से भरे,
दिन के, उजियारे,
रहे, कुछ अधखिले से फूल,
कुछ चुभते शूल,
संक्षिप्त से!

संक्षिप्त से, वो पल,
पल पल, विस्तृत होते, वो पल,
सिमटने लगे, वो कल,
खनके जो, कहीं वादियों में,
चुप से, हैं अब,
गुमसुम, यूँ हीं रिक्त से,
खुद में, लिप्त से,
संक्षिप्त से!

अतृप्त मन की जमीं, भीगी यूँ अलकों तले!
ऊँघती जगती सी, पलकों तले,
विलुप्त हुए, चैनो शुकुन,
बेवजह, लड़खड़ाते नींदों के पहरे,
हुए संक्षिप्त से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 9 August 2020

विध्वंस

यूँ भड़क उठती है, कहीं पीड़ बड़ी!
ज्यूँ, विध्वंस की है घड़ी!

शून्य चेतना, गगनभेदी सी गर्जना,
टूटती शिला-खंड सी, अन्तहीन वेदना,
चुप-चुप, मूक सी पर्वत खड़ी,
विध्वंस की, है ये घड़ी!

यूँ भड़क उठती है, कहीं पीड़ बड़ी!

हर तरफ, सन्नाटों की, इक आहट,
गुम हो चली, असह्य चीख-चिल्लाहट,
अनवरत, आँसूओं की है लड़ी!
विध्वंस की, है ये घड़ी!

यूँ भड़क उठती है, कहीं पीड़ बड़ी!

टूट कर, बिखरा है कहीं ये मानव,
मिल पाते नहीं, टूटे मन के वो अवयव,
इस मन की, किसको है पड़ी?
विध्वंस की, है ये घड़ी!

यूँ भड़क उठती है, कहीं पीड़ बड़ी!

करो शंखनाद, कर शिव को याद,
सृष्टिकर्ता, दु:खहर्ता से, कर फरियाद,
जटाएं, शिव की हैं बिखरी!
विध्वंस की, है ये घड़ी!

यूँ भड़क उठती है, कहीं पीड़ बड़ी!
ज्यूँ, विध्वंस की है घड़ी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 2 August 2020

एक धारा

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे,
मन की, सँकरी गली से, वो जब भी गुजरे!

वो, भिगोते थे, कभी बारिशों में,
लरजते थे, कभी सुर्ख फूलों पे हँस कर,
यूँ, सिमट आते थे, दबे पाँव चलकर,
अब वो मिले, दो बूँद बनकर,
और, नैनों में उतरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे.......

यूँ अनवरत, बहती है, एक धारा,
यूँ, लगता है हर-पल, ज्यूँ तुम ने पुकारा,
डूबी सी साहिल, का है इक किनारा,
थोड़ा तुम्हारा, थोड़ा हमारा,
और, हम हैं ठहरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे......

यूँ भी, छलक ही जाते हैं, प्याले,
अक्सर, टूटते भी हैं, छलकते-छलकते,
वो, दो बूँद तो, हैं बस तेरी यादों के,
उलझती सी, जज्बातों के,
और, हैं ये पहरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे,
मन की, सँकरी गली से, वो जब भी गुजरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 31 July 2020

उम्मीदों के तारे

चलो के, चलने लगे हैं ये नजारे!
रोके, रुक न पाएंगे,
वो बिन तुम्हारे!

एक तुम हो के, ठहर से जाते हो,
हर बात पर,
यूँ, मुकर भी जाते हो,
ठहरेंगे, ना वो पल, बिन तुम्हारे!
रोके, रुक न पाएंगे,
सारे बे-सहारे!

यूँ तो ना बैठो, मुँह उधर फेरकर,
मन तोड़ कर,
यूँ, रंगों को छोड़ कर,
टूटे पलों से, खुद को जोड़ कर,
मर भी न पाएंगे ये,
नजर के मारे!

क्यूँ हो मलाल, बिखरे हैं गुलाल,
उस गगन पर,
क्षितिज के, कोर पर,
लम्हे हजार, खड़े उस मोड़ पर,
यूँ ही, गुजर न जाएँ,
लम्हे ये सारे!

पल-पल, संकुचित होंगे ये क्षण,
हर शाख पर,
छोड़ जाएंगे, ये निशां,
रूठो न यूँ, पलों को छोड़ कर,
यूँ ही, ढ़ल न जाए,
पलों के इशारे!

उभरेंगे, समय के, नव-संस्करण,
उस काल पर,
शायद, हम-तुम न हों!
वक्त के भाल पर, ये रंग न हो!
या, फिर हम न हों,
हमदम तुम्हारे!

चल चलें, उन्हीं पगडंडियों पर,
उसी राह पर,
बुन लें, अधूरे ये सपन,
चुन लें, वक्त के सारे संकुचन!
भर लें, फिर नयन में, 
उम्मीदों के तारे!

चलो के, चलने लगे हैं ये नजारे!
रोके, रुक न पाएंगे,
वो बिन तुम्हारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 26 July 2020

उसी पथ पर

सर्वदा, तय पथ पर, तन्हा वो सूरज चला!
बिखेर कर, दिन के उजाले,
अंततः, छोड़ कर,
तम के हवाले!
बे-वश, वो सूरज ढ़ला!

पल, थे वो गम के, जो सांझ बन के ढ़ला!
रुपहले से, उस फलक पर,
बिखरे, रंग काले,
धूमिल उजाले,
बे-रंग, हो सूरज ढ़ला!

हठात् था मैं खड़ा, उसी की सोंच में भूला!
उन्हीं अंधेरों में, खड़ा-खड़ा,
डरा था जरा-जरा,
मन था भरा,
निःशब्द, वो सूरज ढ़ला!

आस कल की लिए, उसी पथ मैं भी चला!
पीछे, क्षितिज पर, उसी के,
जा, मिलने उसी से,
उसे ही बुलाने,
बे-वश, जो सूरज ढ़ला!

सर्वथा, उसी पथ पर, अधखिला वो मिला!
प्रकीर्ण, प्रखर व स्थिर-चित्त,
खोले, दो बाहें पसारे,
गगन के पार,
हँस के, वो सूरज खिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 21 July 2020

आत्म-मंथन

खुद की परिभाषा, कैसे लिख पाऊँ!

सहज नहीं, खुद पर लिख पाना,
खुद से, खुद में छुप जाना,
कल्पित सी बातें हों, तो विस्तार कोई दे दूँ,
अपनी अवलम्बन का, ये सार,
खुद का, ये संसार,
भला, गैरों को, कैसे दे दूँ!

खुद अपनी व्याख्या, कैसे कर जाऊँ ?

मूरत हूँ माटी की, मन है पहना,
ये जाने, चुप-चुप सा रहना,
शायद हूँ, किसी रचयिता की मूर्त कल्पना!
इर्द-गिर्द, इच्छाओं का सागर,
छू जाए, आ-आकर,
कैसे, ये विचलन लिख दूँ!

चुप सा वो अनुभव, कैसे लिख पाऊँ !

उथल-पुथल, मन के ये हलचल,
राज कई, उभरते पल-पल,
परिदग्ध करते, वो ही बीते पल के विघटन!
वो गुंजन, उन गीतों के झंकार,
विस्मृत सा, वो संसार,
व्यक्त, स्वतः कैसे कर दूँ!

खुद की अभिलाषा, कैसे लिख जाऊँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 18 July 2020

बंजारे ख्वाब

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

मन के फलक, धुंधलाए हैं, हल्के-हल्के,
दूर तलक, साए ना कल के,
सांध्य प्रहर, कहाँ किरणों का गुजर,
बिखरे हैं, टूट कर ख्वाब कई,
रख लूँ चुन के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

हम-उम्र कोई होता, तो ख्वाब पिरो लेता,
पर, ख्वाबों के ये उम्र नहीं,
संजोये ख्वाब कोई, वो हम-उम्र नहीं,
छलके हैं, रख लूूँ ख्वाब वही,
आँखों में भर के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

पर, ख्वाबों के वो तारे, हो चले हैं बंजारे,
थे कल तक, जो नैन किनारे,
छोड़ चले हैं वो, इस मझधार सहारे,
रहते है, जो अब भी साथ यहीं,
बेगाने से बन के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)