Friday, 2 April 2021

फितरत

फिर उनकी ही बातें, करते मर जाने पर, 
जीते जी, जो तरसे तारीफें सुनने को!

फितरत है, ये तो इन्सानों की,
मुरझा जाने पर, करते है बातें फूलों की, 
पतझड़ हो, तो हो बातें झूलों की,
उम्र भर, हो चर्चा भूलों की!

सध जाए मतलब, तो वो रब,
कौन किसी से, मिलता है, बिन मतलब,
फिकर बड़ी, इन झूठे रिश्तों की,
फिकर किसे, है अपनों की!

एक भूल, कभी, होती भारी,
कभी अवगुण लाख, पर चलती यारी,
निभती, स्वार्थ-परक तथ्यों की,
परवाह किसे, कुकृत्यों की!

फितरत है, ये ही इन्सानों की,
अपनों से अलग, तारीफें बेगानों की,
बे-रस्म बड़े, पर बातें रस्मों की,
भान कहाँ भूले कसमों की!

फिर उनकी ही बातें, करते मर जाने पर, 
जीते जी, जो तरसे तारीफें सुनने को!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 30 March 2021

अंतःमुखी

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

खुद को, सिकतों पर उकेर आया,
पर, नाहक ही, लिखना था,
मन की बातें, सिकतों को, क्या कहना था?
उनको तो, बस उड़ना था,
मन मेरा, अंतःमुखी,
थोड़ा, था दुखी,
भरोसा, उन सिकतों पर कर आया,
खुद, जिनका ना सरमाया!

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

कुछ अनकही, पुरवैय्यों संग बही,
लेकिन, अलसाई थी पुरवाई,
शायद, पुरवैय्यों को, कुछ उनसे कहना था!
उनको ही, संग बहना था,
मैं, इक मूक-दर्शक,
वहीं रहा खड़ा,
उम्मीदें, उन पुरवैय्यों पर कर आया,
जिसने, खुद ही भरमाया!

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

मैं तीर खड़ा,लहरों से क्या कहता!
खुद जिसमें, इतनी चंचलता,
अपनी ही धुन, अनसुन जिनको रहना था,
व्यग्र, सागर संग बहना था,
मैं, इक एकाकी सा,
एकाकी ही रहा,
सागर की, उन लहरों को पढ़ आया,
बेचैन, उन्हें भी मैंने पाया!

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 29 March 2021

रंगों ने छू लिया

यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!

भारी थी इक-इक साँसें, मुस्काते वो कैसे,
मुरझाए चेहरों को, भा जाते वो कैसे,
पर, फिर जीवन की, इक उम्मीद जगी थी,
आशाओं की, इक डोर बंधी थी,
फाल्गुनी, एहसासों नें ही कुछ किया...

यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!

फीके से पल सारे, गहरे रंगों में डूब चले,
मन को, पुरवैय्यों के झौंके, लूट चले,
ये चैती बयार, मुस्काती, कुछ यूँ आई थी,
आशाओं के, कुछ पल ले आई थी,
जिन्दा, एहसासों को उसने ही किया...

यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 27 March 2021

उड़े जो रंग

उड़े जो रंग कहीं, तू ही तू, नजर आए,
हजार ख्वाब कहीं, बन के यूँ, उभर आए!

तेरे ख्यालों के, रंग हैं ये शायद,
या कोई, भ्रम है ये मेरा,
या यूँ ही, बन के इक स्वप्न, तुम उभर आए
उड़े जो रंग कहीं.....

समाए हो, इन आँखों में कहीं, 
या यहीं, ये घर है तेरा,
या यूँ ही, कोई सवाल सा, तुम उभर आए,
उड़े जो रंग कहीं.....

गुन-गुन, कोई फाल्गुन सी तू,
या, दुल्हन हो कोई,
या यूँ ही, लाल गुलाल सा, तुम उभर आए,
उड़े जो रंग कहीं.....

तेरे हैं, रंग कई, तू ही तू, नजर आए,
हजार ख्वाब कहीं, बन के यूँ, उभर आए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

चल, होली है, पागल!

चल, होली है, पागल!
यूँ छेड़ न तू, तन्हा सा गजल.....

नेह लिए प्राणों मे, दर्द लिए तानों में,
सहरा में, या विरानों में,
रंग लिए पैमानों में, फैला ले जरा आँचल,
चल, होली है, पागल!

यूँ छेड़ न तू, तन्हा सा गजल.....

आहट पर, हल्की सी घबराहट पर,
मन की, तरुणाहट पर,
मौसम की सिलवट पर, शमाँ जरा बदल,
चल, होली है, पागल!

यूँ छेड़ न तू, तन्हा सा गजल.....

विह्वल गीत लिए, अधूरा प्रीत लिए,
तन्हा सा, संगीत लिए,
विरह के रीत लिए, क्यूँ आँखें हैं सजल,
चल, होली है, पागल!

यूँ छेड़ न तू, तन्हा सा गजल.....

बरस जरा, यूँ ही मन को भरमाता,
बादल सा, लहराता,
इठलाता खुद पर, बस हो जा तू चंचल,
चल, होली है, पागल!

यूँ छेड़ न तू, तन्हा सा गजल.....
चल, होली है, पागल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 26 March 2021

फागुनी बयार

संग तुम्हारे, सिमट आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

कल तक न थी, ऐसी ये बयार,
गुमसुम सी, थी पवन,
न ही, रंगों में थे ये निखार,
ले आए हो, तुम्हीं, 
फागुनी सी, ये बयार!

संग तुम्हारे, निखर आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

जीवंत हो उठी, सारी कल्पना,
यूँ, प्रकृति का जागना,
जैसे, टूटी हो कोई साधना,
पी चुकी हो, भंग,
सतरंगी सी, ये बयार!

संग तुम्हारे, बिखर आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

तुम हो साथ, रंगों की है बात,
हर ओर, ये गीत-नाद,
मोहक, सिंदूरी सी ये फाग,
कर गई है, विभोर,
अलसाई सी, ये बयार!

संग तुम्हारे, उभर आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 24 March 2021

स्वप्न कोई खास

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

समेट कर, सारी व्यग्रता,
भर कर, कोई चुभन,
बह चली थी, शोख चंचल सी, इक पवन,
सिमटती वो सांझ,
डूबता, गगन,
कैसे न होता, एक अजीब सा एहसास,
अधीर सा करता, एक आभास!

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

दीप तले, सिमटती रात,
वो, अधूरी सी बात,
कोई जज्बात लिए, वो सांझ की दुल्हन,
डूबता सा आकाश,
खींचता मन,
दिलाता रहा, उन आहटों का पूर्वाभास,
अधीर सा करता, एक आभास!

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 22 March 2021

हक है तुम्हें

क्यूँ कोई झाँके, किसी के सूनेपन तक!
बेवजह दे, कोई क्यूँ दस्तक!

महज, मिटाने को, अपनी उत्सुकता,
जगाने को, मेरी सोई सी उत्कंठा,
देने को, महज, एक दस्तक,
तुम ही आए होगे, मेरे दर तक!

महज झांकने, सूनेपन तक....

वही पहचानी सी, आहट,
हल्की सी, पवन की सुग-बुगाहट,
सूखे पत्तों की, सर-सराहट,
काफी थे, कहने को!
तुम जो कहते,
वो, कह आए थे, चुपके से मुझको,
मन की बातें, इस मन तक!

देने को, महज एक दस्तक.....

अन्जान थे, हमेशा तुम,
सोया ही कब, उत्सुक ये मेरा मन,
हर पल, धारे इक उत्कंठा,
कहने भर, चुप जरा,
पर ओ बेखबर,
तीर पर, उठती ये पल-पल लहर,
सिमटती है, मेरे दर तक!

गूंजती है, दरो-दीवार तक......

हक है तुम्हें, तुम मिटाओ उत्सुकता,
न जगाओ मगर, यूँ मेरी उत्कंठा,
यूँ न दो, महज एक दस्तक,
ठहर जाओ, जरा मेरे दर तक!

या यूँ न झाँको, किसी के सूनेपन तक!
बेवजह दो न तुम यूँ दस्तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 21 March 2021

बैरागी

यूँ गीत न गा, ऐ बैरागी,
ठहर जरा!

चुभते हैं, ये छंद तेरे,
ज्यूँ शब्दों के, हैं तीर चले,
ना ये, बाण चला,
ठहर जरा!

तुम हो, इक बैरागी,
क्या जानो, ये पीड़ पराई,
ना ये, पीड़ बढ़ा,
ठहर जरा!

है वश में, मन तेरा,
विवश बड़ा, ये मन मेरा,
ना ये, राग सुना,
ठहर जरा!

तू क्यूँ, नमक भरे,
हरे भरे, हैं ये जख्म मेरे,
यूँ ना, दर्द जगा,
ठहर जरा!

बैरागी, क्या जाने,
जो गम से खुद अंजाने,
झूठा, बैराग तेरा,
ठहर जरा!

मुँह, फेर चले हो,
सारे सच, भूल चले हो,
सत्य, यह कड़वा,
ठहर जरा!

तुम मन, तोड़ गए,
रिश्तो के घन छोड़ गए,
ना ये, पीड़ बढ़ा,
ठहर जरा!

यूँ साध न मतलब,
कब से रूठा, मेरा रब,
यूँ न, आस जगा,
ठहर जरा!

यूँ गीत न गा, ऐ बैरागी,
ठहर जरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 14 March 2021

दोराहों पर

साथ चले होते, कुछ पल,
संशय के उन दोराहों पर, काश!
था, वहीं कही!
नीला सा, अपना भी आकाश!

हठात्, करता क्या अम्बर,
अकस्मात्, टूटा था इक विश्वास,
निर्णय-अनिर्णय के, उस दोराहे पर,
उभर आए, कितने ही सागर,
व्याकुल, लहर-लहर!

ज्यूँ, सावन में, हो पतझड़,
पात-पात, टूट बिखरे राहों पर,
मन्द हो चला हो, सावन का माधुर्य,
सांसें उखरी हों, उम्मीदों की,
अन्तः, टूटा हो स्वर!

सुलझा लेना था, संशय,
दोराहों को, दे देना था आशय,
एक पथ, पहुँचा देती मंजिल तक,
सहज, दूर होता असमंजस,
राहों में, ठहर-ठहर!

पर, हावी थी इक जिद,
अहम, प्रभावी था निर्णय पर,
रिश्ते शर्मसार हुए थे, दोराहों पर,
संज्ञा-शून्य हुए, मानव मूल्य,
तिरस्कृत, हो कर!

दर्पण, अक्श दिखाएगा,
तुझसे वो जब, नैन मिलाएगा,
पूछेगा सच, क्यूँ छोड़ा तुमने पथ?
डुबोई क्यूँ, तुमने इक नैय्या,
साहिल पर, लाकर!

साथ चले होते, कुछ पल,
संशय के उन दोराहों पर, काश!
था, वहीं कही,
नीला सा, अपना भी आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)