Monday, 28 March 2016

सांझ प्रहर फिर से दुखदाई

सांझ प्रहर आज फिर से दुखदाई,
अस्ताचल की किरणें विरहाग्नि लेकर आई,

मन के आंगन तम सा घन छाया,
मिलनातुर मन, विरह की अग्नि मे काया,

नैन निर्झर सरिता से कलकल छलके,
सुर हृदय विलाप कीे घन तड़ित सा कड़के,

विरह की यह वेला युगों से जीवन में,
साँझ प्रहर अब लगते संगी से जीवन के,

वो निष्ठुर दूर कहीं पर सदा हृदय में,
निर्दयी वो दूर पर प्यारा मुझको जीवन में,

रात दिन ज्युँ कभी मिल नहीं पाते,
सांझ घङी किन्तु दोनो नित मिलने को आते,

अगन इस विरह की ऐसे ही संग मेरे,
सांझ ढ़ले नित आ जाते ये लगने गले मेरे।

प्रेमी हृदय की मौत

धड़कता था,
वो प्रेमी हृदय,
कभी इक सादगी पर,
उस सादगी के पीछे,
छुपा मगर,
इक चेहरा अलग,
आकण्ठ डूबी हुई,
वासना में उनकी नियत,
टूटकर बिखरा पड़ा,
अब यहीं वो कोमल हृदय।

मोल मन की,
भाव का,
कुछ भी नही उनके लिए,
दंश दिलों की,
सरहदों पर,
वो सदा देते रहे,
हृदय के,
आत्मीय संबंध,
खिलौने खेल के हुए,
वासना के आगे उनकी,
सर प्रीत के हैं झुके हुए।

घुट रहा दम,
उस हृदय का,
जीते जी वो मर रहा,
वो मरे या जले,
उसकी किसी को फिक्र क्या,
अन्त ऐसा ही हुआ,
जब प्रीत किसी हृदय ने किया,
वासना के सम्मुख,
प्रीत सदा नतमस्तक हुआ।

साहिलों से भटकी लहर

इक लहर भटकी हुई जो साहिलों से,
मौज बनकर भटक रही अब इन विरानियों में,
अंजान वो अब तलक अपनी ही मंजिलों से।

सन्नाटे ये रात के कटते नही हैं काटते,
मीलों है तन्हाईयाँ जिए अब वो किसके वास्ते,
साहिलों का निशाँ दूर उस लघु जिन्दगी से।

सिसकियों से पुकारती साहिल को वो दूर से,
डूबती नैनों से निहारती प्रियतम को मजबूर सी,
खो गई आवाज वो अब मौज की रानाईयों में।

इक लहर वो गुम हुई अब समुंदरों में,
मौज असंख्य फिर भी उठ रही इन समुंदरों में,
प्राण साहिल का भटकता उस प्रियतमा में।

पुकारता साहिल उठ रही लहरों को अब,
आकुल हृदय ढूंढता गुम हुई प्रियतमा को अब,
इंतजार में खुली आँखें हैं उसकी अब तलक।

टकरा रही लहर-लहर सागर हुई वीरान सी,
चीरकर विरानियों में गुंजी है इक आवाज सी,
तम तमस घिर रहे साहिल हुई उदास सी।

वो लहर जो लहरती थी कभी झूमकर,
अपनी ही नादानियों में कहीं खो गई वो लहर,
मंजिलों से दूर भटकी प्यासी रही वो लहर।

Sunday, 27 March 2016

प्रेयसी

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही स्वप्निल झील सी नीली आँखें,
मदमाई अलसाई झुकी हुई सी पलकें,
काले-काले इन नैनों में नींद के पहरे,
जिक्र बादलों का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही होठ अधखुले दो पंखुड़ियाँ से,
लरजते, कांपते, शबनम की बूंदों में डूबे,
लालिमा इन पर सूरज की किरणों के,
जिक्र गुलाब का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही चेहरा चांदनी में धुला आभामय,
हसीन नूर सा रेशमी अक्श मुख पर लिए,
अक्श रुहानी जैसे दीप जली मन्दिर में,
जिक्र पूजा का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

आँचल तले खग का नीड़

आँचल तले बना लेता नीड़, खग एक सुन्दर सा....!

आँचल की कोर बंधी प्रीत की डोर,
मन विह्ववल, चंचल चित, चितवन चितचोर,
लहराता आँचल जिया उठता हिलकोर,
उस ओर उड़ चला मन साजन रहता जिस ओर।

नीले पीले रंग बिरंगे आँचल सजनी के,
डोर डोर अति मन भावन उस गहरे आँचल के,
सुखद छाँव घनेरी उस पर तेरी जुल्फों के,
बंध रहा मन अाँचल में प्रीत के मधुर बंधन से।

हो तुम कौन? अंजान मैं अब तक तुमसे,
लिपटा है मन अब तक धूंध मे इस आँचल के,
लहराता मैं भी नभ में संग तेरे आँचल के,
प्रीत का आँचल लहरा देती तुम जो इस मन पे।

खग सा मेरा मन आँचल तेरा नभ सा,
लहराते नभ मे दोनो युगल हंसों के जोड़े सा,
घटा साँवली सी लहराती फिर आँचल सा,
आँचल तले बना लेता नीड़, खग एक सुन्दर सा।

अनहद नाद से अंजान जीवन

उलझी जटाओं में जकड़ा गंगा सा मन,
शिवत्व को तज गंगोत्री की भ्रमन कर रहा तन,
अनंत लक्ष्य की तलाश में परेशान जीवन,
सुखद वर्तमान की अनहद नाद से अंजान जीवन।

बूंद-बूंद उल्लासित टूटकर जीवन में,
स्वाति कण नभ से बिखरे जीवन के प्रांगण में,
कण-कण जीवन के समर्पित इस क्षण में,
सुरमई रंग विहँसते कलियों के अधखुले संपुट में।

नाद वही अनहद बजा पहले जो धरा पर,
अनहद नाद कहाँ बन पाते बाकि के सारे स्वर,
कस्तूरी नाभि लिए फिरता मानव यहाँ पर,
चक्रव्युह में उलझा जीवन मृगतृष्णा की दंश झेलकर।

अंतःकरण प्रखर हो लक्ष्य यही जीवन का,
क्षुधा, पिपासा, मृगतृष्णा का अन्त लक्ष्य जीवन का,
हरपल अनहद नाह की गूंज चाह श्रवण का,
हृदय के तार-तार टूटकर भी गाएँ मधुर गीत जीवन का ।

Saturday, 26 March 2016

संबंधों का कर्ज मोक्ष पर भारी

धागे ये संबंधों के जुड़े स्नेह की गांठो से,
कब कैसे जुड़ जाते ये बंधन साँसों की झंकारों से,
ममतामयी स्पर्श स्नेहिल मधुर इन गाँठों का,
धागे ये कच्चे पर बंधन अटूट ये जन्मों-जन्मों का।

अनगिनत संबंध जीवन के भूले बिसरे से,
जीवन की आपाधापी में तड़पते कुचले-मसले से,
विरह की टीस सी उठती फुर्सत के क्षण में,
गतिशीलता जीवन की भारी स्नेह, दुलार, ममता पे।

आधार स्तम्भ जीवन के, संबंधों के दायरे यही,
कितने ही स्नेहमयी गोदों में नवजात मुस्कुराते यहीं,
कर्ज भारी इन संबंधों का ढ़ोते जीवन भर यहीं,
क्या उरृण हो पाऊँगा इस कर्ज से, मैं सोचता यही?

कर्ज इस बंधन का शायद जीवन पर है भारी,
जन्मों का यह चक्र मानव के कर्ज चुकाने की तैयारी,
गरिमामयी संबंधों को फिर से जीने की यह बारी,
मोह संबंधों के स्नेहिल बंधन के मोक्ष पर है मेरी भारी।