Thursday, 26 May 2016

खुशफहमी

इन वादियों में इस शाम को फिर आज सुरमई कर लूँ.....

गुनगुनाती हुई इन फिजाओं में,
फिर भूला सा कोई गजल मैं भी कह लूँ,
कचनार कहीं फिर घुली हवाओं में,
अपनी गजलों में कुछ ताजगी मैं भर लूँ,
नकाब रुखसार से हटे जब आपकी,
उन लरजते होठों पे शबनमी गीत कोई मैं लिख दूँ।

ये वादियाँ हैं खुशफहमी की,
फिर भरम कोई प्रीत का मन में रख लूँ,
गजलों में ढ़लती उन फिजाँओं संग,
उनकी वजूद का कुछ वहम मैं संग कर लूँ,
वो चंपई रुखसार दिखे जब आपकी,
ढ़लती हुई इस शाम को गीतों से मैं सुरमई कर दूँ।

सज गई हैं अब कतारें फूलों की,
रंग कोई प्यार का फूलों से मैं भी माँग लूँ,
ऐ मन, गीत नया फिर कोई तू सुना,
उन गीतों में साज दिलों के मैं भी छेड़ लूँ,
गिर के पलकें फिर उठे जब आपकी,
फूलों के वो रंग उन पलकों में प्यार से मैं भर दूँ।

ढ़लती हुई इस शाम को फिर आज सुरमई कर लूँ.....

Wednesday, 25 May 2016

साहिलों पे कहीं

लिखते रहे जिन्दगी की किताब सूखी साहिलों पे कहीं...

डोलती सी इक पतवार की तरह,
दूर खोए कहीं अपनी साहिल से वो थे,
उनकी फितरत तो थी टूटते एतवार की तरह,
वो साहिल के कभी तलबगार ही न थे।

मैं किताबों में बंद कहानी सा खोया साहिलों पे कहीं...

वो भँवर में रहे डूबते मौजों की तरह,
कहीं बेखबर जिन्दगी की कहानी से वो थे,
उनकी चाहत तो रही डूबते इन्तजार की तरह,
वो साहिलों के कहीं मुकाबिल ही न थे।

बिखरा है ये जीवन इन्तजार में उसी साहिलों पे कहीं...

जलती हुई चिंगारियाँ

मिट चुका है शायद, जल के वो आँशियाँ,
दिखते नहीं है अब वहाँ, जलते अनल के धुआँ,
उठ रहे है राख से अब, जलती हुई चिंगारियाँ,
जाने किस आग में, जला है वो आँशियाँ।

दो घड़ी सासों को वो, देता था जो शुकून,
वो शुकून अब नहीं, दो पल के वो आराम कहाँ,
मरीचिका सी लग रही, अब साँसों का ये सफर,
साँसों की आँधियों में, बिखरा है वो आँशियाँ ।

जल रहा ये शहर, क्या बचेगा वो आशियाँ,
आग खुद ही लगाई, अब बुझाए इसे कौन यहाँ,
अपने ही हाथों से हमने, उजाड़ा अपना ये चमन,
राख के ढ़ेर को ही अब, कह रहे हम आशियाँ।

Monday, 23 May 2016

एक आलाप जीवन का

तुम तो आलाप भर उभरती हो मेरे गीतों में ढ़लकर।

हकीकत हो तुम मेरे अर्धजीवन की,
अर्धांगिनी हो तुम ही मेरी अधूरे सपन जीवन की,
संगिनी तुम ही अनचाहे इन दूरियों की,
सपनों में तुम बिखरते हो ख्यालों से निकलकर।

क्षण-क्षण छू जाते हो तुम हर रोज मुझे,
एक नया अधूरा मनचाहा ख्वाब सा बनकर...
अर्धजीवन की राहों पर देखता हूँ मैं तुमको छूकर,
हकीकत बन जब उभरते हो ख्वाबों से चलकर।

तुम अधूरी सी गीत कल्पना की चादरो में लिपटी,
कुछ शब्द अधूरे है मेरे दामन मे भी लिपटे,
अधूरे ख्वाबों के पल मे वो गीत पूरे से बनने लगते,
ये दुनिया यूँ ही कहती है कि तुम मेरे करीब नहीं........

तुम तो आलाप भर उभरती हो मेरे गीतों में ढ़लकर।

Sunday, 22 May 2016

तृष्णा और आकांक्षा

जाने कब जगी पहली बार इक आकांक्षा मन में,

क्या तब? सृष्टि की रचना जब की रचयिता नें,
या फिर दे दी प्रबुद्धता भरकर जब उसने उस मन में,
या शायद भर दी होगी तृष्णा उसने ही जीवन में।

प्रबुद्ध तो हुए हम फिर है ये आकांक्षाएँ कैसी,
क्या विवेक के अन्दर ही अन्दर इ्च्छाएँ जन्म हैं लेती,
शायद इ्च्छाओं से ही विवश यहाँ है हर आदमी।

अनन्त इन इच्छाओं को पाने की होड़ है लगी,
आकांक्षाओं के अंदर ही अब प्रबुद्धता लुप्त हो रही,
रचयिता खुद अचम्भित गुण आध्यात्म कहाँ गई।

बदली सी फिजाँ

बदली सी है फिजाँ, अब इस शहर की मेरी,
हर शख्स ढूँढ़ता है यहाँ, इक आशियाँ अलग सी,
इक नाम मेरा है खुदा, चप्पे-चप्पे पे इस शहर की,
आशियाँ तो है मेरा, जर्रा जर्रा इस शहर की।

बदले हैं बस लोग, बदली कहाँ ये गलियाँ,
चैनो-ओ-शुकुन बदले हैं, गम ही गम है अब यहाँ,
चेहरों पे चेहरे हैं लगे, जुदा मुझसे मेरा साया यहाँ, 
दिल के करीब थे जो, गुमसुदा वो मुझसे यहाँ।

बदलते मौसमों से, बदले हैं अब रिश्ते यहाँ,
मुरझा चुके है फूल सब, रिश्तों के धागे लहुलुहाँ,
हर धड़कते दिलों के अन्दर, दर्द के सैकड़ों निशाँ,
लब्जों में छुपे हैं खंजर, मन से उठता है धुआँ।

सोचता हूँ आज मैं, कब लोग समझेंगे यहाँ,
रिश्तों की भीनी खुश्बुओं में, हम साँस लेते हैं यहाँ,
अंश नई कोपलों से कोमल, लहलहाते हैं अपने यहाँ,
हम धूल हैं इस शहर की, ये शहर है आशियाँ मेरा।

Saturday, 21 May 2016

अकथ्य प्रेम तुम

अकथ्य ही रहे तुम इस मूक़ प्रेमी हृदय की जिज्ञासा में!

ओ मेरी हृदय के अकथ्य चिर प्रेम-अभिलाषा,
चिर प्यास तुम मेरे हृदय की,
उन अभिलाषित बुंदों की सदा हो तुम ही,
रहे अकथ्य से तुम मुझ में ही कहीं,
हृदय अभिलाषी किंचित ये मूक सदा ही!

ओ मेरी हृदय के अप्रकट प्रेमी हम-सानिध्या,
चिर प्रेमी तुम मेरे हृदय की,
हम-सानिध्य रहे सदा तुम यादों में मेरी,
अप्रकट सी कहीं तुम मुझ में ही,
हृदय आकुल किचिंत ये मूक़ सदा ही!

ओ मेरी हृदय के अकथ्य चिर-प्यासी उत्कंठा,
चिर उत्कंठा तुम मेरे हृदय की,
प्यासी उत्कंठाओं की सरिता तुम में ही,
अनबुझ प्यास सी तुम मुझ में ही,
हृदय प्यासा किंचित ये मूक सदा ही!

अकथ्य ही रहे सदा तुम इस मूक़ हृदय की जिज्ञासा में!