Monday, 19 April 2021

नारायण ही जाने

हम तो ठहरे, अन्जाने,
नारायण ही जाने, वो क्या-क्या जाने!

इक उम्र को, झुठलाते,
विस्मित करती, उनकी न्यारी बातें,
कुछ, अनहद प्यारी,
कुछ, उम्मीदों पर भारी!

नारायण ही जाने......

बातें, या जीवन दर्शन,
वो ओजस्वी वक्ता, हम श्रोतागण,
वो शब्द, अर्थ भरे,
जाने क्यूँ, निःशब्द करे!

नारायण ही जाने......

उनकी, बातों में कान्हा,
उनकी, शब्दों में कान्हा सा गाना, 
शायद, वो हैं राधा,
व्यथा, कहे सिर्फ आधा!

नारायण ही जाने......

जाने वो, क्षणिक सुख!
पर वो, भटके ना, उनके सम्मुख,
अनबुझ सी, प्यास,
या, प्रज्ज्वलित सी आस!

नारायण ही जाने......

हम तो ठहरे, अन्जाने,
नारायण ही जाने, वो क्या-क्या जाने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

रक्तरंजित बिसात

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

कौन जाने, क्या हो अगले पल!
समतल सी, इक प्रवाह हो, 
या सुनामी सी हलचल!
अप्रत्याशित सी, इसकी हर बात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

प्राण फूंक दे या, ये हर ले प्राण!
ये राहें कितनी, हैं अंजान!
अति-रंजित सा दिवस,
या इक घात लगाए, बैठी ये रात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

जाल बिछाए, वक्त के ये मोहरे,
कब धुंध छँटे, कब कोहरे,
कब तक हो, संग-संग,
कब संग ले उड़े, इक झंझावात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

कोरोना, वक्त का धूमिल होना,
पल में, हाथों से खो देना,
हँसते-हँसते, रो देना,
रहस्यमयी दु:खदाई, ये हालात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 18 April 2021

उभरता गजल

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

दैदीप्य सा, इक चेहरा, है वो,
सब, नूर कहते हैं जिसे,
पिघल कर, उतर आए जमीं पर,
चाँद कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

बड़ी ही, सुरीली सी सांझ ये,
सब, गीत कहते हैं जिसे,
जो, नज्म बनकर, गूंजे दिलों में, 
गजल कहते हैं, 
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

चह-चहाहट, या तेरी आहट,
कलरव, समझते हैं उसे,
सुरों की, इक लरजती रागिणी,
संगीत कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

मायूस ख्याल

लबों पे, ठहर जाते हैं, कुछ सवाल,
मायूस से, कुछ ख्याल!

उन पर, आ ही जाता है, रहम,
सो, चलाता हूँ कलम,
कागजों पर, 
टूट जाते है, सारे ही भरम,
बिखर जाते हैं,
सवाल!

मायूस से, कुछ ख्याल!

न जाने क्यूँ, कुछ बोलते नहीं!
क्यूँ लब, खोलते नहीं,
सिलते हैं ये,
बुनते हैं, सारे ही बवाल,
सिमट जाते है,
सवाल!

मायूस से, कुछ ख्याल!

क्या करे, बेजान से ये कागज!
नादान से, ये कागज,
ये कहे कैसे,
अधलिखे, हैं जो ख्याल,
मुकर जाते हैं, 
सवाल!

लबों पे, ठहर जाते हैं, कुछ सवाल,
मायूस से, कुछ ख्याल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 17 April 2021

सब्र

यूँ, सब्र के धागों को तुम तोड़ो ना!

हो, कितनी दूर, हकीकत, 
पर, मुमकिन है, सच को पा लें हम,
यूँ ही, खो जाने की बातें,
अब और करो ना!

सच से, यूँ ही आँखें तुम फेरो ना!

अन्धियारा, छा जाने तक,
चल, बुझता इक दीप, जला लें हम,
यूँ ही, घबराने की बातें, 
अब और करो ना!

यूँ ही, आशा का दामन छोड़ो ना!

जाना है, उन सपनों तक,
हकीकत ना बन पाए, जो अब तक,
यूँ, मुकर जाने की बातें,
अब और करो ना!

जज्ब से, जज्बातों को मोड़ो ना!

हो, कितनी दूर, हकीकत,
यूँ सच को, झुठलाए कोई कब तक,
यूँ ही, बैठ जाने की बातें,
अब और करो ना

यूँ, जीवन से आँखें तुम फेरो ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 15 April 2021

किस्सों में थोड़ा सा

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

मुकम्मल सा, इक पल,
उत्श्रृंखल सी, इठलाती इक नदी,
चंचल सी, बहती इक धारा,
ठहरा सा, इक किनारा!

सपनों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

धारे के, वो दो किनारे,
भीगे से, जुदा-जुदा वो पल सारे,
अविरल, बहती सी वो नदी,
ठहरी-ठहरी, इक सदी!

सवालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

अधूरी सी, बात कोई,
जो तड़पा जाए, पूरी रात वही,
याद रहे, वो इक अनकही,
रह-रह, नैनों से बही!

ख्यालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

रुक-रुक, वो राह तके,
इस चाहत के, कहाँ पाँव थके!
उभर ही आऊँ, मैं यादों में,
जिक्र में, या बातों में!

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

पत्ता

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

ऋतुमर्दन ही होना था, इक दिन तेरा, 
ऋतुओं में ही, खोना था,
ऋतुओं पर, ना करना था यूँ एतबार,
ऋतु पालक, ऋतु संहारक,
ऋतुओं से, रखना था, विराग जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

डाली पर पनपे, यूँ डाली से ही छूटे!
बिखरे, यह कैसी, इति!
व्यक्त और मुखर, ऋतुओं से बेहतर,
अभिव्यक्ति ही था कारण,
मौसमों में, रहना था अव्यक्त जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

निखर आए, तेरे अंग, ऋतुओं संग,
यूँ, नजरों में, चढ़ आए,
ऋतुओं संग, पनपता, अनुराग तेरा,
शायद, अखरा हो उनको,
डाली को करना था, विश्वास जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)