Thursday, 25 September 2025

व्यतीत

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

व्यतीत, हुआ जाता हूं, पल-पल,
अतीत, हुआ जाता हूं,
फलक पर, उगता था, तारों सा रातों में,
कल तक था, सबकी आंखों में,
अब, प्रतीत हुआ जाता हूं! 

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

कल, ये परछाईं भी संग छोड़ेगी,
हर पहलू मुंह मोड़ेगी,
सायों सा संग था, खनकता वो कल था,
सर्दीली राहों में, वो संबल था,
अब, प्रशीत हुआ जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

जाते लम्हे, फिर लौट ना आयेंगे,
कैसे अतीत लौटाएंगे,
लम्हे जो जीवंत थे, लगते वो अनन्त थे,
अंत वहीं, वो उस पल का था,
इक गीत सा ढ़ला जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

छिन जाएंगे, शेष बचे ये पहचान,
होगी शक्ल ये अंजान,
आ घेरेंगी शिकन, शख्त हो चलेंगे पहरे,
कल तक, धड़कन में कंपन था,
अब, प्रतीक बना जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

क्षण, ज्यूं क्षणभंगुर, हुआ व्यतीत,
क्षण यूं ही बना अतीत,
फलक पर, वो तारा ही कल ओझल हो,
ये आंखें सबकी भी बोझिल हों,
यूंही, प्रतीत हुआ जाता हूं! 

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

Sunday, 21 September 2025

अचानक

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए!

धुआं, खुद ही छट जाएगा,
हट जायेगा, धुंध, 
रख कर, खुद को अलग,
इस आग को, होने दीजिए, स्वतः सुलग,
फूटेगी इक रोशनी,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

स्वतः, जम जाते हैं कोहरे,
कोहरों का क्या?
उमड़ते रहते हैं ये बादल,
बूंदें स्वतः ही संघनित होती है हवाओं में,
सुलगेगी जब आग,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

धुंधली ना हो जाए यकीन, 
जरा दो भींगने,
विश्वास की सूखी जमीं,
बरसने दो बादलों को, हट जाने दो नमीं,
उभरने दो आकाश,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

कभी, मन को भी कुरेदिए,
ये परतें उकेरिए,
दबी मिलेंगी, कई चाहतें,
उभर ही उठेंगी, कोमल पलों की आहटें,
बज उठेगा संगीत,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

Monday, 8 September 2025

चुप जो हुए तुम

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

रही अधूरी ही, बातें कई,
पलकें खुली, गुजरी न रातें कई,
मन ही रही, मन की कही,
बुनकर, एक खामोशी,
छोड़ गए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

पंछी, करे क्या कलरव!
तन्हा, उन शब्दों को कौन दे रव!
ढ़ले अब, एकाकी ये शब,
चुनकर, रास्ते अलग,
गुम हुए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

शायद, मिल भी जाओ!
हैं जो बातें अधूरी, फिर सुनाओ!
फिर, ये चूड़ियाँ खनकाओ,
यहीं, रख कर जिन्हें,
भूल गए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

Saturday, 6 September 2025

शुक्रिया पाठकगण - 500000 + Pageview

500000 (+) पेज व्यू - शुक्रिया पाठकगण


माननीय पाठकगण,

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कामना है कि जीवन एक यात्रा के समान आपके साथ यूं ही बीतता रहे....
हमारे इस ब्लॉग पर बारंबार पधारने और आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देने हेतु हार्दिक आभार।  आपके सतत् सहयोग, उत्साहवर्धन व प्रेरणा के बिना यह संभव न हो पाता।

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समस्त Referring साइट्स एवं विश्व भर के पाठकों का अभिवादन।।।।

कोटिशः धन्यवाद, नमन व आभार।

Thursday, 4 September 2025

आत्मश्लाघा

कर, स्मृतियों को, आत्म-साथ, 
मुग्ध होते थे, पल सारे,
कुंठित मन, अब इन विस्मृतियों से हारे,
हुई स्याह, वो, गलियां!

शायद, धूमिल हो रही स्मृतियाँ,
पसर गईं, स्याह परतें,
मुकर गई, स्मृतियों में लिपटी वो गलियां,
बिखर गई, विस्मृतियाँ!

खुल कर, बिखरे, बुने जो धागे,
नैन उनींदें, अब जागे,
बिखरती, आत्मश्लाघा में पिरोई लड़ियां,
पसरती, ये विस्मृतियाँ!

अब उलझाता, मन को, ये द्वंद्व,
बोझिल सा, हर छंद,
उकेर दूं स्याह परतें, उकेरूँ विस्मृतियाँ,
उकेर दूं, विसंगतियां!

शायद, पुनः, मुखर हो स्मृतियाँ,
आत्मश्लाघित दुनियां,
पुनः कर पाऊं, आत्म-साथ उन को ही,
पुनः रौशन हो गलियां!

Monday, 1 September 2025

अनवरत प्रवाह

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

है जीवन, तो है ये चंचलता,
शाश्वत है, जीवंतता,
खुद को ये बुनता,
स्वतः ही, उठता इक लहर सा,
स्वयं, प्रवाह बन चलता,
उफनती मझधार में,
ये ही संबल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

गुदगुदाती, बहती ये पवन,
यूं, रोक लेते कदम,
यूं, छू लेते बदन,
सरकती, यूं जमीं कदमों तले,
सोए, एहसासों को लगे,
ज्यूं, संग कोई चले,
और दे संबल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

बिन पूछे, उभर आते रंग,
खींच ले जाते, संग,
वो चटकते अंग,
लहराती, झूमती सी ये वादियां,
मुखर होती ये कलियां,
पंछियों के कलरव,
मीठे हलचल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

Wednesday, 27 August 2025

अब जो हुआ


अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

इन संवेदनाओं को अब, सहेजना होगा,
ढ़ाल कर, कहीं चेतनाओं में,
मूर्त कल्पनाओं में,
भरकर अल्पनाओं में, रखना होगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

पल जो हुए कल, रुलाएंगी वो ही कल,
जागते वो ही पल, होंगे मूर्त,
जगाएंगे, व्यर्थ में,
अब जो हैं ये पल, उन्हें सीना होगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

अब बिंब हो उठी हैं, समस्त असंवेदना,
सुसुप्त सी हो चली, चेतना,
सहेजे, कौन भला,
अब जो ढ़ल रहा, ये पल न रुकेगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

बिखेरेंगे न ये रंग, वेदनाओं के आंगन,
दोहराएंगे, न ये गीत कोई,
अनसुना, सब कहा,
लौट कर, फिर न अब दोहराएगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....