Wednesday 10 February 2016

रुके हुए शब्द

छलकते नैनों से बह गए हैं नीर निर्झर,
थरथराते लबों के शब्द गए हैं  निःशब्द,
ओस की बूंदों सी छलकी हैं नीर नीरव,
कहानी कोई अनकही रह गई है शायद।

झर झर निर्झर सी बह रही है अब आँखें,
खामोशियाँ की जुबाँ कह गई है सब बातें,
छलकते नीर शब्द बन गईं हैं अब लबों पे,
आह, दारुणिक कथा कितनी इन नैनों के।

रोक लेता कोई नीर, नैन छलकने से पहले,
निःशब्द को जुबाँ देता कोई कहने से पहले,
काँपते अधरों को शब्द दे जाता कोई पहले,
व्यथा कोई सुन लेता नैन छलकने से पहले।

छलकते प्याले

छलकते प्यालों की उम्र लेकर,
समय की कालचक्र में घूमता जीवन,
प्यालों की विसात क्या, किस पल छूटे हाथों से,
छलकती जाती जीवन इन प्यालों से।

कब टूटेगी हाथों से गिरकर,
साँसें कब छलकेगी प्यालों में मचलकर,
परिधि जीवन के प्याले की, पुकारती रह रहकर,
गति कालचक्र की चंचल तेज प्रखर।

प्याले ही तो है हम जीवन के,
भरकर जाम हममें पी रहा वो मतवाला,
शोक मनाता तू फिर क्यों, टूटी जो जीवन प्याला,
रचयिता भर लाएगा, फिर नई इक हाला।

टूटते हैं प्याले तो टूटने दे,
हाला प्याले की कालचक्र के हाथों में दे,
काल परिधि में रम, घूँट हाला की तू भी पी ले,
प्याला तो प्याला है, छलकने इनको दे।

Tuesday 9 February 2016

सिसकी की प्रतिध्वनि

रूक रूक कर गूंजती एक प्रतिध्वनि,
रह रह कर सुनाई देती कैसी सिसकी,
कौन सिसक रहा आधी रात को वहाँ?

किस वेदना की है करुण पुकार यह,
रह रह कर उठती यह चित्कार कैसी,
छनन छन टूटने की आवाज है कैसी?

क्रंदन किसी बाला की है यह शायद,
दुखता है मन उस बाला की वेदना से,
क्या आसमान टूटा है उस बाला पे?

अनमनी चल रही हैं क्यूँ साँसें उसकी,
अन्तस्थ छलनी कर गई यह सिसकी,
हृदय-विदारक प्रतिध्वनि गूंजती क्युँ?

रूप लावण्य

रूप लावण्य चंद क्षणों का छंद,
धरा का लावण्य व्यक्त स्वच्छंद,
धरा सी सुंदर रूप धरो हर क्षण,
व्यक्त करो खुद को तुम स्वच्छंद।

विस्तृत धरा रूप लावण्य मनोहर,
व्यक्तित्व उदार अति-सुंदर प्रखर,
स्वच्छंदता आरूढ़ सुंदर पंखों पर,
लावण्य के आवर्त ये मधुर निरंतर।

व्यक्तित्व इक पहलु लावण्य का,
प्रखर करो तुम छंद व्यक्तित्व का,
धरा सी निखरे व्यक्तित्व स्वच्छंद,
रूप लावण्य निखरेगा उस क्षण।

रुको, तुम रुक जाओ इस आंगन में!

रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

जीवन की इस संकुचित निशा प्रहर में,
मिले हो भाग्य से तुम इस भटकी दिशा प्रहर में,
संजोये थे हमने अरमान कई उस प्रात प्रहर में,
बीत रहा ये निशा प्रहर एकाकी मन प्रांगण में,

रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

कहनी है बातें कई तुमसे अपने मन की,
संकुचित निशा प्रहर अब रोक रही राहें मन की,
चंद घड़ी ही छूटीं थी फुलझरियाँ इस मन की,
सीमित रजनी कंपन ही क्या मेरे भाग्य परिधि में?

रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

मेरी अधरों से जो सुनती तुम निशा वाणी,
मुखरित अधर पुट तेरे भी कहते कोई प्रणय कहानी,
कुछ संकोच भरे पल कुछ संकुचित हलचल,
ये पल मुमकिन भी क्या मेरे इस लघु जीवन में?

रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

शिथिल हो रहीं सांसें इस निशा प्रहर में,
कांत हो रहा मन देख तारों को नभ की बाँहों में,
निशा रजनी डूब रही चांदनी की मदिरा में,
प्रिय मैं भूला-भुला सा हूँ तेरे यादों की गलियों में,

रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

Monday 8 February 2016

तन्हाई की आवाज

सुन लो आवाज तन्हाईयों की,
बज रही दिल में जो शहनाईयों सी,
नग्मा ए गम से सिहर उठी हैं वादियाँ भी,
उन सदाओं मे गुम हुई मेरी आवाज कहीं।

तन्हा तन्हा सफर जिन्दगानी की,
मौजे तन्हाई में डूबी है ये कहानी भी,
पतझड़ की बयार से बिखरे हैं पत्ते सभी,
आँसुओं मे डूब गई हैं शाख ए गुल भी कहीं।

अजनबी

अजनबी से हर चेहरे यहाँ दिखते,
अजनबी से लोग बातें भी अजनबी सी करते,
सूबसूरत से किस्से लेकिन पराए से लगते।

अजनबी शहर ये रीत अजनबी से,
दीवानगी अजनबी सी मुफलिसी अजनबी से,
चेहरों पे चेहरे लगे हर किसी के यहाँ दिखते।

अजनबी लोग क्युँ अक्श सोचता मेरा!
दिखते सब हैं इक जैसे, पर सारे यहाँ अजनबी,
बेगानों की बस्ती मे रिश्ते भी अजनबी से लगते। 

गैरों से अपने अजनबी सा अपनापन,
रास्तोें की आहटें, रिश्तों की गर्माहटें यहाँ अजनबी,
खामोशियाँ तोड़ती हैं पत्तियों की बस सरसराहटें।

जीवन ही जीवन

जीवन ही जीवन होता अंकुरित यहाँ,
हर ओर बिखरा यूँ रूप-सौन्दर्य यहाँ,
कहीं स्वर धारा विविध तरंग भरती,
कही मौन पृथ्वी रस सुधा बरसाती।

सूर्य की प्रदक्षिणा में मगन सब यहाँ,
आकाश में उमड़ते बादल मंडल रवाँ,
दशाें दिशा दौड़ता जीवन प्रवाह यहाँ,
जीवन की तरुनाई से मन भरा कहाँ।

इस ओर उस ओर नयन देखते अब,
अभिवादन करते हैं प्रभात का सब,
प्रीत के आँसू आँखों से बहते हैं तब,
आह्लादित जीवन के सहस्रदल सब।

पन्ने खाली हैं आज

पन्ने खाली  हैं क्युँ आज  जिन्दगी के,
बनती क्युँ नही कोई कहानी अब यहाँ,
हादशों का सफर लगती है ये जिन्दगी,
विरानियों के साए में ये पन्ने अब यहाँ।

पन्ना पन्ना कभी सजता था फूलों सा,
कहता था हर पन्ना राज जिन्दगी का,
इन पन्नों को अब मिलते नहीं शब्द क्युँ,
खो गई है मायने इन पन्नों के आज कहाँ।

खाली पन्ने भी बयाँ करती कोई दासताँ,
दर्द कह जाती है मौन पन्नों की जुबाँ,
पन्ने जिन्दगी के फिर से हसेंगी शायद,
विरानियाँ पन्नों की ढुंढेगी फिर नईं जुबाँ।

यूँ ही मिलती रहो हमेशा

मिलती रहो यूँ तुम हमेशा,
चंद खबर तुम अपनी ही कहो,
कुछ मेरी भी सुृधि ले लो।

आती रहो सपनों में हमेशा,
कुछ पल तो दरश तुम्हरी मिले,
कभी तुम मेरी खबर ले लो।

करती रहो मनमानी तुम हमेशा,
बस फासलों से यूँ ही गुजरती रहो,
कुछ क्षण तो यूँ साथ चलो।

गुजरती रहो ख्यालों से हमेशा,
कुछ तारीफ अपनी मुझसे सुन लो,
ख्यालों मे ही सही यूँ संग चलो।

यूँ ही दरमियाँ में रहो हमेशा,
इस जनम फासलों की ही सुन लो,
कभी तुम मेरी फिकर कर लो।