Tuesday, 9 February 2016

रुको, तुम रुक जाओ इस आंगन में!

रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

जीवन की इस संकुचित निशा प्रहर में,
मिले हो भाग्य से तुम इस भटकी दिशा प्रहर में,
संजोये थे हमने अरमान कई उस प्रात प्रहर में,
बीत रहा ये निशा प्रहर एकाकी मन प्रांगण में,

रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

कहनी है बातें कई तुमसे अपने मन की,
संकुचित निशा प्रहर अब रोक रही राहें मन की,
चंद घड़ी ही छूटीं थी फुलझरियाँ इस मन की,
सीमित रजनी कंपन ही क्या मेरे भाग्य परिधि में?

रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

मेरी अधरों से जो सुनती तुम निशा वाणी,
मुखरित अधर पुट तेरे भी कहते कोई प्रणय कहानी,
कुछ संकोच भरे पल कुछ संकुचित हलचल,
ये पल मुमकिन भी क्या मेरे इस लघु जीवन में?

रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

शिथिल हो रहीं सांसें इस निशा प्रहर में,
कांत हो रहा मन देख तारों को नभ की बाँहों में,
निशा रजनी डूब रही चांदनी की मदिरा में,
प्रिय मैं भूला-भुला सा हूँ तेरे यादों की गलियों में,

रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

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