Sunday 29 September 2019

गुजरता वक्त

वक्त है गतिमान, रिक्त है वर्तमान,
वक्त से विलग, बस बचा है ये वियावान,
और है बची, इक मृग-मरीचिका,
सुनसान सा, कोई रेगिस्तान!

रिक्त से हैं लम्हे, सिक्त हैं एहसास,
गुजरता वक्त, छोड़ गया है कुछ मेरे पास!
अंदर जागी है, इक अकुलाहट सी,
जैसे कुछ थम सी गई है साँस!

वो समृद्ध अतीत, ये रिक्त वर्तमान,
खाली से हाथ, पल-पल टूटता अभिमान,
दूर से चिढ़ाता हुआ, वो ही आईना,
था कल तक, जिस पर गुमान!

जाने लगी है दूर, मरुवृक्ष की छाया,
कांति-विहीन, दुर्बल, होने लगी है काया,
सिमटने लगी हैं, धुंधली सी सांझ,
न ही काम आया, ये सरमाया!

सब लगता है, कितना असहज सा,
जैसे अपना ही कुछ, हो चुका पराया सा,
कैद हों चुकी हैं, जैसे कुछ तस्वीरें,
यादों में है बसा, चुनवाया सा!

है असलियत, गुजर जाता है वक्त,
तकती हैं ये हताश आँखें, होकर हतप्रभ,
तलाशती है "क्या कमी है मुझमें",
ढ़ूँढ़ती है, बीता सा वही वक्त!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

10 comments:

  1. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (30-09-2019) को " गुजरता वक्त " (चर्चा अंक- 3474) पर भी होगी।

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  2. भूली हुई यादों, मुझे इतना न सताओ,
    अब चैन से रहने दो, मेरे पास न आओ.

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    1. जी, सच की व्याख्या है आपकी आदरणीय गोपेश जी। बहुत-बहुत धन्यवाद ।

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  3. है असलियत, गुजर जाता है वक्त,
    तकती हैं ये हताश आँखें, होकर हतप्रभ,
    तलाशती है "क्या कमी है मुझमें",
    ढ़ूँढ़ती है, बीता सा वही वक्त!
    मन की उहापोह को बहुत ही बेहतरीन ढंग से उकेरती रचना पुरुषोत्तम जी | कई बार समय के बदलाव को मन सहजता से स्वीकार ही नहीं पाता और इन्ही प्रश्नों में उलझा रहता है | |

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  4. ब्लॉग पहले से कहीं आकर्षक हो गया है पुरुषोत्तम जी | अक्षरों की बनावट विशेष लग रही है मुझे |काश !मैं अपने ब्लॉग पर ऐसे अक्षर ला पाती |

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    1. सदैव कृतज्ञ हूँ आपका आदरणीया रेणु जी। आपका स्नेह ही मेरा संबल है।

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