ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!
समृद्ध संस्कृति, सुसंस्कृत व्यवहार,
प्रबुद्ध प्रवृत्ति, सद्गुण, सद्-विवेक, सदाचार,
हो चले हैं काल-कवलित, ये सारे संदर्भ,
यूँ घेर रहे है मुझको, अब मेरे ही दर्प,
बतला दे, वो ही पुरखों की बातें!
प्रबुद्ध प्रवृत्ति, सद्गुण, सद्-विवेक, सदाचार,
हो चले हैं काल-कवलित, ये सारे संदर्भ,
यूँ घेर रहे है मुझको, अब मेरे ही दर्प,
बतला दे, वो ही पुरखों की बातें!
ओ! विस्मृत सी यादें, विस्तृत हो, पर फैला दे!
भरमाया हूँ, तुझको ही भूला हूँ मैं,
सम्मुख हैं पंख पसारे, विस्तृत सा आकाश,
छद्म सीमाओं में, इनकी ही उलझा हूँ मैं,
नव-कल्पनाओं का, दिला कर भास,
मंथन कर, अपनी याद दिला दे!
सम्मुख हैं पंख पसारे, विस्तृत सा आकाश,
छद्म सीमाओं में, इनकी ही उलझा हूँ मैं,
नव-कल्पनाओं का, दिला कर भास,
मंथन कर, अपनी याद दिला दे!
ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!
उलझाए हैं, दिशाहीन सी ये राहें,
सपनों से आगे, दूर कहीं ये मन जाना चाहे,
भटका हूँ, इक उलझन में, दोराहे पर मैं,
तू यूँ तो ना उलझा, सोए विवेक जगा,
हाथ पकड़, कोई राह दिखा दे!
सपनों से आगे, दूर कहीं ये मन जाना चाहे,
भटका हूँ, इक उलझन में, दोराहे पर मैं,
तू यूँ तो ना उलझा, सोए विवेक जगा,
हाथ पकड़, कोई राह दिखा दे!
ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!
संग तुम थे, तो चाहत थी जिन्दा,
दूर हुए तुम जब से, हम खुद से हैं शर्मिन्दा,
हूँ सद्गुण से विरक्त, पीछे छूटा कर्म पथ,
विरासत अपनी ही, भूल चुका हूँ मैं,
संस्कार मेरे, मुझको लौटा दे!
दूर हुए तुम जब से, हम खुद से हैं शर्मिन्दा,
हूँ सद्गुण से विरक्त, पीछे छूटा कर्म पथ,
विरासत अपनी ही, भूल चुका हूँ मैं,
संस्कार मेरे, मुझको लौटा दे!
ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!
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आत्मविस्मृति
[सं-स्त्री.] - अपने को भूल जाना; किसी फँसाव के चलते ख़ुद का ध्यान न रखना; बेख़ुदी।
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आत्मविस्मृति
[सं-स्त्री.] - अपने को भूल जाना; किसी फँसाव के चलते ख़ुद का ध्यान न रखना; बेख़ुदी।
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (14-10-2019) को "बुरी नज़र वाले" (चर्चा अंक- 3488) पर भी होगी।
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रवीन्द्र सिंह यादव
सादर आभार ।
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