ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!
यूँ, न जा, दर-बदर,
पहर दोपहर, यूँ सपनों के घर,
जिद् ना कर,
तू ठहर,
मेरे आंगण यहीं!
ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!
इक काँच का बना,
आहटों पर, टूटती हर कल्पना,
घड़ी दो घड़ी,
आ इधर,
चैन पाएगा यहीं!
ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!
वो तो, एक सागर,
सम्हल, तू ना भर पाएगा गागर,
नन्हा सा तू,
डूब कर,
रह जाएगा वहीं!
ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!
कब बसा, ये शहर,
देख, टूटा ये कल्पनाओं का घर,
टूटा वो पल,
रख कर,
कुछ पाएगा नहीं!
ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!
क्यूँ करे तू कल्पना,
कहाँ, ये कब हो सका है अपना,
बन्जारा सा,
बन कर,
बस फिरेगा वहीं!
ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
अति सुंदर रचना
ReplyDeleteहृदयतल से आभार।।।।
Deleteठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
ReplyDeleteतू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!मन ही मन, मन को को समझना।मन में उतर गया।सराहनीय सृजन।
सादर
शुक्रिया आदरणीया अनीता जी। आभार।
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ReplyDeleteक्यूँ करे तू कल्पना,
कहाँ, ये कब हो सका है अपना,
बन्जारा सा,
बन कर,
बस फिरेगा वहीं
बेहतरीन रचना आदरणीय।
शुक्रिया आदरणीया अनुुराधा जी। आभार।
Deleteमन पर लगाम जरुरी है अपना, वर्ना भटकन के अलावा कुछ हाथ नहीं आता कभी
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया कविता रावत जी। आभार।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 04 मार्च 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय। ।।।
Deleteबेहतरीन भावभीनी प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय मयंक सर। सराहना हेतु आभारी हूँ।
Deleteमन को कितना भी समझाओ, वो कहां ठहरने वाला ।
ReplyDeleteवो तो अलमस्त है , हर पल हर क्षण चलने वाला ।
..सुंदर सृजन ..
शुक्रिया आदरणीया जिज्ञासा जी। सराहना हेतु आभारी हूँ।
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