Thursday, 4 March 2021

ठहर ऐ मन

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

यूँ, न जा, दर-बदर,
पहर दोपहर, यूँ सपनों के घर,
जिद् ना कर,
तू ठहर,
मेरे आंगण यहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

इक काँच का बना,
आहटों पर, टूटती हर कल्पना,
घड़ी दो घड़ी, 
आ इधर,
चैन पाएगा यहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

वो तो, एक सागर,
सम्हल, तू ना भर पाएगा गागर,
नन्हा सा तू,
डूब कर,
रह जाएगा वहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

कब बसा, ये शहर,
देख, टूटा ये कल्पनाओं का घर,
टूटा वो पल,
रख कर,
कुछ पाएगा नहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

क्यूँ करे तू कल्पना, 
कहाँ, ये कब हो सका है अपना,
बन्जारा सा,
बन कर,
बस फिरेगा वहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

14 comments:

  1. अति सुंदर रचना

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  2. ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
    तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!मन ही मन, मन को को समझना।मन में उतर गया।सराहनीय सृजन।
    सादर

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    1. शुक्रिया आदरणीया अनीता जी। आभार।

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  3. क्यूँ करे तू कल्पना,
    कहाँ, ये कब हो सका है अपना,
    बन्जारा सा,
    बन कर,
    बस फिरेगा वहीं
    बेहतरीन रचना आदरणीय।

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    1. शुक्रिया आदरणीया अनुुराधा जी। आभार।

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  4. मन पर लगाम जरुरी है अपना, वर्ना भटकन के अलावा कुछ हाथ नहीं आता कभी

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    1. शुक्रिया आदरणीया कविता रावत जी। आभार।

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  5. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 04 मार्च 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय मयंक सर। सराहना हेतु आभारी हूँ।

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  7. मन को कितना भी समझाओ, वो कहां ठहरने वाला ।
    वो तो अलमस्त है , हर पल हर क्षण चलने वाला ।
    ..सुंदर सृजन ..

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    1. शुक्रिया आदरणीया जिज्ञासा जी। सराहना हेतु आभारी हूँ।

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