Thursday, 14 July 2016

वेदना

क्युँ झंकृत है फिर आज तन्हाई का ये पल,
कौन पुकारता है फिर मुझको विरह के द्वार,

वो है कौन जिसके हृदय मची है हलचल,
है किस हृदय की यह करुणा भरी पुकार,

फव्वारे छूटे हैं आँसूओं के नैनों से पलपल,
है किस वृजवाला की असुँवन की यह धार,

फूट रहा है वेदना का ज्वार विरह में हरपल,
है किस विरहन की वेदना का यह चित्कार,

टूटी है माला श्रद्धा की मन हो रहा विकल,
है किस सुरबाला की टूटी फूलों का यह हार,

पसीजा है पत्थर का हृदय भी इस तपिश में,
जागा है शिला भी सुनकर वो करूण पुकार।

Tuesday, 5 July 2016

कुछ बोल दे बादल

ओ चिर काल से नभ पर विचरते बादल,
इस वसुधा की कण-कण को भिगोते बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

क्षार सा खारा जल तू पीता,
जिह्वा से तेरी बहता बस मीठा सा जल,
बूंदों में तेरी रचती गंगा-जमुना जल,
तू कितना प्यारा कितना अनमोल बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

गम की बोझ से है भरा पड़ा तू,
तम की घोर कालिमा मे ही लिपटा तू,
हर पल टूटा, हर पल बिखरा है तू,
तेरी धीरज से ना कोई अंजान बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

तम रचता मानव तन के अन्दर भी,
गम के काटें चुभते इस मानव तन को भी,
तेरा मीठा जल पीता क्षुधा मिटाने को भी,
मुख से लेकिन छूटते कड़वे ही बोल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

ओ राग अनुराग में लिप्त घुमरते बादल,
ओ मेरे हृदयाकाश पर उड़ते उन्मुक्त बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

व्यर्थ के आँसू

शायद जीवन इस जग में मुझ जैसा ही सबका!

सभी काटते जीवन में तन्हा ही,
अपनी विरह-भरी विभावरी,
व्यर्थ लुटाते गम में चिर सुख की निधि,
न बट सकी, न घट सकी,
अपने-अपने हिस्से की विरह-घिरी विभावरी।

घटते ना जीवन के कुछ गम,
दुख में करते रोदन-गायन,
व्यर्थ ही जाते ये मोतियों से छलकते आँसू,
न बट सकी, ना ही घटी,
अपने-अपने हिस्से की तम भरी विभावरी।

शायद जीवन इस जग में मुझ जैसा ही सबका!

Monday, 4 July 2016

तुम्हारी बातें-प्यार से तकरार तक

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी प्यारी-प्यारी सी बातें,
साँसों में संग घुली हुई वो मुलाकातें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
बना लूँ मैं इन्हें सारथी अपने जीवन पथ का,
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी बहकी-बहकी सी बातें,
अन्तस्थ दिलों में समाती वो इठलाती बातें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
बना लूँ मै इनको बस बहाना अपने जीने का,
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी भोली-भाली सी बातें,
तन्हाईयों में मुझको छेड़ती वो एहसासें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
बना लूँ मैं उन पलों को अफसाना सपनों का,
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी झूठी-मूठी वो बातें,
इस दिल को कचोटती वो कोरी बातें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
कह दो अब कैसे जिक्र तक न करूँ मैं इनका?
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी व्यर्थ-निरर्थक बातें,
व्यंग्य वाण के बंधन में कसी वो बातें,
रोष की आँच में तली हुईं वो बातें,
विष की फुहार सी वो जहरीली बातें,
मान लूँ मैं कैसे इन्हे घास का इक तिनका?
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
यही तो है पूंजी अपने जीवन का,
यही तो है फल अपनी जीवन साधना का,
साथ भला कब छोड़ेगी ये अंत तक,
कह दो कैसे बनने दूँ इन्हें साधन अपनी घुटन का?
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

Wednesday, 29 June 2016

ख्याल

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

तब रूह को छू जाती हैं बरबस यादें तेरी,
जल उठते है माहताब दिल के अंधियारे में कहीं,
महक उठती है ख्यालों से सूनी सी ये तन्हाई,
मद्धम सुरों में उभरता आलाप एक सुरमई।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

मन पूछने लगता है पता खुद से खुद का ही,
भूल सा जाता है ये मन के तुम कहीं हो ही नहीं,
बस इक परछाईं सी हो तुम कोई अक्स नहीं,
गुमसुम सा विकल ये मन मानता ही नहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

राख बन कर ही सही उर रहीं हैं यादें तेरी,
गहरा धुआँ सा छा रहा हैं मन के गगन पर मेरी,
क्या मिलोगे मुझे उस क्षितिज के किनारे कहीं,
इस रूह की गहराईयों में तुम छुपे हो कहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

Sunday, 26 June 2016

प्यासी छाया

छाया क्षणिक सी,
वो क्या दे पाएगी गहरी छाँव?

कोरा भ्रम मन का,
कि पा जाऊँ क्षण भर,
उस अल्प छाया में विश्राम,
भ्रमित मन भँवरा सा,
आ पहुँचा है किस गाँव?

छाया खुद तपती सी,
वो क्या दे पाएगी गहरी छाँव?

छाया वो प्यासी सी,
तप्त किरणों में कुचली सी,
झमाझम बूंदों की उसको चाह,
बरसूँ मैं भींगा बादल सा,
ले आऊँ संग उसे अपने गाँव!

छाया लहराई सी,
अब हसती बनकर गहरी छाँव?

छाया का मौन

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

जाने कब टूटेगा इस मूक छाया का मौन,
प्यासे किरणों के चुम्बन से रूँधी हैं इनकी साँसे,
कंपित हृदय हैं इनके सूखे पत्तों की आहट से,
खोई सी चाहों में घुट कर मूक हुई आहों में,
सुप्त आहों में छुपी वेदना कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

व्यथित प्राण इनके देख मुर्झाए फूलों को,
घुटती हैं साँसें इनकी देख सूूखे बंजर खेतों को,
सूनी आंगन में तब लेकर आती ये ठंढ़ी साँसो को,
रात के मूक क्षण भर भरकर धोती ये आहों को,
सुप्त चाहों में छुपी व्यथा कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

छलकते बादलों से टपकते आँसू मोती के,
मेघ भर लेता बाहों में छाया को अपनी पंखों से,
कह जाते इनके नैन कथा जाने किस बीते जीवन के,
सिहर उठते प्राण उस क्षण व्याकुल छाया के
सुप्त पनाहों में यह व्याकुल कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

Friday, 24 June 2016

छाया अल्प सी वो

बुझते दीप की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

प्रतीत होता जिस क्षण है बिल्कुल वो पास,
पंचम स्वर में गाता पुलकित ये मन,
नृत्य भंगिमा करते अस्थिर से दोनों ये नयन,
सुख से भर उठता विह्वल सा ये मन,
लेकिन है इक मृगतृष्णा वो रहता कब है पास....

उड़ते बादल की लघु सी प्रच्छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

क्षणिक ही सही जब मिलते हैं उनसे जज्बात,
विपुल कल्पनाओं के तब खुलते द्वार,
पागल से हो जाते तब चितवन के एहसास,
स्मृति में कौंधती है किरणों की बौछार,
लेकिन वो तो है खुश्बु सी बहती सुरभित वात..,,

क्षणिक मेघ की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात..

Thursday, 23 June 2016

चिरन्तन प्रेम तुम

चिरन्तर प्रेम अनुरागिनी, सजल पुतलियों मे तेरी छवि,
हो चिरन्तन प्रेम तुम.....

असीम घन सी वो, है चाह मुझे जिस छवि की,
सजल इन पुतलियों में, है अमिट छाप बस उसी की,
प्राण मेरे पल रहे, अनन्त चाह बस उस छवि की,
पर असीम सी वो, राह तकता रहा मैं जिस छवि की।

चित्र अमिट सी छपी है, नैनों में बस उसी की,
श्वास में उनको छिपाकर, राह तकुँ मैं बस उसी की,
असीम घन सी शून्य मन में ही वो विचर रही,
मन के मिलन मंदिर में सजी सदा से ही है वो छवि।

यादों में पहर सूने बिता, किस प्रांत में वो जा छुपी,
मैं मिटूँ प्रिय की याद में, मिटी ज्यों तप्त रक्त दामिनी,
दीप सा युग-युग जलूँ, जली ज्युँ रूप वो चाँदनी,
चिरन्तर प्रेम अनुरागिनी, सजल पुतलियों मे तेरी छवि।

हो, मेरी चिरन्तन प्रेम तुम........

Monday, 20 June 2016

उफ यह रात

उफ, यह डरी सहमी सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

उफ, ये रात ढलती है कितनी धीरे-धीरे,
कितने ही मर्म अपने गर्त अंधेरे साए में समेटे,
दर्द की चिंगारी में खुद ही जल-जलके,
तड़पी है यह रात अपनों से ठोकर खा-खा के,

उफ, यह बेचारी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

पड़े हैं कितने ही छाले इनके पैरों में,
दिन की चकाचौंध उजियारों मे चल-चल के,
लूटे हैं चैन अपनों नें ही इन रातों के,
सपन सलोने भी अब आते हैं बहके-बहके,

उफ, यह तन्हा सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

सुर्ख रातों की गहरी तम सी तन्हाई,
भाग्य की लकीरों सी इनकी हाथों मे गहराई,
सन्नाटों की चीरती आवाज सी लहराई,
आँखे रातों की भय, व्यथा, घबराहट से भर आई,

उफ, अंधेरी स्याह सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?