Monday, 19 September 2016

घर

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें...

कहता हूँ मैं अपनी दुनियाँ जिसे,
वो चहारदिवारी जहाँ हम तुम बार-बार मिले,
जहाँ बचपन हमारे एकबार फिर से खिले,
करके इशारे, वो आँगन फिर से बुलाती हैं तुझे...

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

पलकों तले तुमने सजाया था जिसे,
इंतजार करती थी तुम जहाँ नवश्रृंगार किए,
आँचल तेरे ढलके थे जहाँ पहलू में मेरे,
पलकें बिछाए, वो अब देखती है बस तेरी ही राहें....

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

रौशन थे तुझसे ही इस घर के दिए,
तेरी आँखों की चमक से यहाँ उजाले धे फैले,
खिल उठते थे फूल लरजते होठों पे तेरे,
दामन फैलाए, वो तक रहीं हैं बस तेरी ही राहें....

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

खामोशियाँ

पुकार ले तू मुझको, कुछ बोल दे ऐ जिन्दगी,
रहस्य खामोशियों के, कुछ खोल दे ऐ जिन्दगी....

यह खामोशी है कैसी......

विषाद भरे आक्रोशित चिट्ठी की तरह गुमशुम,
राख के ढेर तले दबे गर्म आग की तरह प्रज्वलित,
तपती धूप में झुलसती पत्थर की तरह चुपचाप....

खामोशियाँ हों तो ऐसी.....

जज्बात भरे पैगाम लिए चिट्ठी की तरह मुखर,
दीवाली के फुलझड़ी मे छुपी आग सी खुशनुमा,
धूप में तपती गर्म पत्तियों की तरह लहलहाती.....

खामोशी है यह कैसी....

पुकार ले तू मुझको, कुछ बोल दे ऐ जिन्दगी,
तु कर दे इशारे, बता कि ये खामोशियाँ हैं कैसी?
रहस्य खामोशियों के, कुछ खोल दे ऐ जिन्दगी....

Sunday, 18 September 2016

कटते नहीं कुछ पल

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

चूर हुआ जाता है जब बदन थक कर,
मुरझा जाती हैं ये कलियाँ भी जब सूख कर,
पड़ जाती हैं सिलवटें जब सांझ पर,
छेड़ जाता है वो पल फिर चुपके से आकर,

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

मद्धिम सी सूरज हँसती थी फलक पर,
आसमाँ से गिरके बूंदे, छलक जाती धी बदन पर,
नाचता था ये मन मयूर तब झूमकर,
बदली सी हैं फिजाएं, पर ठहरा है वो पल वहीं पर,

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

उस पल में थी जिन्दगानी की सफर,
उमंग थे, तरंग थे, थे वहीं पे सपनों के शहर,
लम्हे हसीन से गुजरते थे गीत गाकर,
पल वो भुलाते नहीं फिर गूंजते हैं जब वो स्वर,

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

इक अमिट याद हूँ मैं

इक अमिट याद हूँ मैं, रह न पाओगे मेरी यादों के बिना।

सताएंगी हर पल मेरी यादें तुझको,
आँखें बंद होंगी न तेरी, मेरी यादों के बिना,
खुली पलकों में समा जाऊंगा मैं,
तन्हा लम्हों में चुपके से छू जाऊंगा मैं,
जिन्दगी विरान सी तेरी, मेरी यादों के बिना।

संवारोगे जब भी तुम खुद को,
लगाओगे जब भी इन हाथों में हिना,
याद आऊँगा मैं ही तुमको,
देखोगे जब भी तुम कही आईना,
निखरेगी ना सूरत तेरी, मेरी यादों के बिना।

गीत बनकर होठों पर गुनगुनाऊंगा मैं,
तेरी काजल में समा जाऊंगा मैं,
संभालोगे जब भी आँचल को सनम,
चंपई रंग बन बिखर जाऊँगा मैं,
सँवरेंगी न सीरत तेरी, मेरी बातों के बिना।

हमदम हूँ मैं ही तेरी तन्हाई का,
तेरे सूने पलों को यादों से सजाऊंगा मैं,
भूला न पाओगे तुम मुझको कभी,
खुश्बू बनकर तेरी सांसों मे समा जाऊंगा मैं,
तन्हाई न कटेगी तेरी, मेरी यादों के बिना।

इक अमिट याद हूँ मैं, रह न पाओगे मेरी यादों के बिना।

Friday, 16 September 2016

अधलिखी

अधलिखी ही रह गई, वो कहानी इस जनम भी ....

सायों की तरह गुम हुए हैं शब्द सारे,
रिक्त हुए है शब्द कोष के फरफराते पन्ने भी,
भावप्रवणता खो गए हैं उन आत्मीय शब्दों के कही,
कहानी रह गई एक अधलिखी अनकही सी....

संग जीने की चाह मन में ही रही दबी,
चुनर प्यार का ओढ़ने को, है वो अब भी तरसती,
लिए जन्म कितने, बन न सका वो घरौंदा ही,
अधूरी चाह मन में लिए, वो मरेंगे इस जनम भी ....

जी रहे होकर विवश, वो शापित सा जीवन,
न जाने लेकर जन्म कितने, वो जिएंगे इस तरह ही,
क्या वादे अधूरे ही रहेंगे, अगले जनम भी?
अनकही सी वो कहानी, रह गई है अधलिखी सी....

विलख रहा हरपल यह सोचकर मन,
विधाता ने रची विधि की है यह विधान कैसी,
अधलिखी ही रही थी, वो उस जनम भी,
वो कहानी, अधलिखी ही रह गई इस जनम भी ....

Thursday, 15 September 2016

अफसाना

लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना....

रुक गया था कुछ देर मैं, छाॅव देखकर कहीं,
छू गई मन को मेरे, कुछ हवा ऐसी चली,
सिहरन जगाती रही, अमलतास की वो कली,
बंद पलकें लिए, खोया रहा मैं यूॅ ही वही,
लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा तब वो अफसाना....

कुछ अधलिखा सा वो अफसाना,
दिल की गहराईयों से, उठ रहा बनकर धुआॅ सा,
लकीर सी खिंच गई है, जमीं से आसमां तक,
ख्वाबों संग यादों की धुंधली तस्वीर लेकर,
गाने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना.....

कह रहा मन मेरा बार-बार मुझसे यही,
उसी अमलतास के तले, आओ मिलें फिर वहीं,
पुकारती हैं तुझे अमलतास की कली कली,
रिक्त सी है जो कहानी, क्यूॅ रहे अनलिखी,
लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना....

Wednesday, 14 September 2016

गुजरी राहें

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

वो राहें मुड़कर देखती हैं अब राहें मेरी,
जिन राहों से मैं गुजरा था बस दो चार घड़ी,
शायद करने लगी हैं वो राहें मुझसे प्यार,
सुन सकूंगा न मैं उन राहों की सदाएं,
पुकारो न मुझको बार-बार, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

इस कर्मपथ पर मेरी, गुजरेंगी राहें कई,
अपनत्व बाटूंगा उन्हे भी मैं, चंद पल ही सही,
अपने दिल के करने होंगे मुझे टुकड़े हजार,
कर न सकूंगा मैं उन राहों से भी प्यार,
हो सके तो भूल जाना मुझे, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

ए राहें, तू झंकृत न कर मेरे मन के तार,
तू दे न अब सदाएं, बुला न मुझको यूॅ बार-बार,
बाॅध न तू मुझे रिश्तों के इन कच्चे धागों से,
भीगेंगी आॅखें मेरी, तोड़ न पाऊंगा मैं ये बंधन,
बेवश न कर अब मुझको, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

Tuesday, 13 September 2016

नए स्वर

क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....

वो दूर घाटी, जहाॅ कभी बहती थी इक नदी,
वो नदी की तलहटी, जहाॅ भीगते थे पत्थर के तन भी,
वो गुमशुम सी वादी, जहाॅ कोलाहल थे कभी,
सन्नाटा सा अब पसरा है हर तरफ वहीं,
असंख्य सूखे पत्थर के बीच सूखा है वो घाटी भी।

क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....

घास के फूल उग आए हैं अब धीरे से वहीं,
पत्थर के तन पर निखरी है अनदेखी कोई कारीगरी,
प्रकृति ने बिछाई है मखमली सी चादर अपनी,
गूंजी है कूक कोयल की, हॅस रही हरियाली,
फूटे हैं आशा के स्वर, गाने लगी अब वो घाटी भी।

क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....

Sunday, 11 September 2016

शहतूत के तले

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले.....

अचानक ऑंखें बंद रखने को कहकर,
चुपके से तुमनें रख डाले थे इन हाथों पर,
शहतूत के चंद हरे-लाल-काले से फल,
कुछ खट्टे, कुछ मीठे, कुछ कच्चे से,
इक पल हुआ महसूस मानो, जैसे वो शहतूत न हों,
खट्टी-मीठी यादों को तुमने समेटकर,
सुुुुसुप्त हृदय को जगाने की कोशिश की हो तुमने।

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले....

शहतूत के तले ही तुम मिले थे पहली बार,
मीठे शहतूत खाकर ही धड़के थे इस हृदय के तार,
वो कच्ची खट्टी शहतूत जो पसन्द थी तुम्हें बेहद,
वो डाली जिसपर झूल जाती थी तुम,
शहतूत की वो छाया जहाॅ घंटों बातें करती थी तुम,
वही दहकती यादें हथेली पर रखकर,
सुलगते हृदय की ज्वाला और सुलगा दी थी तुमने।

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले....

Friday, 9 September 2016

चंचल बूॅदें

चंचल सी ये बूंदें,
सिमटी हैं अब घन बनकर,
नभ पर निखरी हैं ये,
अपनी चंचलता तजकर,
धरा पर बिछ जाने को,
हैं अब ये बूँदे आतुर,
उमर पड़े है अब घन,
चंचलता उन बूंदो से लेकर।

बह चली मंद सलिल,
पूरबैयों के झौंके बनकर,
किरण पड़ी है निस्तेज,
घन की जटाओं में घिरकर,
ढ़क चुके हैं भाल,
विशाल पर्वत के अभिमानी शिखर,
घनेरी सी घन की,
घनपाश भुजाओं में घिरकर।

बूँदे हो रहीं अब मुखर,
शनैः शनैः घन लगी गरजने,
धुलकर बिखरे हैं नभ के काजल,
बारिश की बूंदों में ढ़लकर,
बिखरी हैं बूँदे, धरा पर अब टूटकर,
कण-कण ने किया है श्रृंगार,
चंचल बूंदों की संगत पाकर।